हम अक्सर इस बात पर खुश होते हैं और प्रकृति को धन्यवाद देते हैं कि हमें धरती पर जन्म लेने का अवसर मिला। लेकिन आज समूची दुनिया में मनुष्य की गतिविधियों से हालत यह होती जा रही है कि शायद धरा को कभी अपनी फिक्र होती होगी और वह सोचती होगी कि आखिर मनुष्य खुद ही अपने जीवन के सूत्रधार के प्रति इस हद तक लापरवाह क्यों है। यह तो वही बात हो गई कि किसी बैंक ने उत्पादक कामों के लिए किसी को कर्ज दिया, लेकिन मनुष्य की अदूरदर्शिता ने उस धन का उपयोग गैर-उत्पादक कार्यों में लगाकर अपनी पुश्तों के भविष्य के सामने अनेक अवरोध खड़े कर दिए।

आज धरती पर प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध उपयोग के कारण हम अपनी प्यारी संतानों के लिए घायल और थकी हुई धरती को छोड़ कर जाने की राह पर अग्रसर है, बिना यह समझे कि इसका नतीजा क्या सामने आएगा। इस बात से अनभिज्ञ क्यों हैं कि हम आज जो कर रहे हैं कि उसके बाद हमारी संतानों का वही हाल होगा जो कर्ज न चुकाने के कारण कुछ परिवारों में बचे हुए लोगों या अगली पीढ़ियों का अक्सर देखा जाता है। ऐसी खबरें आम हो चुकी हैं, जिनमें समूचे परिवार के लोग आत्महत्या का घातक रास्ता अपना लेते हैं। हालांकि ऐसी स्थिति पैदा होने में परिवार के मासूमों का क्या कसूर होता है, जिन्हें मालूम भी नहीं होता कि उनके पिताजी या दादाजी ने किसी से कर्ज क्यों लिया था और उसे चुकाने के लिए कौन जिम्मेदार था। यही आलम आज दुनिया में विकास के नाम पर छलनी हो रहे परिवारों का है, जो अपने बच्चों को अच्छा भविष्य देने के लिए पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। यह भविष्य तो क्या, सबका वर्तमान भी खराब कर रहा है।

जंगल, नदी और नालों पर लोगों का कब्जा

पिछले कुछ समय से इस मौसम में पहाड़ी राज्यों में हो रही भारी बरसात ने मनुष्य के विकास के माडल की कलई खोल कर रख दी है। कई पहाड़ी इलाकों में कुछ समय पहले एक या दो तीन दिन की भारी बारिश ने कितने-कितने सपनों के आशियाने ताश के पत्तों की तरह उड़ा दिए। कहा जा रहा है कि पहाड़ आक्रोशित हैं। उनकी सजावट के उनके समान- जंगल, नदी और नालों पर लोगों का कब्जा हो चुका है। बार-बार बैंक की तरह चेतावनी देने पर भी कोई भी सुधरने को तैयार नहीं है और न ही सुधरने का कोई संकेत दिखता है।

मजबूरी के चलते नहीं, स्वेच्छा से अपने आपको मशीन में तब्दील कर रहा है मनुष्य

जब-जब धरती की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां लगातार बढ़ेंगी, तब-तब प्रकृति अपना धन वापस लेने के लिए उग्र रूप धारण करेगी, क्योंकि निष्ठुर हो चुकी मनुष्य जाति पर अब कोमलता और संयमित नोटिस का कोई असर नहीं होता। वर्ष में बरसात के दो से तीन महीने में ही उसे अपना अधिकार और शक्तियां उपयोग करने का मौका मिलता है। अन्यथा मनुष्य तो प्रकृति पर अपना एकाधिकार जमाए हुए है। दुखद पहलू यह है कि जिस तरह बड़े-बड़े धनपति बैंकों का अरबों रुपए लेकर देश से भाग जाते हैं, उसी तरह अमेरिका जैसे विकसित देश पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए तैयार किए गए महत्त्वपूर्ण दस्तावेज पेरिस जलवायु समझौते से बार निकल जाते हैं। उसकी देखा-देखी में अन्य छोटे-छोटे कर्ज लेने वाले भी प्रकृति का कर्ज चुकाने में आनाकानी करने लग जाते हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम मूकदर्शक बन कर बस देखता है तमाशा

दूसरी ओर, इस कशमकश में संयुक्त राष्ट्र की एजंसी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम मूकदर्शक बन कर बस तमाशा देखता है। हालांकि विश्व में तमाशा देखने वालों की कमी नहीं है, क्योंकि वास्तविक मुद्दों पर बोलना कोई नहीं चाहता है। चाहे समुद्र का जलस्तर लोगों के घर और शहर डूबो दे, हमारे भविष्य वायु प्रदूषण से अपना बचपन खो दें, बेशक आक्सीजन खरीदनी पड़े और चाहे बाद में सारी जमा-पूंजी बरसात में ऋण से बनाई गई जायदाद को फिर खड़ा करने में खर्च हो जाए। क्या फर्क पड़ता है? हम बस यहीं सोचते जा रहे हैं धरा मां ही है, जो फिर सब कुछ भूल कर हमें अपना लेगी। लेकिन ये नहीं पता कि संयम का भी एक मूल होता है और जब वह बार-बार छलनी होगा, तो संयमित नहीं रह पाएगा।

गपशप करने से तनावमुक्त और तरोताजा हो जाता है मन, शायर गुलजार ने इसको लेकर कही है दिल खुश कर देने वाली बात

जब इसके नुकसान की मार हम पर और सब पर पड़ने लगती है, तब हम इस बात का अनुमान नहीं लगा पाते कि भविष्य क्या होगा। क्या हम उस स्थिति की कल्पना कर पाते हैं कि भविष्य में हमारे सामने अपने बच्चों को यह पढ़ाने की नौबत आ सकती है कि कहीं एक पेड़ था, एक नदी थी और किसी इलाके में जंगल हुआ करते थे। बहुत सारे पंछी सुबह-सुबह अपनी सुरीली आवाज से जग को जगाया करते थे।

हो सकता है कि हम आज फिक्र को दरकिनार कर दें, लेकिन अगर यही हालात रहे तो आने वाली नस्लों को खारे पानी के समुद्र ही मिलेंगे और पीने के पानी के लिए उनकी पचास फीसद से अधिक पूंजी खर्च हो जाएगी। वह पीढ़ी सिर्फ मशीनों से बात करेगी और हवा को साफ करने के मास्क लगाकर घूमती नजर आएगी। अब भी जागने का वक्त है और यह सोचने की जरूरत है कि भविष्य को लेकर ऐसी आशंकाएं सिर्फ एक सपना हों। हमें अभी से सबके साथ मिलकर धरती और प्रकृति का ऋण चुकाने के लिए एकजुट होना होगा, क्योंकि आने वाले समय में हमें बच कर शायद कहीं भागने का भी मौका नहीं मिलेगा।