हमारे अस्तित्व में आने के साथ ही यह प्रश्न उठने लगता है कि आखिर हमारा जन्म क्यों हुआ है और हम कौन हैं। हमारे जन्म को लेकर उठे प्रश्न यह बताते है कि हम होश में हैं, वरना इस धरती पर कई लोग जन्म लेते हैं, सांसारिक क्रियाकलाप निभाते हैं और अपना समय होते ही चले जाते हैं। यही दस्तूर भी है, लेकिन एक जिज्ञासु मन इस बात की खोज करता है कि मैं कौन हूं और इस धरती पर जन्म लेने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं। इसी जिज्ञासा ने हमारे कई संतों को प्रेरित किया और वे उस स्व को खोज पाए, जिसे पाना ही जीवन का मकसद होता है। जिन्होंने भी स्व को पाया, उनके अंदर करुणा, आत्मीयता, अपनापन, समर्पण अपने आप आने लगता है। आत्म ज्ञानी व्यक्ति को यह संसार रसमय नहीं लगता है। उसे तो संपूर्ण सृष्टि परमात्मा की देन लगती है।

ज्ञान की सभी श्रेणियों में सर्वोच्च है आत्मज्ञान यानी स्वयं का ज्ञान। हम प्राकृतिक विज्ञानों, सभी कलाओं और शिल्पों, साहित्य और संगीत, नृत्य और चित्रकला, सभी प्रकार का सांसारिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन अगर हमें स्वयं का ज्ञान नहीं है, तो यह सब हमें शांति या आनंद नहीं देगा। आत्मज्ञान वह है, जो अनेकता में एकता को, नाशवान में शाश्वत को प्रकट करता है। जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह सर्वज्ञ है। उपनिषद कहता है- ‘तरति सोकं आत्मवित्’। यानी आत्मा का ज्ञाता दुख पर विजय प्राप्त करता है। सभी सांसारिक ज्ञान जीवन को बनाए रखने से संबंधित हैं। जब आत्मा का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, जो विज्ञान और कलाओं के अन्य सभी ज्ञान का आधार है, तो किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना आसान हो जाता है।

बोधिसत्व सात दिन तक हंसते रहे, जब उन्हें आत्मबोध हुआ। उनके मित्र बहुत चिंतित हो गए। उन्होंने पूछा कि क्या बात है? आप इतना हंस क्यों रहे हैं? इस पर बोधिसत्व ने कहा कि मैं हंस रहा हूं, क्योंकि अब मुझे अपनी पूरी खोज की मूर्खता दिखाई दे रही है। मैं कई जन्मों से सत्य की तलाश में भटकता रहा और वह सत्य तो हमेशा मेरे भीतर ही था, जिसे मैं खोज रहा था। वह स्वयं खोजने वाले में ही छिपा था। मैं बाहर-बाहर दौड़ता रहा, जबकि कहीं जाने की कोई जरूरत ही नहीं थी। अगर मैं बस शांत हो जाता, तो वह मेरे पास था। वह तो हमेशा से मेरा था- मेरी सबसे गहराई, मेरा ही अस्तित्व। खोजने वाला ही खोजा गया है। यही कारण है कि मैं हंस रहा हूं। मुझे विश्वास नहीं होता कि मैं इतने लंबे समय तक इस भ्रम में कैसे पड़ा रहा। मैं इसलिए भी हंस रहा हूं कि मैं देख रहा हूं, चारों ओर लाखों लोग उसी तरह खोज में लगे हुए हैं- परमात्मा, आनंद, सत्य, निर्वाण की तलाश में। जिसे वे खोज रहे हैं, वह सब उनके भीतर ही उपलब्ध है। कहीं जाने की जरूरत नहीं है, कुछ करने की जरूरत नहीं है।

आत्मज्ञान के लिए सर्वप्रथम कड़ी है मन

आत्मज्ञान के लिए सर्वप्रथम जो कड़ी है, वह है मन। मन को हम स्वयं नियंत्रित नहीं कर सकते। मन का प्रबंधन विभिन्न योग, ध्यान, प्राणायाम आदि से कर सकते हैं। अगर हम मन को स्वयं से अलग समझकर इसपर ध्यान दें तो जान सकते हैं कि इस मन ने किस तरह हमको वश में किया है। मानो आप कोई कठपुतली हैं, जिसकी डोरियां हमारे अस्थिर मन के पास है। जब यह मन किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति की कामना करता है तो हमारी इंद्रियां, बुद्धि मन के अधीन होकर मन के लिए ही कार्य करती हैं। बल्कि हमारे जीवन में जो भी सुख और दुख होते हैं, सभी का कारण ये मन ही है। श्रीमद्भगवद्गीता में हमें एक रथ का उदाहरण मिलता है, जिसमें मनुष्य एक रथ के समान दिखाया गया है। इस रथ में पांच इंद्रियां इस रथ के पांच घोड़े के समान हैं। बुद्धि इस रथ की लगाम के समान है। मन इस रथ को चलाने वाला चालक के समान है और आत्मा इस रथ के स्वामी के समान है। हमारे मन और इंद्रियों की संगति से हम जीवन में सुख और दुख भोगते हैं।

परवरिश, परिवेश और पहचान, कैसे बनता है इंसान का स्वभाव? हर चेहरा, हर सोच – एक जैसा नहीं होता

मन, बुद्धि, कर्तव्यों और इंद्रियों से परे जो आत्मा है, उसकी अनुभूति तब होती है, जब स्वयं को मन, बुद्धि, कर्तव्यों और इंद्रियों से भिन्न जाना जाता है। यह आत्म-ज्ञान या स्वयं के सत्य स्वरूप की अनुभूति होती है। इस अनुभूति में मन निष्क्रिय यानी शांत या शून्य हो जाता है और अपना हमेशा जैसा व्यवहार नहीं करता। बुद्धि सभी विचारों से मुक्त होती है और योगी स्वयं को आत्मारूपी दिव्य चैतन्य में पाते हैं। आत्म-ज्ञानी योगी को यह आत्मा सर्वव्यापी चैतन्य, अनादि, दिव्य, मूल और शाश्वत जान पड़ती है।

मन की पवित्रता हृदय की पवित्रता को बढ़ाती है। महान व्यक्तियों की संगति और संतों के विचारों का अध्ययन करने से मन को पवित्रता प्राप्त होती है। कर्म करने का उद्देश्य चेतना को शुद्ध करना है। चेतना की पवित्रता से आत्मा का साक्षात्कार होता है। आत्मज्ञान केवल श्रद्धा से ही प्राप्त किया जा सकता है। आज आत्मविश्वास केवल सांसारिक उपलब्धियों और स्वार्थी गतिविधियों से संबंधित मामलों में ही प्रकट होता है। बुनियादी आवश्यकता स्वार्थ और अधिकार की भावना को त्यागना है, ताकि व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म में संलग्न हो सके। कोई भी व्यक्ति लिंग, आयु, जाति या समुदाय की परवाह किए बिना इस खोज पर चलने का हकदार है।