ऐसा कई बार होता है कि हम किसी की पीड़ा को देखकर मुंह मोड़ लेते हैं। हम उस दृश्य, घटना से स्वयं को आबद्ध न करने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन ऐसा पूरी तरह हो नहीं पाता। यह मानव शृंखला है। किसी की पीड़ा के दृश्य या घटना को देखते ही हमारा अंतर्मन उससे जुड़ जाता है। यह देखना केवल देखना नहीं होता। अनुभूत करना होता है- दो चीजों का टकराना। इस समय जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसे देखना महज आंखों देखा हाल नहीं है। यह एक काव्यात्मक निगाह से निकट की चीजों को देखना है। हम यह देखने में लगे हैं कि कितने लोगों ने हमें देखा और ऐसा करके हम आगे निकल रहे हैं। घटनाओं में रुचियां तलाश रहे हैं।
आधुनिकता के आगमन के साथ हम यथार्थ के नए धरातल पर पहुंच गए। हमारी जरूरतें ही नहीं, गैरजरूरी चीजों की सूची भी बदल गई। मानवीय श्रम और मनुष्य की चेतना की गति, सीमा और विस्तार से बंधी। इसके बीच कोई नई तीसरी चीज नहीं है। यह सबके जीवन में समांतर चलती है। बावजूद इसके सबके जीवन के अनुभव भिन्न होते हैं। सुख के कारण और दुख की नियति भी भिन्न। मानव समाज हर तरह से युग्म के सिद्धांत पर चलता है। दो के बिना किसी तीसरी अवस्था या स्थिति का जन्म संभव ही नहीं। फिर यह इकहरापन क्यों विस्तार पा रहा? साहित्य ही क्यों, जबकि जीवन भी एकवचन नहीं है। यह बहुआयामी है। हां, इसके प्रति हम जरूर वचनबद्ध हो सकते हैं।
दो पत्थरों के रगड़ने से आग का निकलना। इसमें दोनों पत्थरों का होना जरूरी है और इससे एक तीसरी चीज नमूदार होती है- आग। जब आग पैदा होती है तो हर पत्थर का अस्तित्व दूसरे के महत्त्व को स्थापित करता है। ऐसे में किसी एक को अधिक महत्त्वपूर्ण और दूसरे को कम महत्त्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। हर एक का अस्तित्व अपने साथ-साथ दूसरे को प्रकाशित करता है। जीवन का यथार्थ भी ऐसा ही संवेदन है। बिना किसी बौद्धिक बोझ के अपने स्वत: प्रवाह में टकराव नहीं, रगड़ पैदा होती है।
हमारी मौलिकता में नई स्थापनाओं को जन्म दे रहा बदलाव
सच पूछा जाए तो अब जीवन न तो एक सीमित दायरे में व्यक्त होता है, न प्रकृति के अनुरूप। एक दूसरे पर आश्रित न रहने की वृत्ति ने एकाकी बना दिया। जीवन ऋतु-चक्रों पर पूर्णतया आश्रित भी नहीं रह गया, बल्कि प्रकृति पर वर्चस्व कायम करने की इच्छा बलवती हो रही। भीतर परनिर्भरता का मिथक तोड़ दिया गया। इस टूटने ने उस पुरानी लय को भी जीवन से विशृंखलित कर दिया। पहले जो चक्रीय था, अब वह अन्य ज्यामितिक संरचनाओं में ढलने लगा है। यही बदलाव हमारी मौलिकता में नई स्थापनाओं को जन्म दे रहा, लेकिन यह नयापन कितना सामाजिक-मानवीय होगा, कितना संवेदन? जुड़ाव क्या इतना अंतरंग है कि आग पैदा कर सके?
हम जिस समाज की बात करते हैं, वह समाज पूर्व के अनुभवों पर तैयार हुआ है। उसका कल भी उसी रगड़ से गुजरेगा। उस रगड़ में किसी एक के आधिक्य या दूसरे के कमतर होने की कोई गुंजाइश ही नहीं। वेदना से संवेदना तक मनुष्य के भीतर जो कुछ भी घटित होगा, वह दो लोगों के समान अस्तित्व से जन्मा है। ठीक उसी तरह, जिस तरह यह धरती पशु और वनस्पति के परस्पर आश्रित से दोनों के अस्तित्व को सुरक्षित रखती है। वह जीवन की उस गति को मूर्त करने का प्रयत्न करती है जो तप कर आकार लेती है। जीवन के बनने या परिपक्व होने के क्रम में, बल्कि क्रमिकता में असंख्य क्रमभंग मौजूद रहते हैं। कुछ अंतराल और विपरीत समन्वय से नए बोध भी। यह मनुष्य के सामाजिक होने की अनिवार्य शर्त भी है।
जीवन की गहराइयों में छिपी होती है उत्साह और खुशी, उत्सव की तरह जीनी चाहिए जिंदगी
अब लोग एक दायरे के बाहर नहीं जाते। जबकि समाज अपनी स्थानिकता से मजबूती से जुड़ा हुआ है। लेकिन घर में रहकर भी हमने एकल दुनिया बसा ली, जो शुरूआत में तो आकर्षक लगती है, लेकिन धीरे-धीरे भीतर से खोखला कर देती है। मगर हम तब भी नहीं ठहरते। सतही दृष्टि से देखकर आगे निकल जाते हैं। अंतर्बोध में जो एक व्यापक परिवर्तन आता है, वह चीजों को निकट से देखने पर ही आता है, लेकिन हम चलते-फिरते चार काम साथ में करते हुए देखते हैं कि कितने लोगों ने हमें देखा। वह जो हमारे बीच से होकर गुजर जाता है, ठहर नहीं पाता और हम कहते हैं, हमें तो पता ही नहीं। हमें पता ही नहीं कि वास्तविकता या यथार्थ क्या है। हम तो बस अपने लोकप्रिय होने के पैमाने को देखते हैं।
हम पूरी तरह चखना चाहते हैं स्वतंत्रता का स्वाद
हमारा असली यथार्थ वही नहीं, जो हम जी रहे होते हैं। हमारा यथार्थ हमारे स्वप्नों, हमारी आकांक्षाओं, हमारी इच्छाओं, हमारे उन विकल्पों के भीतर भी छिपा रहता है, जिन्हें हम चुन नहीं सके। मगर वे हमारे भीतर उतने ही जीवंत और स्पंदनशील हैं। हम कभी घर के द्वार से गुजरते गीत गाते फकीर को सुन नहीं पाते। मंदिर की घंटियों के बीच से गाय का रंभाना हो या शहर की व्यस्ततम सड़कों की सूनी दोपहरें हम नहीं देख पाते। वह सब जिसने हमारे जीवन का परिवेश निर्मित किया। हम उसे महज एक दिनचर्या मानकर आगे निकल जाते हैं। उसके लिए जो कभी-कभी घटित होगा।
हम पूरी तरह अपनी स्वतंत्रता का स्वाद चखना चाहते हैं, लेकिन दूसरों के लिए जगह छोड़े बिना स्वयं की स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं। आखिर दो अवयव ही समाज का जीवन का रसायन बनाते हैं। आंतरिक संगति हमारे जीवन में वीणा के तार छेड़ती है। अब हम पहले की तरह किसी से नहीं जुड़ते। हम अपने ही दुख को क्षणिक बना देते हैं- हर नए सुख के लिए आतुर। नियतिप्रद दुख के भीतर से जन्मे मृत्यु के सारे संस्कार औपचारिक नहीं हो सकते, जबकि दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति को इससे गुजरना है। क्या हम दूसरे किसी की पीड़ा या दुख में अपनी किसी पीड़ा या सालती हुई स्मृति को देखने लगते हैं?