चैतन्य नागर
जीवन सतत भी है और अस्थायी भी। ऐसा ही है यह। यह लगातार बदल रहा होता है, हमारे सामाजिक जीवन से लेकर व्यक्तिगत जीवन में दैनिक अनुभव कभी एक जैसे नहीं होते हैं। एक दिन सुबह काम पर जाते ही यह मालूम पड़ता है कि हमारा पसंदीदा सहकर्मी या बास अब कंपनी छोड़ चुका है।
कोई मित्र गंभीर रूप से बीमार पड़ गया है या फिर इस संसार को छोड़ कर ही जा चुका है। हो सकता है कि कभी कोई मामूली पर बहुत परेशान करने वाली घटना ही घट जाए। मसलन, आप काम पर जाने की तैयारी कर रहे हों और आपकी मोटर साइकिल या कार खराब हो जाए। इंटरव्यू हो और घर में बिजली-पानी गायब मिले, हम तैयार ही न हो पाएं।
देह की हर कोशिका, प्रत्येक ऊतक परिवर्तनशील है। त्वचा शरीर का सबसे बड़ा अंग है और सात साल में समूची बदल जाती है। बदलाव अकेली स्थिति है जो चिरस्थायी है। अप्रत्याशित घटनाएं चिंतित तभी करती हैं जब उनके साथ असुविधा, तकलीफ या दुख का आगमन होता है। अप्रत्याशित सुख कभी कभी ही मिलता है, पर वह लगता बहुत प्रिय है। जैसे अचानक बड़ी लाटरी निकल आए या ऐसी नौकरी मिल जाए, जिसकी कोई उम्मीद ही नहीं थी।
हमारे जीवन में पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार, पहले से सोचे गए तरीकों के हिसाब से शायद ही कुछ होता हो। बस ऐसे ही हो जाती हैं दुर्घटनाएं, ऐसे ही फैल जाती हैं बीमारियां, ऐसे ही मित्र बीमार पड़ जाते हैं, बस ऐसे ही पेड़ गिर जाते हैं। ऐसे ही हम बच निकलते हैं। जीवन का दस्तूर ही ऐसा है। अमेरिकी लेखक पाल आस्टर का कहना है कि ‘दुनिया बहुत ही अप्रत्याशित है। चीजें अप्रत्याशित रूप से, अचानक घट जाती हैं। हम ऐसा महसूस करना चाहते हैं कि हम अपने अस्तित्व को नियंत्रित कर रहे हैं। कुछ अर्थों में हम इसे नियंत्रित करते भी हैं, और कुछ अर्थों में नहीं भी करते। हम तो संयोग और संभावनाओं द्वारा नियंत्रित होते हैं।’
पहले से कुछ तय करना मुश्किल है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम जीवन बीमा न कराएं, अपने स्वास्थ्य का ख्याल ही न रखें और अपने बच्चों के भविष्य के लिए कोई इंतजाम न करें। पर यह जरूरी है कि एक लकीर खींच दी जाए, उन बातों, जो हमारे वश में हैं, और उनके बीच जिन पर पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं। जीवन में उन कारकों पर नियंत्रण की कोशिश जो कहीं से भी हमारे वश में नहीं, बहुत ज्यादा आंतरिक कलह और दुख को जन्म देती है। इसे समझ कर, संभल कर सही फैसले करना हमें कई परेशानियों से बचा सकता है।
अक्सर जीवन में एक ही बात सही हो, ऐसा नहीं होता। कभी-कभी दो बातें एक-दूसरे की विरोधाभासी और विपरीत होते हुए भी सच होती हैं। घटनाओं के अप्रत्याशित होने के साथ भी ऐसा ही कुछ है। कभी-कभी घटनाएं अचानक होती प्रतीत होती हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं होता। किसी अंतिम घटना तक पहुंचने वाली प्रक्रिया इतनी धीमी और बारीक होती है कि दिखाई नहीं देती। स्थूल दृष्टि उसे पकड़ नहीं पाती।
अप्रत्याशित को लेकर चिंतित और दुखी रहने की समस्या कुदरत में बस हमारे साथ है। जो जैसा है उसे हम स्वीकार नहीं कर पाते। हम हमेशा घटनाओं, लोगों, वस्तुओं को अपने हिसाब से बदलना चाहते हैं। हमारे दुर्दांत दुख और हर्ष के बीच का फर्क वास्तव में प्रतिरोध और स्वीकार के बीच का ही फर्क है। प्रतिरोध ही दुख है। इसलिए समूचे अस्तित्व में सिर्फ हमारे भीतर कलह ज्यादा है। हम अलग भी हैं और अजीब भी। हम ऐसे ही हैं। हम कब तक ऐसे ही रहेंगे, कोई नहीं जानता।
कुछ रास्ते हैं, जिन्हें अपना कर आकस्मिक घटनाओं के कारण उपजे दुख को थोड़ा कम किया जा सकता है। यह मान लिया जाना चाहिए कि जीवन अप्रत्याशित घटनाओं से भरा हुआ है। इनके लिए मन को तैयार किया जाना चाहिए। चीजें मुकम्मल हो सकती हैं, यह धारणा छोड़ देनी चाहिए। ऐसा कुछ होता ही नहीं जो पूर्ण हो, मुकम्मल हो। जो इस धारणा को पाल लेते हैं, उन्हें कुछ भी संतुष्ट नहीं करता।
उनका जीवन अप्रत्याशिताताओं से कुछ अधिक ही भरा होता है। हमें दूसरे व्यक्तियों, परिस्थितियों और किस्मत को दोष देना भी छोड़ देना चाहिए। अक्सर घटनाएं किसी के कारण नहीं होतीं। वे बस होती हैं। मन को प्रतिक्रियात्मक बनने से रोकना चाहिए। मन हर बात पर प्रतिक्रिया करता है और किसी न किसी तरह की हरकत उसमें जरूर होती है। सकारात्मक भी और नकारात्मक भी।
बेहतर होगा कि हम तुरंत प्रतिक्रिया न करें। जब भी कुछ देखें, कोई अनुभव करें, तो थोडा ठहर जाएं। प्रतिक्रिया और प्रत्युत्तर में यही फर्क होता है और यह शायद जीवन में बड़ा बदलाव ला सकता है। मन का एक कोना अप्रत्याशित से आशंकित रहता है, पर उसे इसकी प्रतीक्षा में भी लगातार लगे रहना चाहिए।