भारत को कृषि प्रधान और गांवों का देश कहा गया है, जहां कृषि कर्म और मौसम के साथ साथ पर्व-त्योहार और उत्सव का अटूट बंधन विद्यमान है। ये सभी आयाम केवल मनोरंजन या आनंद प्राप्त करने के लिए नहीं हैं, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में मुख्य संदेश जीवन यात्रा को सही दिशा और गति सहित अपने बुजुर्गों द्वारा संचालित सामाजिकता के सकारात्मक भाव को सुगठित करना है।

पर्वों के प्रकल्प जहां हमारे लोक संस्कृति के विभिन्न हिस्सों को तुष्ट और पुष्ट करते रहते हैं, वहीं इसकी निरंतरता से सदैव हम ऊर्जान्वित भी रहते हैं। पर्वों का संबंध किसी न किसी सामाजिक परंपरा, धार्मिक मान्यता, पौराणिक घटना और ऋतुचक्र से जुड़ा हुआ है। मानव सभ्यता के प्रारंभ काल से ही मनुष्य ऐसे क्षणों और अवसरों का सृजन करता रहा है, जिसमें वह जीवन के दुख, कष्ट और तनाव को विस्मृत कर सामूहिक रूप से उत्साह, उल्लास और उमंग का अनुभव कर सके, जिसे हम पर्व और उत्सव से जोड़ कर देखते हैं। यही कारण है कि हम कभी पर्वों की प्रतीक्षा आतुर होकर करते थे और इसे मनाने की तैयारी में लोग आत्मीय तरंग से युक्त हुआ करते थे।

भारतीय संस्कृति विविधता से भरी हुई है जो हमारे जीवन शैली को खूबसूरती का अहसास भी कराती है। ‘पग पग बदले बोली, पग पग बदले भेष’ वाले अपने देश में पूरे वर्ष कोई न कोई पर्व, उत्सव मनाए जाने की शृंखला है। बचपन की यादें जब करवट लेती हैं, तो मन बरबस यह स्वीकार करता है कि होली, दुर्गापूजा, दीपावली की तरह रक्षाबंधन भी पूरे जोश से हम सभी मनाते थे।

हालांकि वर्तमान समय में इन पर्वों के निर्वहन में कालगत परिवर्तन का पारदर्शी प्रतिबिंब देखा जा सकता है। काल के कपाल पर पारिवारिक संबंधों में क्षरण, एकल परिवार का गठन, ग्राम्य जीवन का नगरीय पलायन और आर्थिक अभाव कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो पर्वों के मूल मर्म को प्रभावित किए हुए हैं।

आज का भारतीय समाज जिस परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, उसके प्रभाव से हमारे पर्व-त्योहार भी अछूते नहीं हैं। खाने-पीने और रहन-सहन का स्तर बदला तो इसका प्रभाव हमारे पर्वों पर भी पड़ा है। ‘शुभ दीपावली’ अब ‘हैप्पी दिवाली’ के संस्करण में प्रस्थान कर चुका है, जबकि पर्व-त्योहार में लोगों के आपस में मिलने-जुलने की प्रवृत्ति भी आत्मकेंद्रित होती गई है।

होली जैसे त्योहारों पर तो लोग सोच-समझ कर घर में कैद रहते हैं और लोगों से मिलने-जुलने से हिचकते हैं। आखिर यह नौबत क्यों आई है? बाकी त्योहारों के मौके पर भी रौनक अब घर-आंगन में कम, बाजारों की चकाचौंध में ज्यादा दिखती है। हमारे पर्वों की भावनाओं को बाजारवाद ने अच्छी तरह अपने दामन में समेट लिया है।

हालांकि इस परिदृश्य को समाज का एक वर्ग बाजारीकरण का नाम देते हुए इसकी आलोचना भी करता है, लेकिन दूसरे वर्ग के कथन में भी व्यावहारिक साक्ष्य है कि तेजी से बदलते वक्त में परंपराओं को जीवित रखने में आज बाजार अपने नूतन संस्करण का उपयोग करते हुए कई तरह से सकारात्मक भूमिका भी निभा रहा है। भले ही आज लोगों के पास समय का अभाव है, लेकिन पर्व मनाने का जज्बा आज भी लोक जीवन के भीतर गतिशील है।

यही भाव-शक्ति परदेस में नौकरी या रोजगार में लगे लाखों लोगों को हर वर्ष दशहरा, होली, ईद, दिवाली, छठ-पूजा जैसे पर्वों में घर-आंगन आने से रोक नहीं पाते। हां, यह सही है कि रक्षा बंधन जैसे पर्व पर असंख्य भाई सैकड़ों मील दूर अपरिहार्य कारणों से अपनी बहन के घर नहीं जा पाते या बहन चाह कर भी भाई के पास नहीं आ पाती।

तो इसी बाजार की सक्रियता और तीव्रता के कारण ही हर साल ऐसी तमाम बहनें घर बैठे ‘आनलाइन राखी’ की थाली मधुर व्यंजन के साथ अपने-अपने भाइयों को भेज दिया करती हैं। लेकिन इस व्यवस्था से न तो भाई-बहन के बीच आत्मीयता कम होती है और न स्नेह बंधन के धागे कमजोर हुआ करते हैं। इसे तकनीक और बाजार के सम्मिलन से पर्व-त्योहार की संवेदना को बरकरार रखने की कोशिश कहा जा सकता है। लेकिन आखिरकार आभासी दुनिया की संवेदनाएं वास्तविक अनुभूति की बराबरी नहीं कर सकती हैं। इसलिए जिन भाई बहनों को परिस्थिति जरा भी सहयोग करे, तो उन्हें मिलकर रक्षा बंधन पर्व का जरूर आनंद ग्रहण करना चाहिए।

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है और इस बदलाव के साथ अपनी विरासतीय परंपराओं का निर्वाह करने में हमें कोई गुरेज नहीं करना चाहिए। पर्वों के बदलते स्वरूप को समय के साथ संजोकर रखने के लिए विज्ञान और तकनीक का व्यवहार निश्चय ही प्रशंसनीय कहा जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में समय की मांग है कि हमारे पुरखों द्वारा स्थापित पर्वों के बहुमूल्य उद्देश्यों को मनन कर इसके माध्यम से भारतीय सामाजिक संरचना को नव दिशा, नव विधा, नव छंद, नव आनंद एवं नव उत्साह की तरंगों से सींचते रहने की मुस्कान भरनी चाहिए। शायद तभी स्वरूप बदलते और संवेदनात्मक स्तर पर कमजोर होते हमारे पर्व और त्योहारों का जीवन बच सकेगा।