इसलिए भी कि इस माध्यम में कई कला-माध्यम जुड़े होते हैं। इसमें अभिनय ही नहीं, गीत-संगीत, काव्य, मंच सज्जा, प्रकाश-व्यवस्था आदि को एक साथ, एक जगह प्रस्तुत करने का मौका उपलब्ध होता है। हमारे यहां नाटक की अनेक शास्त्रीय और लोक परपराएं रही हैं, मगर व्यावसायिकता के दबाव में उनमें से कई विधाएं या तो लुप्त हो चुकी हैं या फिर ऐसे कलावंतों की बाट जोह रही हैं, जो आगे बढ़ कर उनका उद्धार कर सकें। नौटंकी कला भी लगभग विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी थी, मगर उसे बचाने के लिए कछ समर्पित लोग आगे आते रहे, जिससे न सिर्फ उसकी रक्षा हो सकी, बल्कि अब वह मुख्यधारा नाटकों को भी बल प्रदान कर रही है।नौटंकी कला के बारे में बता रहे हैं ज्योतिष जोशी।

संस्कृत नाट्य के पराभव के बाद देश भर में पारंपरिक नाट्यों ने उस गौरव को बचाने का यत्न किया, जिसकी जड़ें हजारों वर्षों से गहरे जमी थीं। ग्यारहवीं शताब्दी के अंत से लेकर बारहवीं शताब्दी तक संस्कृत नाट्य प्रवाह के क्षीण होने का मूल कारण राज्याश्रय का समाप्त होना था। संरक्षण के अभाव, बदली हुई रुचियों और निरंतर अस्थिर हो रहे देश में इस परंपरा का चलते रहना असंभव-सा हो गया।

इसके बाद पारंपरिक नाट्यों ने इस क्षीण होती परंपरा को नया जीवन दिया था। इन पारंपरिक नाट्यों में अंकिया नाट, माच, जात्रा, खयाल, रम्मत, भवई, तमाशा, डोडाट्टा, कुचिपुड़ी, भागवत मेल, कुड्डियाटम, यक्षगान, करियाला, नौटंकी या स्वांग तथा भांड़जश्न आदि आते हैं, जो क्रमश: असम, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल, मैसूर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब तथा कश्मीर का प्रतिनिधित्व करते हैं। भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में जिस पंचम वेद की धारणा है, उसे सिद्ध करने का कार्य इन्हीं नाट्य शैलियों ने किया था।

यह भी ध्यान में रखने की बात है कि नाट्यशास्त्र के लिखे जाने के समय अधिकांश पारंपरिक शैलियां मौजूद थीं, क्योंकि बिना समृद्ध नाट्य परंपरा और नाट्य की व्यावहारिक बाधाओं के, इस तरह के ग्रंथ का लिखा जाना संभव नहीं था। नाट्यशास्त्र इस तथ्य का तत्वत: प्रमाण देता है कि उसकी रचना सतत चिंतन का परिणाम है।

यह अकारण नहीं है कि नाट्यशास्त्र में ‘लोकधर्मी’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग है, जिसे लोकाश्रित नाट्य के रूप में देखते हुए भरत मुनि ने लिखा है ‘स्वभाव भावोपगतं शुद्वन्त्व विकृतं तथा। लोकवार्ता क्रियोपेतमंगलीला विवर्जिततं।स्वभावाभिनयोपेतं नाना स्त्री पुरुषा श्रयम। यदीदृशं भवनाट्यम लोकधर्मी तु सा स्मृता।’ यानी अगर कोई रूपक लोक स्वभाव के अनुसार भाव प्रदर्शित करने वाला सादगी तथा बिना तामझाम के हो, यानी सहजता से प्रदर्शित होने वाला हो, जो अपनी विषय-वस्तु में सामान्य प्रजाजन के आचार तथा क्रियाएं प्रदर्शित करने वाला तथा आंगिक प्रदर्शन, जो लीला वर्तना आदि के अभिनय से रहित सादे और सहज भाव से प्रदर्शन करता हो, जिसमें विभिन्न पुरुष तथा स्त्री पात्र हों, तो उसे लोकधर्मी नाट्य प्रकार समझना चाहिए।

भरतमुनि द्वारा नाट्य को लोकधर्मी कहना इस बात का प्रमाण है कि ये नाट्य उनके समय में उपस्थित थे और उनकी व्यवस्था का कार्य भी नाट्यशास्त्र करता है। लोकधर्मी नाट्य की लोकप्रियता ही नाट्य की सफलता का प्रमाण बनी, जिसे स्पष्टत: नाट्यशास्त्र के इस श्लोक से समझा जा सकता है ‘वेदाध्यात्मोपपन्न तु शब्दच्छंद: समन्वितम।लोकसिद्धम भवेत सिद्धम नाट्यम लोक स्वभावकम।तस्मात नाट्य प्रयोगे तु प्रमाणं लोक इष्यते।’ अर्थात समस्त वेद, अध्यात्म से उत्पन्न होने पर भी नाट्य अगर लोकसिद्धि से ही संभव है, तो निश्चय ही वह लोक स्वभाव से उत्पन्न होने पर ही प्रामाणिक हो सकता है।

स्पष्ट है कि पारंपरिक नाट्य शैलियों का प्रभाव सदियों से रहा है और कालान्तर में नाना अवरोधों के कारण उनके नामों, रूपों में परिवर्तन होता गया है। दक्षिण की नाट्य शैलियों ने अपने स्वरूप को बिगड़ने न दिया, पर उत्तर की नाट्य शैलियों में नाना तरह के परिवर्तन हुए। भरत मुनि द्वारा प्रवर्तित दस प्रकार के रूपकों में निबद्ध विविध नाट्य शैलियों में ‘संगीतक’ ही वह मूल है, जिसके बारे में शुभंकर ने अपने ग्रंथ ‘संगीत दामोदर’ में स्पष्ट उल्लेख किया है-‘तालवाद्यानुगं गीतं नटीभिर्यत्र गीयते नृत्य स्यानुगतं रंगं तत संगीतक मुच्यते।’यानी जिस प्रदर्शन में ताल वाद्यों के अनुसार नटियां गाती और रंगशाला में नृत्य प्रस्तुत करती हैं, उसे संगीतक कहा जाता है। स्पष्ट है कि संगीतक में निर्दिष्ट गीत, वाद्य, नृत्य, रंगशाला और नट-नटी उसके आधार तत्व के रूप में विद्यमान होते हैं।

भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में दस रूपकों की चर्चा है-‘नाटकम सप्रकरणम भाण: प्रहसनम डिम:व्यायौग समवकारौ वीथ्यम केहामृगा इति:।’अर्थात नाटक, रूपक, अंक, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथि और केहामृग दस तरह के रूपक होते हैं। भरतमुनि ने इन रूपकों को अर्थ प्रकृतियों, अवस्थाओं और वृत्तियों में परखा है और उस समय में व्याप्त सभी नाट्य रूपों (रूपकों) को उनके विभिन्न क्षेत्रों में रख कर देखा है।

यह संकेत करने के पीछे भरतमुनि के दो लक्ष्य हैं- पहला यह कि समूचे देश में जितने तरह के रूपक और उनके प्रदर्शन के स्वरूप थे, उनका परिचय देना तथा बाद के नाट्यकर्मियों को बताना कि क्षेत्रवार किस रूपक, किस अवस्था, किस वृत्ति तथा किस प्रवृत्ति का ध्यान रखा जाना चाहिए। इस संकेत से स्पष्ट है कि नाट्यशास्त्र अपने समय की सभी नाट्य परंपराओं के प्रति सजग रहते हुए सबका सम्मान करता है और किसी को विजातीय तथा उच्छिष्ट नहीं मानता। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि हम जिन्हें पारंपरिक के समानांतर शास्त्रीय नाट्य मानते हैं, उनका प्रादुर्भाव नाट्यशास्त्र के आने के बाद ही हुआ।

इस रूप में पारंपरिक नाट्य को समझने का प्रयास करें तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाएगा कि यह नाट्य ही वस्तुत: हमारे नाट्य अधिष्ठान के मूल हैं। सट्टक, रूपक आदि भेदों में विभाजित पारंपरिक नाट्य बाद के समय में जिस पहचान के संकट से जूझते रहे, उसमें उनका नहीं, उन लोगों का दोष है, जिन्होंने भारतीय नाट्य परंपरा के उत्स को देखने की आवश्यकता नहीं समझी।

सट्टक, रूपक, भांड़ आदि में विभाजित बाद के दिनों में ‘संगीतक’ के रूप में अभिहित और स्वांग, सांग और नौटंकी के रूप में जानी गई उत्तर भारत की पारंपरिक नाट्य शैली नौटंकी भारत की प्राचीनतम नाट्य शैलियों में एक है। इसे ही जयशंकर प्रसाद ‘गीति नाट्य’ कह कर संबोधित करते हैं और मानते हैं कि मध्यकालीन भारत में आतंक और अस्थिरता के समय में, जब सर्व साधारण की प्राचीन रंगशालाओं को तोड़-फोड़ दिया गया, धर्मांध आक्रमणों ने जब भारतीय रंगमंच के शिल्प का विनाश कर दिया, तो देवालयों से संलग्न मंडपों में छोटे-छोटे अभिनय ही सर्व साधारण के लिए सुलभ रह गए। तब संस्कृत के भांड़ और नाटकी या नौटंकी प्राचीन गीति-नाट्य ने चलते-फिरते रंगमंच के विमानों (संभवत: नाट्य विधानों) की रक्षा की।

यह नौटंकी अपनी सदियों पुरानी परंपरा में नाना परिवर्तनों के दौर से गुजरी। मुगल काल में रंगशालाओं को नष्ट कर दिए जाने के बाद और नाट्य को प्रतिबंधित कर दिए जाने की स्थिति में इस शैली ने लोकजीवन में नाट्य को बचाए रखने के प्रयत्न के साथ शास्त्रीय परंपरा की भी रक्षा की। भगत, रहस, सांग, खयाल जैसे नामों से अभिहित की जाती रही यह शैली मंदिरों की भी शरणागत रही और बाद में पारसी रंगमंच के प्रभाव से सस्ते और भड़काऊ प्रदर्शनों के लिए भी विवश हुई, जिससे गंभीर दर्शक उससे दूर होते गए।

परंपरा सहेजने का जतन

वाजिद अली शाह, खुशीराम, नथाराम शर्मा गौड़, श्रीकृष्ण पहलवान, रामराज त्रिपाठी आदि ने एक सतत परंपरा के अंतर्गत नौटंकी को बचाए रखने और उसे विकसित करने की सफल कोशिश की। हाथरस, मथुरा, लखनऊ, कानपुर तथा प्रयागराज इसके मुख्य केंद्र रहे। इसमें प्रयागराज के रामराज त्रिपाठी की मंडली ‘श्रीराम सांगीत मंडली’ का विशेष महत्त्व है, जिसने स्वाधीनता आंदोलन के समय नौटंकी को एक प्रतिरोधी नाट्य रूप बनाकर प्रस्तुत किया। तब विभिन्न केंद्रों में नौटंकी अलग-अलग रूपों में खेली जा रही थी।

नथाराम शर्मा गौड़ ने नौटंकी को अपार लोकप्रियता दी, पर उसे समकालीनता से जोड़ने और उसमें नवाचार की जरूरत बाद में समझी गई। इसी के परिणामस्वरूप नौटंकी को विशुद्ध व्यावसायिक शैली बनाकर और मनोरंजन की चुटीली शैली में प्रस्तुत करने की होड़-सी लग गई। कहना चाहिए कि सही मायनों में रामराज त्रिपाठी ने ‘श्रीराम सांगीत मंडली’ के माध्यम से इसे समयानुकूल रूप देने की भरसक चेष्टा की।

लेकिन उनके गुजरने के बाद यह प्रक्रिया लंबे समय तक अवरुद्ध रही। नौटंकी के पुराने केंद्रों में हास्य, सस्ता मनोरंजन और भड़काऊ प्रदर्शन के रूप में नौटंकी जारी रही, जिसके कारण भद्र जनों ने उससे दूरी बनाई। तब यह माना जाने लगा था कि यह शैली अब अपनी प्रतिष्ठा के साथ-साथ प्रासंगिकता भी खो चुकी है।

नौटंकी की इस बदहाली को लक्ष्य कर कल्याण चंद्र और रामराज त्रिपाठी द्वारा प्रवर्तित सामयिक नौटंकी को विकसित करने और भविष्य की नौटंकी को संवारने के लिए आगे आए प्रयागराज के ही अतुल यदुवंशी का विशेष महत्त्व है। गौर करें तो पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में नौटंकी की दशा-दिशा में बहुत अंतर आया है। उन्नीसवीं सदी में वह जैसे अपने नए रूप के साथ खड़ी हुई थी, ठीक उसी तरह बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में उसे नई हवा मिली।

इससे उस पर बीते दशकों में लगे कलंकों की छाया से भी मुक्ति मिलने की शुरुआत हुई। एक तरफ जहां नौटंकी के समाप्त होने की घोषणाएं हो रही थीं और उसे बहिष्कृत मानकर उसे भूल जाने की मानसिकता काम कर रही थी, ठीक उसी समय उसे नया स्वरूप देने का काम भी चल रहा था। तब प्रश्न नौटंकी के भविष्य का न था, न उस नौटंकी को बचाने की चिंता थी, जो कई दशकों से चली आ रही थी और जन समाज की रुचियों में बसी हुई थी। अब इसकी आवश्यकता थी कि भविष्य की नौटंकी तैयार हो सके जो अपने पारंपरिक शास्त्रीय विधानों की रक्षा करते हुए समकालीन भी हो सके और भविष्य की सभी आगत चुनौतियों का सामना कर सके। अतुल यदुवंशी ने प्रयागराज में ‘स्वर्ग रंगमंडल’ की स्थापना करके इसे संभव किया।