शोभा जैन
इन कुछ महीनों को त्योहारों के मौसम के रूप में जाना जाता है, मगर वक्त के साथ इनके स्वरूप में बदलाव देखा जा सकता है। त्योहारों का असर समाज पर कितना पड़ा है, यह तो जगजाहिर रहा है, लेकिन दुनिया जिस कदर तेजी से बदल रही है, उसका असर त्योहारों पर पड़ता साफ दिख रहा है। दरअसल, त्योहार अब तारीखों से याद रखे जाते हैं और समय के बदलाव के साथ उनकी सामाजिक महक और मिठास भी बदल रही है तो यह स्वाभाविक प्रश्न होगा कि रोशनी के आयाम क्यों नहीं बदले?
बाजार में इतनी रोशनी और चकाचौंध है, लेकिन इसके समांतर अंधेरा है
हर चीज के कारोबार की व्यवस्था है। इसमें इच्छाओं की, भावनाओं की, चारित्रिक मूल्यों की खरीद-फरोख्त होने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। बाजार में इतनी रोशनी और चकाचौंध है, लेकिन इसके समांतर अंधेरा इस कदर घिर रहा है कि इसे चीरना संभव नहीं हो पा रहा। यह सवाल सामने खड़ा हो जाता है कि चारों ओर रोशनी फैलाने के लिए दीया तैयार करने वाले कुम्हार के जीवन में उजाला अब तक क्यों नहीं पहुंच सका?
गोबर और पीली मिट्टी में गेरू मिला आंगन को लीपने की प्रथा भूल गए
दरअसल, चिराग के बाजारीकरण में रोशनी का व्यावसायीकरण अब चलन में है। हमें इस उत्सवप्रियता के मोल का पता तभी चलता है, जब विध्वंस की कीमत चुकानी पड़ती है। एक दौर था, जब त्योहारों के मौके पर घर की महिलाओं द्वारा सबसे सुंदर रंग-रोगन और सृजन किया जाता था, तो उसकी महक और चमक, दोनों घर के वातावरण को खुशनुमा बना देती थी। गोबर और पीली मिट्टी में गेरू मिलाकर आंगन को गहरी भावनाओं के साथ लीपा जाता था। लीपने के समय ही अपनी कल्पना का हल्का-सा स्पर्श देकर छोटे-छोटे कंगूरे बनाए जाते थे।
घरों में कंगूरे के हर घुमाव में भावनाएं बिखरी होती थीं
कंगूरे के हर घुमाव में भावनाएं बिखरी होती थीं। हालांकि आंगन से होकर घर में प्रवेश करने वाला हर शख्स खुद भी लीपने की मेहनत और सौंदर्य का सम्मान करने का खयाल रखता था, फिर भी अगर कोई थोड़ी लापरवाही बरतता था तो आंगन सूखने की प्रतीक्षा में हर आने-जाने वाले को टोका जाता था और उसके बाद बड़ा-सा मांडना यानी चौक ‘पूरा’ जाता था।
अब इनकी जगह रेडीमेड या तैयार मांडने ने ले ली है, जिसे बाजार से खरीदकर केवल आंगन में चिपकाना भर पड़ता है। इस तरह, समय के साथ यह खूबसूरत कला शहर में सिमटती जा रही है। हालांकि बड़े शहरों, महानगरों में आंगन ही नसीब नहीं होते। फ्लैट की चारदीवारी में अपना जीवन गुजर-बसर करते लोग घर से सुबह छह बजे से रात नौ बजे तक बस ट्रेन के सफर में आधा दिन जीते हैं, जीवन की आपाधापी में बंधे हुए-से।
इस तरह के लोग चाकलेट के बंद डिब्बों की तरह अपने को बाहर की सुंदर सजावट में कैद कर अपने तक सीमित रह कर त्योहार मनाते हैं और सोशल मीडिया पर सामाजिक होने का दावा करते हैं। जबकि उनकी उन तस्वीरों में वे सामाजिकता से कोसों दूर होते हैं। यहां तक कि अगर उनसे उनके पड़ोसियों के बारे में पूछ लिया जाए तो शायद वे ठीक से कुछ न बता पाएं। हां, यह संभव है कि वही पड़ोसी किसी सोशल मीडिया के मंच पर उनके दोस्त हों। सवाल है कि इस तरह की आभासी दोस्ती का हासिल क्या, जब जमीन पर कोई है ही नहीं!
बाजार के जाने-माने ब्रांड अपने लक्षित दर्शकों से जुड़ने के लिए लालायित हैं। पहले हमारे लिए छोटी-मोटी चिर-परिचित स्थानीय दुकानें महज बाजार नहीं थीं, वे पीढ़ियों को संबंधों से भी जोड़ती थीं। मगर अब कंपनियां सांस्कृतिक उत्सवों को एक ब्रांड संपत्ति के रूप में लोगों के सामने पेश कर रही हैं। इस तरह का प्रचार-प्रसार लक्षित दर्शकों के आधार पर आनलाइन या आफलाइन हो सकते हैं। हमारे यहां लोग अब कपड़ों से लेकर मसालों तक बिना ब्रांड के बात नहीं करते, बल्कि ब्रांड हमारा ‘स्टेटस सिंबल’ या हैसियत का प्रतीक भी बन जाते हैं।
उपभोक्ता व्यवहार और व्यवसायों ने बाजार को भी एक संस्था बना दिया है- ब्रांडेड और स्थानीय के वर्ग विभाजन के साथ। ब्रांड के प्रचार-प्रसार के लिए अब विकल्प नहीं खोजना पड़ता, बस जरूरत जागरूकता, जुड़ाव और वफादारी की होती है, जो छोटी या स्थानीय दुकानों में किसी ठप्पे के बिना भी वापसी की शर्त पर बहुत कम दामों पर उपलब्ध है। टेलीविजन पर खूब सुंदर सजे-धजे संवादों से दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करते विज्ञापन हमें इस बात के लिए मना ही लेते हैं कि त्योहारों पर घर की बनी मिठाइयों से बेहतर विकल्प मौजूद हैं।
आखिर हमारी जवाबदेही कहां है- अंधेरे को खत्म करने की या रोशनी बढ़ाने की? समृद्धि के वैभव और संस्कृति स्थापित आभामंडल के बीच तालमेल बिगड़ रहा है। संस्कृति में उभर रही विकृतियों को नजरअंदाज किया जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि त्योहारों में आदान-प्रदान महज मिठाई या उपहारों का न हो, इस बात का भी हो कि प्रभावी कानून व्यवस्था और विवेकशील जागरूक नागरिकता की मजबूत कड़ी विस्तार ले। हमें रफ्तार की होड़ को विकास कहने से बचना होगा, क्योंकि जीवन आर्थिक विकास से कहीं अधिक अर्थपूर्ण है।