समाज की मूल इकाई परिवार को माना जाता है। परिवार की संरचना में संयुक्त परिवार भारत की बड़ी विशेषता रही है। एकल परिवार पश्चिमी सभ्यता की नकल के रूप में आज दिखाई दे रहे हैं। परिवारों में आपसी प्रेम, सहयोग, सहकार, सेवा और त्याग जैसे मूल्य आजकल अपनी चमक खोते नजर आ रहे हैं। हाल की कुछ घटनाओं से दरकते आपसी विश्वास और कमजोर नींव का संकेत मिलता है। हमने सुना था कि जोड़ियां आसमान में बनकर आती हैं… रिश्तों का बंधन सात जन्मों के लिए होता है। मगर आजकल रिश्तों की उम्र कम होती जा रही है। इसके पीछे कौन-से कारण हो सकते हैं।
जब हम आज की जीवन शैली को देखते हैं, तो ज्यादातर लोग इस सुविधा का लाभ उठाने को लेकर सहज हैं कि सब कुछ चुटकी बजाते घर पर उपलब्ध हो रहा है। खाना, कपड़े, जूते और जरूरत भर के सभी सामान। बाजार की पहुंच घर तक हो गई है। हम जितना ज्यादा आनलाइन सुविधाओं पर निर्भर होते जा रहे हैं, उतना ही ये हमारे मन को व्यग्र और उतावला बना रही हैं। हमारे अंदर का संयम, धैर्य और प्रतीक्षा तिरोहित हो रहे हैं। धीरे-धीरे हम भोगवादी बनते जा रहे हैं। सुख-सुविधाओं को हमने जीवन का सच्चा सुख मान लिया है। मीडिया, सोशल मीडिया और रंग-रंगीले विज्ञापनों ने संबंधों की सरसता और अपनेपन के भावों को हमसे छीन लिया है। नई पीढ़ी बाजार की चकाचौंध और सामान के सुख को जीवन का उत्स मान बैठी है। बनावट और ब्रांडेड वस्तुओं का दिखावा आवश्यक बनता जा रहा है।
बेहद संवेदनशील होकर जागरूकता अभियान चलाने की नितांत आवश्यकता
महानगरों में अब आमतौर पर एकल परिवारों और उनमें भी एक बच्चे का चलन तेजी से बढ़ा है। अभिभावक बचपन में अपने बच्चे की हर जिद और मांग को पूरा करते हैं। धीरे-धीरे यह उसकी आदतों का हिस्सा बन जाती है। यही बच्चे किशोर बनकर मनमानी के रास्ते पर निकल जाते हैं। जब तक माता-पिता को उनकी बुरी आदतों का पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ‘चिड़िया चुग गई खेत’ वाली कहावत हमारे घर में चरितार्थ होती दिखाई देती है। मोबाइल पर खेले जाने वाले खेल और नियंत्रण से बाहर की विषय-वस्तु इन किशोर-किशोरियों को गुमराह कर रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चे निजता की दुहाई देकर अपने माता-पिता को मोबाइल दिखाने में आनाकानी करते हैं। यहीं से मनमाने व्यवहार की शुरूआत होती है, जो बाद में कई बार बेलगाम भी होती है और स्वाभाविक रूप से एक दिन उसके दुष्परिणाम भी प्रकट हो जाते हैं।
अब ऐसे में प्रश्न उठता है कि किया क्या जाए? समस्या का निदान कहां पर है? कौन करेगा इस उल्टी धारा की निगरानी? या फिर सब कुछ बदलाव और वक्त की जरूरत के नाम पर ऐसे ही चलता रहेगा? उत्तर स्पष्ट है कि जानकारी ही बचाव है। इस मसले पर बेहद संवेदनशील होकर जागरूकता अभियान चलाने की नितांत आवश्यकता है। हमें सामाजिक सरोकारों की ओर लौटना होगा। मोबाइल को किनारे रखकर आमने-सामने होकर अपनों से सहजतापूर्वक बातें करनी होंगी। घर में बड़े होते बच्चों पर दबाव तो ठीक नहीं है, लेकिन उन पर सतर्क दृष्टि रखनी होगी। उनके व्यवहार की अनदेखी भारी पड़ सकती है और उनके अनुकूल होते हुए उन्हें वास्तविकता का अहसास कराने की जरूरत है। घर में अपने बड़ों के प्रति आदर, सद्भाव और आत्मीयता को प्रदर्शित करना होगा। बच्चे अनुकरण से बहुत कुछ सीखते हैं। घर के वातावरण को अनुशासित, मर्यादित के साथ मैत्रीपूर्ण भी होना चाहिए।
मनोवैज्ञानिक पद्धति से काम करने वाले सलाहकारों के साथ किया जा सकता है काम
समाज को भी इस दिशा में अपनी भूमिका को समझना होगा। बौद्धिक विचारों और सामाजिक समस्याओं की चर्चा से विचार-प्रक्रिया समृद्ध होती है। जिस तरह आंखों की जांच, रक्तदान शिविर और स्वास्थ्य जांच आदि के लिए शिविर लगते हैं, उसी तर्ज पर सामाजिक विकृतियों को दूर करने के उपाय बताए जा सकते हैं। मनोवैज्ञानिक पद्धति से काम करने वाले सलाहकारों के साथ काम किया जा सकता है और अभिभावकों को जागरूक किया जा सकता है। दरअसल, अब समय आ गया है, जब मानवीय संवेगों और मूल प्रवृत्तियों पर काम करना बहुत जरूरी हो गया है। अन्यथा समाज को इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा। स्वच्छंदता और मनमाना व्यवहार हमें अपराध की ओर ले जाता है।
पाठ्यक्रम में भी इस दिशा में कुछ पाठ जोड़े जाने चाहिए। विद्यार्थियों में नैतिकता और मूल्यपरक शिक्षा को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। मोटी तनख्वाह के लिए तैयार किए जा रहे विद्यार्थियों से नैतिक और सामाजिक मूल्यों की अपेक्षा रखना ही बेमानी है। येन-केन प्रकारेण खुद को सबसे आगे रखना और अधिक से अधिक संसाधनों तथा संपत्ति को बटोरना ही इनके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। विद्यालय में बच्चों के सर्वांगीण विकास पर काम होना चाहिए। विशेषकर व्यवहारगत परिवर्तनों पर सजग और सतर्क दृष्टि रहनी चाहिए।
कक्षा में प्रोन्नत करते समय ये मानक बहुत जरूरी हैं। विद्यालय के मंच से अनुशासित और मर्यादित विद्यार्थियों को सदैव प्रशंसित और पुरस्कृत किया जाना चाहिए। अनुशासन एक स्तर पर दबाव बन जाता है तो उससे बचना चाहिए, लेकिन स्वअनुशासन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। खुद शिक्षकों को एक बेहतरीन उदाहरण पेश करना चाहिए। कुल मिलाकर काम बहुत कठिन है। समाज में आ रहे बदलावों को नजरअंदाज भी नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों को इस दिशा में चेतावनी की घंटी बजाते रहना होगा। अन्यथा बदतर परिस्थितियां भी देखने को मिल सकती हैं। मनुष्यता के हक में सुधार के लिए परिवार, समाज और विद्यालय को जिम्मेदारी लेनी होगी।