मयंक मुरारी
वर्तमान समय में समाज ऊंची हैसियत या रसूख से जुड़े प्रतीकों या ‘स्टेटस सिंबल’ और ‘स्टेटस टैग’ के अंधाधुंध पथ पर सरपट भाग रहा है। यह ऐसा दौर है, जिसमें पूरी पीढ़ी इसके प्रभाव और दबाव में है। अभिभावक की भावना और इच्छा का भार वर्तमान पीढ़ी पर ज्यादा हो गया है। अभिभावक की सफलता और वांछित लक्ष्य को आगे बढ़ाने का भार जब बच्चों पर आता है, तब उनके सपने टूट जाते है। बच्चों के साथ अभिभावक के संबंध खराब होने लगते हैं। यह ‘रसूख’ का ऐसा दबाव है कि नौनिहालों की पूरी पीढ़ी इसके नीचे दबती जा रही है।
सामान्य तौर पर बच्चों को अपने अभिभावक से प्यार और श्रद्धा होती है, इसलिए वे उनकी उम्मीदों के लिए पूरी कोशिश करते हैं। मगर हरेक व्यक्ति की प्रकृति, स्वभाव और चारित्रिक गुण अलग-अलग होते हैं। ऐसे में उम्मीद को पूरा करना आसान नहीं होता है और बच्चे टूट जाते हैं। अभिभावकों को समझना होगा कि दुनिया बहुत विशाल है और इसमें संभावनाएं अनंत हैं। शिखर पर पहुंचने के कई मार्ग हैं, लेकिन एक ही पथ पर चलने के हठ से पीढ़ियों के गुम होने का खतरा बढ़ गया है। हम अपनी पीढ़ियों को नए रास्ते बनाने के लिए प्रेरित नहीं करेंगे, बियावान में गुम होने से डरेंगे, तो वे नए शिखर की खोज कैसे करेंगे?
आजकल रसूख को दर्शाने का जमाना है। इसने हमारी वर्तमान पीढ़ी को विविध तरीके से प्रभावित किया है। कोई क्षेत्र या जगह नहीं, जहां इसकी स्पष्ट छाप नहीं दिखती हो। इसके भी कई आयाम हैं। बौद्धिक रसूख के लिए नामी स्कूल या विश्वविद्यालय में पढ़ना या पढ़ाना और उसे दुनिया भर को बताना आम बात हो गई है। नए सम्मान और हैसियत का जमाना आ गया है, जिसमें हम कालोनी, घर, बाइक, कार पर जातिगत या पेशागत पहचान दर्ज करते हैं। ‘स्टेटस टैग’ का ऐसा प्रभाव है, जिसमें वर्तमान पीढ़ी पूरी तरह चंगुल में फंस चुकी है।
इसके पीढ़ीगत प्रभाव से समाज, देश और सभ्यता की पहचान का खतरा बढ़ गया है। दरअसल, आज के दौर में सोचने-समझने का तरीका बन गया है। ऐसे में जब वर्तमान पीढ़ी कल को अभिभावक बनेगी, तो वह अपने बच्चों को सही-गलत के बारे में नहीं बता पाएगी। लोग अपने बच्चों को भी इसी मानसिकता और समझ के साथ बड़ा करने को मजबूर होंगे।
खतरा इतना भर नहीं है। इसके जो दुष्परिणाम हैं, वे ज्यादा चिंताजनक हैं। इसके कारण युवा पीढ़ी में तनाव और अवसाद का बढ़ना, प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता की चिंता, बच्चों में बढ़ता अंतर्मुखी स्वभाव, संघर्ष के आनंद को अनुभव न करने, तुरंत हार मान लेने जैसी प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। सबसे ज्यादा ‘हम सही हैं और दूसरे गलत हैं’ जैसे मनोभाव का विकास हो रहा है। इसके कारण अब महंगे निजी स्कूल और कालेज में पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। बच्चों के स्वभाव में परिवार से बाहर महानगर में एकल रहने का विचार हावी हो रहा है।
आज बाजारवादी व्यवस्था ने वर्तमान समय में असंख्य उत्पादों से दुनिया को भर दिया है। ऐसे खगोलीकरण के असर से समूची दुनिया के लोग, समाज और उनकी संस्कृति में भेड़चाल की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। अब दुनिया में एकमात्र उपभोक्ता का समाज है, जो उत्पाद का उपयोग करता है। अब ऐसे समाज में उसकी हैसियत ज्यादा बड़ी हो जाती है, जिसमें खरीदने की क्षमता अधिकतम है।
व्यक्ति की हैसियत का निर्धारण हमारी ज्ञानशक्ति नहीं, बल्कि क्रयशक्ति करती है। प्रतिष्ठा के भी पैमाने बदल गए हैं। पैसा और पद के आलोक में प्रतिष्ठा का सोपान तय होता है। जब उपभोक्ता के उत्पाद से प्रतिष्ठा हो, तब नामी कंपनियों या ब्रांड के उत्पाद का इस्तेमाल हमारा ‘स्टेटस सिंबल’ बन जाता है। इस प्रतीक से हमारी प्रतिष्ठा जुड़ जाती है और इसी से सोशल मीडिया पर हमारी पसंदगी, साझा करने और टिप्पणियों की काबिलियत नापी जाती है।
इस होड़ में पढ़ाई से ज्यादा अतिरिक्त गतिविधियों में खुद को शामिल करने की कोशिश होती है। पढ़ाई के साथ एकाध भाषाओं की जानकारी, संगीत, नृत्य या पेंटिंग में हुनर बनाने का प्रयास होता है। हम एक विधा में सफल होने के बजाय हरेक में फिसड्डी होते जाते हैं। यह हैसियत की मृग-मरीचिका है, जो अभिभावक को अपने बच्चों को बहुआयामी गुणवत्ता से लैस करने को प्रेरित करता है।
इसके पीछे समाज में खुद की पहचान बनाना और दूसरों से अलग दिखना होता है। आजकल वैसे अभिभावक भी खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं, जिनके बच्चों को सौ फीसद अंक मिलते हैं या वे अच्छे स्कूल या शहर में पढ़ते हैं। बच्चों की सफलता में अपनी पहचान देखने वाले अभिभावक के कारण भी आज की पीढ़ी में हैसियत का प्रदर्शन करने का चलन है।
दरअसल, हैसियत या ‘स्टेटस’ का भंवरजाल ऐसा है कि कोई इससे दूर है तो उसे दकियानूसी माना जाता है। हर वह बात और विचार इस ‘स्टेटस टैग’ के खिलाफ होगा, जो भीड़ का हिस्सा नहीं है। अगर कोई भीड़ का हिस्सा नहीं है, तो उसे बनना होगा, अन्यथा उसे अस्वीकार कर दिया जाएगा। हरेक क्षेत्र में एक हैसियत का मायाजाल है, लोग उसका हिस्सा हैं।