सुरेश सेठ

वक्त बदल रहा है। जीवन में सच का महत्त्व कम और झूठ का महत्त्व अधिक होता जा रहा है। सफल वही है, जिसके व्यवहार में स्वाभाविकता कम और नाटकीयता अधिक हो। आदर्श, नैतिकता और मानवीय मूल्य ज्यों-ज्यों दैनिक व्यवहार से लुप्त होते जा रहे हैं, त्यों-त्यों उनकी शेखी बघारने वाले अधिक होते जा रहे हैं।

अच्छा अभिनेता वह, जिसे पर्दा या ‘स्क्रीन’ पर अपना किरदार निभाना आए या नहीं, लेकिन पूरा दिन वह महसूस करे कि घर के बाहर बस यों ही चलते हुए भी जैसे कैमरे की आंख उस पर लगी है। समय का निर्देशक चिल्लाता है, ‘स्टार्ट’ तो वह चल देता है और वह इशारा करे ‘कट’ तो मौन पसर जाता है।

तब उसकी जिंदगी में नेता, अभिनेता, समाज सुधारक या धर्म प्रचारक बनने का अभिनय रुक जाता है। लेकिन समय का निदेशक शायद ‘कट’ कहना भूल जाता है, इसलिए नेता की नेतागिरी, अभिनेता का थोथा ‘सुपर हीरो’ अभिनय, समाज सुधारक के लंबे प्रवचन और धर्म प्रचारक की फालतू पोंगापंथी कभी रुकती नहीं।

बनावट के इस परिवेश में जीते जी नेतागीरी से जनसेवा के स्थान पर स्वजन सेवा, अभिनय के स्थान पर नकली हीरो का प्रपंच, भाषणों से लिपा-पुता समाज और भी रसातल को चला जाता है और धर्म प्रचार में जातीयता तथा असहिष्णुता के कीटाणु पनप नया सच बन जाते हैं। वैसे अपनी सीमा यह है कि देश का रुतबा भुखमरी के सूचकांक में कुछ और नीचे उतर गया है।

धन्ना सेठ मुफ्त की संस्कृति को समाधान मान भूखों में मुफ्त रोटी बांट अपनी सात पुश्तों के तर जाने की कल्पना करने लगते हैं और उधर काम के बिना भूख से तड़पता हुआ देश का भविष्य उसी अंधेरे में डूबा रहता है, जिसमें उसे सदियों से सिसकने की आदत हो गई है। अपने देश की संस्कृति की महानता की बखान की आदत हमें है। कलाकार अपनी नुमाइशें खुद लगाकर अपनी किताबें छपवा कर अपने सम्मान समारोह आयोजित करके मौलिक राह पर चलने का साहस करने वाले कलाकारों को ‘समूह से बाहर’ कर देने का फरमान सुना देते हैं।

एक ओर मानवीय मूल्यों और आदर्शों का कोलाहल होता रहेगा, दूसरी ओर, महिलाओं का अपहरण और उनसे बलात्कार की घटनाएं होती रहती हैं। देश का लोकतंत्र अपनी पूर्ण गरिमा के साथ मुस्कुराता रहता है, लेकिन क्या कारण है कि इसकी संसद और विधानसभाएं आज भी वैसे नेताओं से भरी हैं, जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि सबको निराश करती है।

लेकिन केवल आरोपित हो जाने से कोई अपराधी नहीं हो जाता है, कानून पटल हमें समझाता है। जब तक दंड न मिले, उसे अपराधी नहीं कहा जा सकता। इसलिए उसे समाज की बागडोर संभालने का हक है। लोग कहते हैं कि इन बाहुबलियों को अपनाने के सिवाय उनके पास और कोई विकल्प ही कहां है, क्योंकि जो लोग जनसेवा के लिए अपनी जान खपा सकते थे, वे तो आर्थिक हाशिये के बाहर छूट गए। वे चुनाव लड़ेंगे तो शायद अपनी जमानत भी जब्त करवा बैठेंगे। नेतागीरी की कसौटी पहले दिन-रात वंचितों की सेवा और उनके हित के लिए आत्म-बलिदान कर सकने की सामर्थ्य होती थी, आज केवल आदर्शों को दोहराने की तोता रटंत बन गई है।

यों युग के मसीहाओं की इस तोता रटंत में पूरी-पूरी नाटकीयता होनी चाहिए, तभी जन समुदाय किसी पर फिदा होता है। इसके तरीके दो हैं। या तो मंच को हिलाकर ऊंचे स्वर में चिल्लाते हुए श्रोताओं को तालियां बजाने पर मजबूर करने वाले शेर पढ़ते जाइए, जिनमें समय बदल देने का संकल्प हो। या फिर उनका निवेदन जो विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन कर वह दीन-हीनों के साथ सुर मिला कर पेश करते हैं।

यह सारा खेल अहसासों को जीवित करने का है, किसी सजीव स्पर्श का नहीं, कि जिसने कभी अहिल्या की निर्जीव शिलादेह को जीती जागतीy अनुगृहीत नारी देह में बदल दिया था। आज शिलाखंड प्राणवान नहीं बनते, बल्कि प्राणों को शिलाओं में बदल भी दिया जाए तो कोई कवि, साहित्यकार इन शिलाओं के आंसुओं का लेखा-जोखा नहीं लिखता।

वे कोई और थे, जिन्होंने कह दिया था कि ताजमहल समय की शिला पर ठिठका हुआ प्रेम भरा आंसू है। अब तक आंसू ठिठके हैं, उन आंखों में जिन्होंने हंसना भुला दिया और इन आंसुओं को जयघोष में तब्दील करना और इस जयघोष के साथ एक शोभायात्रा में शरीक हो जाना ही उस बदलाव का प्रतीक है, जिसके बारे में बार-बार समझाया जाता है।

हम इस बदलाव को समझ नहीं पाते, क्योंकि यहां बदलाव नहीं, एक शून्य है। उस बदलाव का भ्रम है, छटपटाते हुए हाथ हैं। इंतजार करती हुई कतारें हैं और गद्गद कंठ से इस बदलाव को स्वीकार करते हुए लोग हैं जो धरती के बजाय अंतरिक्ष में जाने का सपना देखते हैं। शायद चांद पर नई बस्तियां बसाने की बात भी हो रही है।

सुना गया है कि देश में पर्यटन से ज्यादा कोई और लाभदायक व्यवसाय नहीं। यह पर्यटन अगर आपके सपनों को जीवित करने का एक बहाना दे दे तो क्यों न चांद के बाद सूरज की ओर यात्रा करने का भी कार्यक्रम बना लें। नए कार्यक्रम बनते रहें, ऊसर धरती पर नए सपने उगते रहें तो कतार में खड़े लोगों को धीरज बना रहता है।