प्रेम को अक्सर केवल एक कोण से ही देखा जाता है, जबकि यह बहुआयामी होता है। अगर कोई खुद को प्रेमी कहे तो उसे सिर्फ विपरीत लिंग से संबंधित ही माना जाता है। प्रेम कभी स्नेह, तो कभी वात्सल्य, कभी करुणा या फिर आत्मीयता या अपनापन और सुख के रूप में परिलक्षित होता है। कई बार प्रेम अभिव्यक्त भी नहीं होता है, क्योंकि उसके लिए कोई शब्द ही नहीं होते हैं। मानव से ऊपर उठते हैं तो पाते हैं कि प्रकृति का कण-कण प्रेम की अभिव्यक्ति है। केवल एक फूल बनाकर नहीं छोड़ा, हजारों फूल और हजारों रंग, फिर अंगूर से लेकर तरबूज तक के रंग, हर आकार के फल, हजारों पेड़, पौधे और यह सब सिर्फ देने के लिए, क्योंकि यही उनके प्रेम की अभिव्यक्ति है। हमारे पास और भी विकल्प हैं कि यह पसंद, यह नहीं, यहां सुख, यहां दुख, लेकिन प्रकृति कोई विकल्प नहीं रखती है।
कोई फूल यह नहीं कहता है कि आज नहीं, कल खिलूंगा… आज नहीं, अगले साल फलूंगा। यह प्रेम ही है। अनंत और बेशर्त प्रेम है। हमें फख्र होना चाहिए कि हम ऐसे प्रेम का अभिन्न हिस्सा हैं। इसलिए कहते भी हैं कि जो बांटता है, वह प्रेम का स्वरूप ही होता है। चांद, तारे, सूरज, जिनके बगैर जीवन संभव नहीं था, वे सुबह से लेकर शाम और फिर शाम से लेकर सुबह तक, एक तरीके से हमारी आरती ही उतारते हैं। कई सहस्र धाराएं बरसात में बहाकर हमारा अभिषेक कर देती हैं। थोड़े से अन्न के दाने हम धरती में डालते हैं और वह हमारे अन्न भंडार भर देती है। जो हवा हमें दिखाई नहीं देती है, वह अरबों-खरबों जीव-जंतुओं का जीवन चला रही है।
दुनिया में प्रेम के बगैर एक कतरा भी नहीं चल सकता है। किसी घबराए से मरीज को डाक्टर सिर्फ प्रेम से बोल दे कि तुम्हें कुछ नहीं हुआ है, थोड़ी-सी दवा खाने से ही ठीक हो जाओगे। बस! आधा रोग दूर हो जाता है। कोई दुखी है और कोई अन्य उसकी बात सिर्फ मन लगाकर सुन ले, तो सामने वाला हल्का हो जाता है।
समाज, धर्म, जाति परिवार में भी तकरार होती है और यह सब प्रेम के अभाव में ही होता है। जहां प्रेम होता है, वहां परायापन नहीं होता है और जहां परायापन नहीं है, वहां टकराव भी नहीं होगा। निस्वार्थ प्रेम के सान्निध्य को अनुभव करना महत्त्वपूर्ण है। कई बार मोह को भी प्रेम समझ लिया जाता है। धृतराष्ट्र और गांधारी का पुत्र मोह था, जिसने महाभारत रचने में अहम भूमिका अदा की। यहां पुत्र प्रेम नहीं, मोह था। मोह सापेक्ष है, जबकि प्रेम निरपेक्ष, निस्वार्थ, निश्छल। मोह और प्रेम में महीन-सा अंतर है। मोह में शर्तें जुड़ी होती हैं, बंधन जुड़ा होता है, अपेक्षाएं जुड़ी होती हैं। मोह के चलते कई बार हम अपना सर्वस्व खो देते हैं। हमें सही-गलत का भान नहीं होता है। मोह अंधा करके रखता है। प्रेम इससे पूरी तरह से उलट है। निस्वार्थ, निरपेक्ष और बेशर्त।
प्रेम को कई बार कमजोर की निशानी मान लिया जाता है। जबकि प्रेम सिर्फ साहस की निशानी है। किसी को सुन लेना, दूसरे को क्षमा कर देना किसी की गलती को स्वीकार कर लेना कोई साहसी व्यक्ति या समाज ही कर सकता है। एक बोध कथा है- एक दिन एक युवक ने युवती के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। युवती ने कहा, मेरा विवाह मेरे पिता के मुताबिक होगी। इसलिए उनसे बात करो। अगले दिन युवक ने युवती के पिता से कहा कि अगर तुम मेरी बेटी से प्रेम करते हो तो प्रेम की कीमत चुकाओ। यह सुनकर युवक बोला कि आप जो चाहे मांग लो, मैं देने के लिए तैयार हूं। पिता बोला कि प्रेम करते हो तो प्रेम की कीमत भी तुम्हें पता होनी चाहिए। यह सुनकर वह युवक अवाक् रह गया। तभी पिता हंसते हुए बोला, पहले प्रेम की कीमत पता करके आओ, फिर मेरी बेटी का हाथ मांगना।
यह सुनकर युवक घर से निकल गया और जो कोई राह में मिलता, उससे प्रेम की कीमत पूछता। भटकते-भटकते एक अजनबी के बताने पर वह एक महात्मा से मिला और बड़े जतन के बाद उसने उस महात्मा से यह प्रश्न किया कि प्रेम की कीमत क्या है। महात्मा हंसे और बोले कि जो तुम्हारी कीमत है, वही तुम्हारे प्रेम की कीमत है। युवक ने कहा कि इस शरीर के बिना मेरा अस्तित्व ही क्या है… मेरे लिए यह अमूल्य है, मैं इसे नहीं बेच सकता। तब हंसते हुए महात्मा बोले कि यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। प्रेम भी अमूल्य है। प्रेम का कोई सौदा नहीं किया जा सकता। युवक को उसका जवाब मिल चुका था। खुशी-खुशी वह युवती के घर गया और उसके पिता को प्रेम की कीमत बताई और प्रेम की कीमत चुकाने के अपने घमंड के लिए क्षमा मांगी। मगर कहा कि प्रेम में मैं खुद को चुकाने के लिए तैयार हूं। पिता को युवक के सच्चे प्रेम पर विश्वास हो गया। उसने अपनी बेटी और उस युवक की शादी करवा दी।
ऐसा कहते हैं कि ईश्वर को जानने के लिए प्रेम में डूबना अनिवार्य है। ऐसा इसलिए होना चाहिए कि प्रकृति ने हमें अत्यंत सुंदर, परिष्कृत और कोमल बनाया है। चेतना की अत्यंत कोमल अनुभूति मात्र से हम समष्टि के साथ एकाकार होने का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। प्रेम वास्तव में अनंत है और प्रेम से परिपूर्ण व्यक्ति को इसीलिए संत कहा जाता है। दुनिया कुछ भी कर ले, पर इस जगत में रहने के लिए प्रेम पर ही आना पड़ेगा। सारी समस्याओं का हल प्रेम में ही निहित है।