हरीशचंद्र पांडे

इस जीवन को दार्शनिक सुकरात द्वारा एक अद्भुत जीवन के रूप में परिभाषित करते हुए इसका नमन किया गया है। पर इसलिए नहीं कि यह जीवन चमत्कारी है। इसलिए कि जीवन का हर पल अपने आप में बड़ा अद्भुत और अलौकिक है। कभी किसी पगडंडी पर हौले-हौले से चलते हुए आसमान की तरफ देखें तो लगता है कि कानों में पवन जो सुर घोल रही है, वह इसलिए कि हवा को संगीत सिखाने वाला कोई संगीतकार कहीं में बैठा हुआ है।

कभी किसी नदी के किनारे पर सुकून से कलकल को सुनें तो ऐसा महसूस होता है कि नदी गुनगुना रही है और इस तरह बादल ने खुद उसको सजाना स्वीकार किया है। अरबों का भवन कभी नेस्तनाबूद हो सकता है, पर काले, भूरे घनन-घनन करते मेघ हमेशा रहेंगे। मगर यह भी विडंबना है कि इस अनमोल जीवन को बहुत लोगों ने सोशल मीडिया पर सार्वजनिक की जाने वाली हल्की टिप्पणियों की तरह समझ लिया है।

सनसनी, बेचैनी, खलबली ही जीवन-रेखा बन रही है, मगर कोई हाथ पर ताली देने वाला नहीं है। सब बात करते हैं, फिर भी कोई किसी से जुड़ा हुआ नहीं है। एकदम नौटंकी से सराबोर आभासी। कुछ समय पहले किसी समाज मनोवैज्ञानिक ने एक खुली चर्चा में राय दी थी कि सोशल मीडिया ऐसी गतिविधियों का मंच है, जिस पर हमें कम से कम शामिल होना चाहिए, मगर इसी में हम अपने आप को खपा रहे हैं।

यहां हम जो नहीं हैं, वह होने का ढोंग करते हैं। इस ढोंग के संदर्भ में ही मनोवैज्ञानिक कार्ल रोजर्स ने लिखा था कि भले ही मानव की औसत आयु बढ़ रही है, पर छल-कपट और ढोंग के कारण वह हर पल मर रहा है। रोजर्स की लोकप्रिय किताब ‘आन बिकमिंग अ पर्सन’ आडंबरों से परे कुदरती होना सिखाती है। रूसी कथाकार चेखव ने एक दिन के दिखावटी जीवन को भी दुख, मूर्खता, दुर्भाग्य और बुराई कहा है।

इस जगत की हर चीज कुदरत का वह नायाब सृजन है, जिस पर मंत्रमुग्ध हुए बगैर रहा नहीं जा सकता है। कहीं पढ़ा था कि गारे और सीमेंट के स्टूडियो में काम करने के बाद हरी घास पर लोटना और झरने के समीप ध्यान में डूब जाना… इससे बेहतर मनोरंजन दूसरा कोई नहीं है। कुदरत ने अपनी हर संपदा को हम सबके उपयोग और कल्याण के लिए ही परोसा हुआ है।

नदी, झील, वन, उपवन, पहाड़, चोटियां, सागर, महाद्वीप, रेत के टीले हम सबको सहलाने और बहलाने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कुदरत हम सबको करुणा, ममता, त्याग, अनुशासन सिखाने के लिए एक जीता-जागता संकेत है। कुछ साल पहले बनी एक अमेरिकी बहुचर्चित फिल्म ‘जंगल’ में कुछ सच्चे अनुभव दर्ज किए गए हैं। उसमें पल-पल कुदरत यही कहती है कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं।

जब जंगल में विचरने वालों का सामान ही नहीं, शरीर भी लुंजपुंज हो जाता है, तब भी कुदरत कुछ न कुछ सहारा मुहैया करा ही देती है। यहां तक कि एक युवक कुछ दिन घनघोर जंगल में अकेला पड़ जाता है तो एक मित्र के रूप में एक आदिवासी युवती उसे मिल जाती है। दोनों ही एक दूसरे की भाषा नहीं समझते, मगर संवाद चलता रहता है। यह कुदरत का ही कमाल था कि उस युवती रूपी दोस्त के कारण वह युवक अपना मानसिक संतुलन बनाए रख पाता है।

संदेश यह है कि चिंता करनी चाहिए, भले ही चिंता के साथ उम्मीद को सहेजकर रखा जाए। अपने आसपास सबको खूब प्यार करना चाहिए, सबके लिए मेहरबान होना चाहिए, ताकि दयालुता हम सबमें से छलक-छलक कर गिरती रहे। तभी पल-पल को जीया जा सकता है। इन सबसे एकदम उलट यह अजीबोगरीब मशीनी जीवन तो हमको उम्मीद नहीं देता, बल्कि ताबड़तोड़ स्पर्धा करके हांफ-हांफ कर दिन काटना सिखाता है।

यानी कुदरत के हर जीव हमारे दोस्त हैं। अप्राकृतिक जीवन शैली को त्याग कर हमें कुदरत की महक को आत्मसात करना चाहिए। कुदरत में बहुलता है, पर जटिलता कतई नहीं है। आज संसार के अनगिनत देश जंगल सफारी का आयोजन करने लगे हैं। जंगल महोत्सव मनाए जा रहे हैं। कबीर कहते हैं कि दो समय की रोटी पकाने के इंतजाम के सिवा भौतिक संसाधनों की तरफ लालच और संग्रह के नजरिये से देखना भी अनैतिक है।

दार्शनिक कन्फ्यूशियस ने कहा था कि देश के नागरिक कैसे हैं, कोई यह जानना चाहता हो तो उनका कुदरत के प्रति लगाव और जुड़ाव देखे। समझ में आ जाएगा कि उनकी मानसिकता कैसी है। कहते हैं कि जिसको कुदरत से प्यार होता है, उसकी सोच ऊंची होती है… भाषा भी सुसंस्कृत होती है। आज सारे विश्व में जो लोग महत्त्वाकांक्षा, लालच, कुढ़न आदि से ऊपर उठकर जीना चाहते हैं, वे सभी निश्चित रूप से चांद, तारे, बादल, हरी घास और झरने के संगीत में डूब जाना चाहेंगे। सचमुच कुदरत ने तो यह सारी धरती ही हमको उपहार के रूप में दे दी है।