ठेठ गांवों में हिंदी की ऐसी बेदरकारी और अंग्रेजी की इस तरह की सर्व-स्वीकृति के पीछे अंग्रेज हुकूमत के गहरे असरों, विज्ञान-तकनीक के आविष्कारों, जीने की किंचित सुविधाओं आदि सारे कारणों के साथ ही एक बड़ा- बल्कि सबसे बड़ा- कारक तत्व है- अंग्रेजी की सनक (क्रेज)। यह आधुनिक होने का, प्रगत होने का प्रतीक बन गया है।

अंग्रेजी का फैशन चल गया है। यह इज्जत का प्रश्न नहीं, ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है। बीमार से यह पूछना- ‘कोई दवा ली’, के मुकाबले ‘कोई मेडिसिन ली’ पूछने में ज्यादा बड़प्पन लगने लगा है। तबियत अब सुधरती नहीं, ‘इम्प्रूव’ होती है। लोग कपड़े पहनते नहीं, ‘ड्रेस-अप’ होते हैं। कपड़े बदलते नही, ‘ड्रेस चेंज’ करते हैं। बाल बनवाते नहीं, ‘हेयर कट’ कराते हैं।

हद तो यह है कि बाल काटने वाले ‘जेंट्स ब्यूटी पार्लर’ होकर ही गौरवान्वित होते हैं। कभी ‘केश कर्तनालय’ दिखा था, पर कुछ दिनों में शरमा के ‘मेन्स पार्लर’ हो गया। अच्छा खासा मिष्ठान्न भंडार अब ‘कन्फेक्शनरी’ हो गया, भले किसी की समझ में न आए।

कितना गिनाएं! हिंदी का प्रयोग प्रगतिशीलता पर लगा बट्टा बन गया है। गांव नाम के हैं। सारे बात-व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, खेती-बारी आदि अंग्रेजीमय हो गए हैं। बस, वाक्यों में जो क्रियाएं हैं, वही हिंदी की रह गई हैं। सारी शब्द-संपदा जीवन से बहिष्कृत हो गई है। अंग्रेजी रानी और हिंदी चेरी हो चुकी है।