मानव जीवन की आचार संहिता के अन्य सूत्रों में कृतज्ञता का स्थान अति विशिष्ट रहा है। हमारे पूर्वजों द्वारा इस आचरण को कभी अपनी दैनिक गतिविधियों का सहज और सरल हिस्सा के साथ स्वभाव माना जाता था। किसी के दुख या उसकी समस्या में संलग्न होने की सूचना मिलते ही वे अपने कार्य को विराम देकर उनके पास पहुंच जाया करते थे और यथाशक्ति वे सहायता के सभी स्रोतों से लैस रहते थे। सामाजिक जीवन में यह क्रिया स्वत:स्फूर्त होती थी।

कभी-कभी किसी पड़ोसी से अनबन की स्थिति में भी अगर वे संकट में हैं, तो व्यक्ति सब कुछ विस्मृत कर उसे कष्ट से उबारने में चेष्टारत हो जाते थे। पीड़ित व्यक्ति ठीक हो जाने पर उक्त मददगार के घर जाकर प्रदत्त सेवा के प्रति आभार या कृतज्ञता ज्ञापन करने में जरा भी कंजूसी नहीं करते थे। ऐसे मनोभाव से पड़ोसी के बीच लंबे समय से जारी संबंधों के खटास में सक्रियता और सामान्यता का संचार हो जाता था, बल्कि संकट से मुक्त व्यक्ति मदद करने वाले अपने उस पड़ोसी की किसी प्रतिकूलता में सबसे पहले सहयोगार्थ हाजिर हो जाते थे।

जीवन के वर्तमान परिवर्तन के दौर में किसी को मदद करना अब कम हो गया है, क्योंकि आत्मकेंद्रित मनोदशा के हम सब शिकार हैं। जब हम कष्ट में पड़े किसी व्यक्ति का हाथ नहीं थामते तो ऐसी स्थिति में हम भी एकांत भाव में यथास्थितिवाद से गुजरने को बाध्य होते हैं। गुजरे जमाने में कृतज्ञता एक पारिवारिक संस्कार की अक्षय निधि होती थी, जिससे व्यक्ति के मानस पटल पर विनम्रता की रेखाएं सदा केंद्रित रहती थीं। कुछ लोग संकट काल में काम आने वाले व्यक्तियों के चिर ऋणी होते थे और इसमें लेशमात्र भी आडंबर नहीं होता था। कुछ बुजुर्गों की मान्यता थी कि किसी को मदद करने की कहीं चर्चा भी नहीं करनी चाहिए।

कृतज्ञता एक पुण्यकारी अवयव

ऐसी प्रवृत्तियों का जन्म मानव सभ्यता के प्रारंभ से होना यह बताता है कि किसी शिक्षण संस्थान के अभाव में भी हमारी जीवन पद्धति कितनी प्रभावी और सहयोगात्मक थी। कृतज्ञ प्राणी एक सामान्य शिष्टाचार की श्रेणी धारण करते हुए अपने शिष्ट वचनों से सहायता करने वाले का आभार प्रकट करते थे। इस शिष्टाचार के माध्यम से वे अपने व्यक्तित्व का श्रेष्ठ और उज्ज्वल प्रदर्शन करते थे और यह गुण उन्हें सम्मानित नागरिकों की पंक्ति में खड़ा कर देता था। सच कहा जाए तो कृतज्ञता एक ऐसी पुण्यकारी अवयव है, जो अनुग्रहकर्ता के प्रति अनुग्रहित होने का भाव ज्ञापन भी है, जहां उसके कृत्य अभिनंदनीय और वंदनीय हो जाते हैं।

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वर्तमान भौतिक सुख की प्राथमिकता के बावजूद समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो बिना किसी लोभ और यश के दूसरे को मदद के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। जब हम स्रेह या प्रेम से किसी की सहायता करते हैं तो हमारे भीतर का मन कुछ हल्का होकर अहंकार के अंश को मौन कर देता है। इस विपुल ब्रह्मांड की अक्षय निधि सूर्य, वायु, पर्वत, वन, चंद्रमा, नदियां, वर्षा आदि बिना मांगे एक भाव से समस्त मानव प्राणी को नित्य उपकृत करते रहते हैं, जिसका आभार और कृतज्ञता हम विभिन्न अनुष्ठानों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। हम अपने प्रति कभी भी और किसी भी रूप में की गई सहायता के लिए आभार प्रकट करते हुए जब कहते हैं कि ‘हम आपके प्रति कृतज्ञ हैं, जिसके बदले हमें जब भी कभी अवसर आएगा, अवश्य सेवा करेंगे।’

हृदय से निवेदित करें आभार

दरअसल, यह भाव मानवता की सर्वोत्कृष्ट विशेषता है, जो हमें आभास दिलाती है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष किसी रूप में कभी भी अगर किसी व्यक्ति ने कोई मदद की है, तो उसके लिए अगर कुछ न कर सके तो हृदय से आभार अवश्य निवेदित किया जाए। वहीं कृतघ्नता इसके विपरीत एक नकारात्मक प्रवृत्ति है, जो आज समाज में अधिक देखी जा रही है और इंसान को उसके औसत कर्तव्य पथ से विमुख कर रही है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो संकट में किसी न किसी रूप में अपने दांव-पेच के सहारे दूसरे से मदद लेते हैं, लेकिन उन्हें आभार प्रकट करने से वे विलग हो जाते हैं। ऐसी मन:स्थिति वाले मदद पाए लोगों से उनकी आवश्यकता की घड़ी में बड़ी निष्ठुरता से नजर भी फेर लिया करते हैं, जिन्हें लोग एहसान-फरामोश कहने में नहीं हिचकते।

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विचारणीय यह भी है कि समाज में अच्छे-बुरे लोगों का समूह सृष्टि के शुरू से ही है। सहयोग जैसे दिव्य और भव्य गुण के बल पर समाज और इंसान में एक सहज संबंध विकसित होकर भावना और संवेदना का जीवंत वातावरण निर्मित कर पाता है। कृतज्ञता सचमुच में मानवीय आचार संहिता के अनुष्ठान का एक पावन और अनवरत यज्ञ है। इससे विलग व्यक्ति को समाज से सहयोग और सहायता की कामना करना सूखे में जल तलाशने जैसा है। कई सामाजिक दर्शनों का आख्यान है कि किसी के प्रति किए गए उपकार अमूल्य हैं, लेकिन उपकृत व्यक्ति सिर्फ कृतज्ञता प्रकट कर भी उक्त उपकार का मोल कुछ हद तक चुका देता है।

एक सेविका और चिकित्सक की सहायता के बिना हम जीवन नहीं पा सकते थे, जिसने हमें माता के गर्भ से इस संसार में अवतरण कराया। इसी प्रकार, वह व्यक्ति जो हमें नित्य वाहन द्वारा घर से दफ्तर आना-जाना कराते हैं, दोनों के प्रति भी एक तरह से मौन कृतज्ञता का भाव संचार तो होता ही है। स्वीकार किया जाना चाहिए कि पूर्वजों द्वारा स्थापित मानवीय सद्गुणों के अनेक रूपों में कृतज्ञता हमारे आचरण का वह आभूषण है जिसके सौंदर्य की सुगंध से हम असीम आनंद की शीतलता में अवगाहन करते हैं। किसी के सहयोग के बदले उसे धन्यवाद अर्पण में जीवन को एक नूतन दिशा में यात्रा का सौभाग्य प्राप्त होता है। यह गुण बिना किसी क्षति के हमारी मनोदशा को तृप्त होने का अवसर प्रदान करता है।