हम सब अपने आसपास कई तरह के विचार या लोगों की मान्यताएं अक्सर ही सुनते रहते हैं। रूप-रंग व्यवहार भोजन और पहनावे, रिश्तों आदि को लेकर। लेकिन उसके पीछे के कारण क्या हैं, इस पर हम आमतौर पर नहीं सोचते हैं। दरअसल, हम जिन पारिवारिक मूल्यों और विचारों में पले-बढ़े होते हैं, वही हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बनते जाते हैं। वे हमारे अवचेतन में पूरी तरह से रच बस जाते हैं। इस तरह से हर व्यक्ति अपने साथ एक सामाजिक परंपरा लेकर चल रहा होता है। फिर अगर उससे अलग हमारे आसपास या समाज में जो भी बातें या व्यवहार दिखाई देते हैं, तो हमें अलग या गलत नजर आता है। जब हम कहते हैं कि हर इंसान भिन्न हैं, तो इसका मतलब इसमें उसका रंग-रूप, उसके खाने-पीने के तौर-तरीके, सामाजिक रीति-रिवाज, शारीरिक क्षमता-अक्षमता आदि शामिल है।
ऐसे में फिर जब कोई हमें हमसे हटकर या भिन्न विचारों वाला दिखता है, तो हमें वह क्यों अजीब लगता है। कई बार समाज में ऐसे लोगों के लिए कई तरह के अपमानजनक शब्द उपयोग किए जाते हैं। यह कितना ठीक है? इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि हम सभी एक पूर्व धारणा के मुताबिक सामाजिक मानदंडों के अनुरूप चीजों को देखने के आदी हैं। इसके बाद जो भी इसमें सटीक नहीं बैठता है, उसमें हमें दिक्कत लगने लगती है। चाहे वह रंग-रूप के देखने का तरीका हो या रिश्तों का या कुछ अन्य। हमें पता ही नहीं होता हैं कि हम जाने-अनजाने प्रतिदिन इस तरह से कितने लोगों को दुख देते हैं। वे हमारे कारण आहत होते रहते हैं और हम इस बात को समझ नहीं पाते है। हालांकि क्यों जरूरी है सबका एक जैसा होना? अगर सब एक जैसा सोचने-समझने लगेंगे, तो फिर वे इंसान नहीं होकर मशीन बन जाएंगे। तुलना के इस चक्कर में कितने लोग अपनी जीवनलीला ही समाप्त कर लेते हैं।
एक समाज के तौर पर हम हो रहे हैं फेल
दरअसल, एक समाज के तौर पर हम फेल हो रहे होते हैं। एक अच्छा और संवेदनशील समाज वह होगा, जिसमें हर व्यक्ति अपनी पसंद और चुनौती के साथ बिना किसी दबाव में रह सके। मगर ऐसा लगता है कि हमने बस यह रट लिया है कि ‘अनेकता में एकता, भारत की विशेषता’ पर इसके असल मायने हम समझ नहीं पाए। अगर समझ पाते तो आसपास लोगों के हारने की घटनाएं आए दिन देखने को नहीं मिलतीं। इसके उलट हालत तो यह है कि समाज में ‘विशेष आवश्यकता’ वाले बच्चों को लेकर हमारे समाज में विचित्र विचार काम करते रहते हैं। एक मानवीय समाज में उसे तोड़ने का एक प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसे बच्चों पर तरस खाने के बजाय उनको भी समान अवसर दिया जाए, तो स्थिति बदल सकती है।
सकारात्मकता के रथ पर सवार, आज की समय में बदलाव का दृढ़ संकल्प रखने के साथ शुरूआत की जरूरत
कहने को सभी धार्मिक-सामाजिक समूहों के बीच यह कहा जाता है कि प्रेम एक बहुत खूबसूरत चीज है… यह इंसान को इंसान बनाए रखती है… यह मनुष्य का एक नैसर्गिक गुण है। मगर समाज को जब नियम बनाने का अधिकार मिला, तो उसने प्रेम को भी अपनी प्रकृति में नहीं छोड़ा। यह एक बड़ी विडंबना है कि अगर कोई अकेली रहने वाली और ज्यादा उम्र की महिला किसी से प्रेम करती है तो हमारा समाज ऐसी महिलाओं की एक नकारात्मक छवि गढ़ देता है। एक अघोषित सामाजिक दायरा बना देता है, जिसके बाहर उसे नहीं जाना है। यह समझने की जरूरत महसूस नहीं की जाती कि वह एक इंसान भी है। यानी प्रेम के लिए भी समाज ने एक दायरा बना दिया है, इसलिए निर्धारित सामाजिक पहचानों से इतर किसी से प्रेम करना भी गुनाह हो गया है।
मानवीय मूल्यों की समझ विकसित करने की होनी चाहिए कोशिश
इस तरह के उदाहरण हमें अपने आसपास आमतौर पर देखने को मिलते रहते हैं। हमें इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता, क्योंकि यह हमारे सामाजिक चलन का हिस्सा बन गया है और हम भी बिना सोचे-समझे उसका हिस्सा बनते चले जाते हैं। किसी के गलत या सही होने को लेकर सामाजिक चलन के मुताबिक अपनी मूक मोहर लगाते रहते हैं। जबकि समाज के संवेदनशील नागरिक होने के नाते हमें यह सोचने की जरूरत है कि हम जो भी राय बनाते हैं, किसी फैसले पर अपनी सहमति देते हैं, उसमें हमारा अपना विवेक कहां है।
ज्ञान के पायदान, आत्म ज्ञानी व्यक्ति को रसमय नहीं लगता यह संसार
विवेक आधारित सोच और व्यवहार हमारी शिक्षा का हिस्सा होना चाहिए। स्कूल का मतलब सिर्फ हिंदी, गणित पढ़ाना ही नहीं, बल्कि बच्चों के भीतर दुनिया को देखने-समझने और मानवीय मूल्यों की समझ विकसित करने की कोशिश करना भी होता है। अन्यथा बच्चा अपने समाज में भी वही देख रहा है और स्कूल में भी वही स्थिति है, तो बच्चा समाज का आदर्श अनुयायी जरूर बनेगा, लेकिन एक स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं। बदलाव की शुरूआत की बात कहीं से तो करनी होगी।
सबसे बड़ी मुश्किल यह लगती है कि हम इस पर बात नहीं करना चाहते हैं, या फिर बात करना हमें जरूरी नहीं लगता। इस कारण जैसा चल रह रहा है, वह सदियों से चलता आ रहा है। इसके कारण कितने लोग अवसाद में चले जाते होंगे, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। कई लोग अपना जीवन ही समाप्त कर लेते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि फिर भी यह कभी हमारे लिए गौर करने का हिस्सा नहीं रहा। यह बेवजह नहीं है कि पीढ़ी दर पीढ़ी आग्रहों-पूर्वाग्रहों की परंपरा चलती रहती है। नौबत यहां तक आ जाती है कि समाज के पीड़ित ही इसमें खुद को दोषी मानने लगते हैं। ऐसे में उनका परिवार भी इस दुख को झेलता है। एक सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी के तहत हम अपने आसपास के लोगों से बात तो शुरू कर ही सकते हैं।