कुछ लोग उसे प्रारब्ध कहते हैं, कुछ नियति तो कुछ भाग्य का लिखा। अलग-अलग अवधारणाओं से यही बात निकलकर सामने आती है कि सब कुछ पूर्व निर्धारित होता है। हम किन लोगों से मिलते हैं, उनके साथ जीवन कितने समय का होता है आदि से लेकर हमारे जीवन में कितनी सांसें लिखी हैं, माना जाता है कि उसका लेखा-जोखा भी पहले से लिखा जा चुका है। यह ज्यादातर लोग इसे मानते हैं, लेकिन इसे मानने के अपने खतरे हैं। हम उन खतरों से भयभीत होते हैं। अगर यही समझ लिया कि सब कुछ पहले से लिखा है तो हम पर एक तरह की अकर्मण्यता हावी हो जाएगी। हम कुछ करने के हौसले से खुद को बचा ले जाएंगे। दूसरा खतरा इससे भी विकट है कि हम गहरे अवसाद में भी जा सकते हैं, यह सोचते हुए कि मैं कितना भी हाथ-पैर पटकूं, होना तो वही है, तो मेरे करने का क्या औचित्य!

इस संदर्भ में अगर हम यह मानते हैं कि बिना परम शक्ति के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो साथ ही हम यह क्यों न मानें कि वही शक्ति हमें उद्दीप्त कर रही है कि हम कुछ ठोस कदम उठाएं, कुछ काम करें। दुनियावी रंगमंच पर हमें जो भूमिका मिली है, तो उसे भी पूरी शिद्दत से क्यों न निभाएं? कोई बड़ा काम करने के लिए धन-ऐश्वर्य की आवश्यकता नहीं होती। हमारे जिम्मे जो काम आया है, उसे हम बेहतरीन तरीके से कर सकते हैं। अगर साधन-संपन्न होना ही सुखी होना होता, तो कई बड़े नामी-गिरामी कलाकार आत्महत्या नहीं करते। कुछ तो उनके जीवन में भी उन्हें कचोटता होगा। हमारे दुख अलग हैं तो किसी और के दर्द हमसे जुदा। पर दुख, तकलीफें, पीड़ा सबके जीवन में हैं। जिसने जन्म लिया, उसके हिस्से उसके अपने कष्ट-भोग हैं और उसे सहना है। हमें तय करना है कि हम कांटों भरा ताज पहनने को तैयार हैं या रोते-बिलखते जिंदगी गुजार देना चाहते हैं।

मुख्य किरदार के हिसाब से लिखी जाती है पटकथा

मनोरंजन के लिहाज से टीवी पर हम जो ‘रियलिटी शो’ देखते हैं, उसमें हर समय कैमरा हर कोण से उन किरदारों के हाव-भाव, गतिविधियां कैद रहा होता है। वैसा ही कुछ यह हमारा जीवन चल रहा है। छोटे पर्दे पर हम जो देखते हैं, उसके दर्शक हम होते हैं तो हम एक पल के लिए यह मान सकते हैं कि हमारे जीवन के ‘रियलिटी शो’ का दर्शक कोई दैवीय ताकत है जो दुनियावी पर्दे पर सब देख रही है। हमारे हाथों में रिमोट होता है, लेकिन कई बार लगता है कि उस शक्ति के पास केवल रिमोट नहीं, हमारी जिंदगी की पूरी पटकथा भी है। अगर हमें मुख्य किरदार की भूमिका मिली है तो उसकी पटकथा भी वैसी ही होगी। हमारा पहनावा, संस्कार, घर-परिवार भी वैसा ही चुना जाएगा। कई बड़े लोगों को उनकी मृत्यु के बाद लोगों ने जाना कि अरे हमारे बीच कोई अलहदा होकर गया! सुकरात को उनके जीवनकाल में कुछ लोगों ने पागल भी कहा था। मुक्तिबोध गहरी विपन्नता में जीकर गए। इसलिए नायक को नायक जैसा दिखना भी हो, यह भी जरूरी नहीं।

पहली झलक का होता है बड़ा प्रभाव, आचरण-वेशभूषा और परिवेश से होती है पहचान

आज के युग में जब चमक-दमक के साथ पेश किए जाने या होने पर जोर दिया जाता है, हर कोई ‘स्मार्ट’ दिखना चाहता है, तब हो सकता है कि कोई बड़ा कलाकार इसलिए नजरअंदाज कर दिया जाए कि वह दिखने में साधारण है। या किसी के व्यक्तित्व के बारे में ध्यान दिलाने के लिए रोशनी न डाली जाए तो हम पहचान ही न पाएं कि अंधेरे के किसी कोने में हीरा धूल खाता पड़ा है। यों इसमें हीरे का भी कोई दोष नहीं। यह भी विचित्र है कि दुनिया ने हीरे को नहीं पहचाना। पर वैसे तो दुनिया का भी कोई दोष नहीं। उस हीरे को बनाया ही इसलिए गया था कि वह सबकी नजर में न आए। मोर तो जंगल में नाचता है, कोई देखे या न भी देखे, उसे कहां फर्क पड़ता है। मीरा का भजन है कि ‘बड़े-बड़े नयन दिए मिरगन को, बन-बन फिरत उघारी।’ मतलब हिरण बड़ी-बड़ी आंखें खोले जंगल में घूमता रहता है। अगर मोर या हिरण को ही इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसे देख रहा है या नहीं, कोई उसकी कद्र कर रहा है या नहीं तो हमें क्यों पड़ना चाहिए।

मनुष्य को करते रहना चाहिए निष्काम कर्म

हम तो मनुष्य हैं और कहने को हम बुद्धि में अन्य जानवरों की तुलना में श्रेष्ठ है। अगर हम बुद्धिमान हैं तो क्या हमें भी इस तरह नहीं सोचना चाहिए कि हमारे बारे में आकलन करने का दूसरों का क्या अधिकार है? हाथी बाजार में चलता है, बिना किसी की परवाह किए! सारी बातों का सार यह है कि हमें किसी भी बात के लिए हाय-तौबा करने की कोई जरूरत नहीं है। दीवार के आगे सिर पटकने से कुछ नहीं होता, यह हमें भी पता है। तो चिंता छोड़ा जाए… उन्मुक्त होकर जीना सीख लिया जाए। कुछ काम ऐसे होते हैं, जिसके लिए जमीन-आसमान एक कर दिया तो भी वह हमारे हिस्से नहीं आएगा। मगर इसका यह अर्थ भी नहीं कि हम काम करना ही छोड़ देंगे। निष्काम कर्म करते रहना चाहिए। कुछ फलीभूत हुआ तो ठीक, नहीं हुआ तो भी ठीक। इस मन:स्थिति में आ जाना चाहिए। फिर यह देखा जा सकता है कि हम खुद को कितना शांत पाएंगे।