पहले आसपास मित्र समूह के लोग खुल कर अपने विचारों को एक दूसरे के सम्मुख रखते थे और दूसरा पक्ष भी ध्यान से विचारों को सुनता था और जो उचित तर्क होता था, देकर कर अपने विचार को रखता था और परस्पर प्रेम भाव से साथ रहते थे।

लोग किसी विषय या समस्या पर खुलकर अपने तर्क और विचार प्रकट करते थे, फिर भी लोग समभाव से रहते एक दूसरे का मदद करते थे। वैश्विक स्तर के मुद्दों पर भी चर्चा होती थी। गांवों में सामूहिक रूप से बगीचे लगाना, खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों का निर्माण करना, शादी समारोह में मदद आदि सामान्य बातें रही हैं।

लेकिन आज ऐसा लगता है कि किसी को अपने पड़ोसी, आसपास के लोगों से कोई मतलब ही नहीं है। तकनीकी उभार के दौर में हम मानवता को भूलते जा रहे हैं। आज कल थोड़ी-सी बात को लेकर पड़ोसी और आसपास के लोगों में मारपीट हो जाती है और कई बार हत्या तक हो जाती है। आए दिन ऐसी खबरें मुहल्ले में सुनाई दे जाती हैं। आज लोग तभी तक मित्र रहते हैं, जब तक उनका कोई स्वार्थ छिपा होता है। स्वार्थ के पूरा हो जाने के बाद वे ऐसे भूल जाते हैं, जैसे कभी मिले ही नहीं थे।

मामूली बातों में एक दूसरे को ‘हैसियत’ दिखाने की बात करने लगते हैं और मित्रता को खत्म कर लेते हैं। जबकि पहले ऐसा नहीं था। लोग मित्रता में जान तक दे देते थे। झगड़ा होता भी था तो एक-दो दिन बाद एक दूसरे के साथ हो जाते थे। आज लोग एक दूसरे की बातों को सुनने को तैयार नहीं हैं। सब अपने को श्रेष्ठ समझते हैं। कोई तर्क करने के लिए तैयार ही नहीं होता। ऐसे में समूह बिखर जाता है, जिस उद्देश्य के लिए बना था, उसे बिना पूरा किए ही।

लोगों के सिर्फ विचारों में अपनापन दिखता है। किसी को वैश्विक चुनौतियों से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग उन चुनौतियों को दूर करने के लिए प्रयास भी करना चाहते हैं तो बाकी लोग उनकी मदद तक नहीं करना चाहते। वे मान लेते हैं कि इसके पीछे इसका स्वार्थ छिपा होगा। वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए लोगों को सिर्फ अपने ही नहीं, वैश्विक स्तर पर लोगों की भलाई को देखना चाहिए और परस्पर प्रेम भाव से रहना चाहिए खुल के अपने विचारों को एक दूसरे के सामने रखना चाहिए और दूसरों की बातों को सुनना भी चाहिए। उसके बाद साथ बैठकर तर्क के माध्यम से समस्या का हल निकालना चाहिए।
मनीष कश्यप, इलाहाबाद विवि।

मशीन से सामना

अमेरिका में हालीवुड, लास एंजिल्स के मनोरंजन उद्योग में कुछ दिन पहले बंद का आह्वान किया गया, क्योंकि एक लाख साठ हजार कलाकारों ने हड़ताल पर जाने का फैसला कर लिया। इसके अलावा पिछले मई महीने से पटकथा लेखकों का भी हड़ताल जारी है। इस तरह से समूचे टीवी और मनोरंजन उद्योग में एक प्रकार से ताले लग गए हैं, क्योंकि अकेले निर्माता और निर्देशकों से तो फिल्म, सीरियल या सीरीज बनेगा नहीं।

ये कलाकार दुनिया भर के सिने प्रेमियों के लिए आदर्श समान हैं। दर्शक उन्हें दिलो-जान से चाहते हैं। कहने को तो यह हड़ताल मेहनताना समेत अन्य सुविधाओं को बढ़वाने के लिए किया गया है, मगर इस हड़ताल के पीछे असल मुद्दा है कृत्रिम मेधा यानी ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ का। कहा जा रहा है एआइ के आने के बाद निर्माताओं में कलाकारों के प्रति सहानुभूति कम होता जा रही है।

निर्माताओं और स्टूडियो मालिकों को लग रहा है कि अब कलाकारों की जरूरत नहीं के बराबर रह गई है। सारा काम एआइ द्वारा सृजित कलाकार द्वारा किया जाने लगा है। ध्वन्यांकन या डबिंग से लेकर संपादन तक का काम अब एआइ द्वारा किया जा रहा है, जिसमें रचनात्मक प्रक्रिया में ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ का उपयोग का लगातार बढ़ते जाने से मनोरंजन उद्योग में इंसानों की जरूरत बहुत कम होती जा रही है। इसलिए इस हड़ताल को एआइ और इंसान के बीच का टकराव भी माना जा सकता है।
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर।

बिजली की दर

इन दिनों बिजली को चुनाव जीतने का एक हथियार बना दिया गया है। लेकिन इसका जिस पैमाने पर राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है, उसमें ऐसा लगने लगा है कि अब इस मसले पर एक ठोस नीति बनाने की जरूरत हो गई है। यों भी नेशनल ग्रिड से कहां उत्पादित बिजली देश के किस कोने में उपयोग होती है, कोई नहीं जानता।

मुफ्त बिजली की घोषणाओं पर व्यावहारिक रूप से विचार किए जाने के अलावा हर राज्य में अलग बिजली दरों पर तुरंत रोक लगे। सबसिडी और अलग-अलग उपयोग के लिए अलग शुल्क बंद हो, क्योंकि अलग दर तब की बातें थीं, जब बिजली आवश्यकता से कम पैदा हो सकती थी। अब तो बिजली का उत्पादन जरूरत के मुताबिक ज्यादा हो रहा है।

इसलिए बिजली को उचित मूल्य निर्धारण के साथ उपलब्ध किए जाने का वक्त आ चुका है। कई बार मुफ्त बिजली की वजह से बिजली और पानी के बेलगाम खर्च और दुरुपयोग इस मसले पर नई नीति की जरूरत को रेखांकित करती है। इसलिए बिजली के बेजा इस्तेमाल को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए।
विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल।

उल्लेखनीय उपलब्धि

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत ने गरीबी उन्मूलन की दिशा में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है। 2005-06 से 2019-21 के बीच भारत में करीब 41.5 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गए हैं। 2005-06 में भारत में लगभग 64.5 करोड़ लोग वैश्विक बहुआयामी गरीबी में थे, जो 2015-16 में घटकर लगभग सैंतीस करोड़ और 2019-21 में 23 करोड़ हो गए।

2005-06 से 2019-21 तक महज पंद्रह साल की अवधि में भारत में चार सौ पंद्रह मिलियन लोग गरीबी से बाहर आए। भारत उन पच्चीस देशों में शामिल है, जिन्होंने पंद्रह वर्षों में वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक को आधा कर दिया है। यह देश में मानव विकास मापदंडों में एक उल्लेखनीय और पर्याप्त सुधार है।
जे शेख अजीजी, मुंबई।