तीरथ सिंह खरबंदा

एक अखबार में खबर छपी देखी, जिसका शीर्षक था, ‘कान में विरोध’। शीर्षक सचमुच चौंकाने वाला था। आगे पढ़ने पर ही पता चल सका कि दरअसल, वह कान फेस्टिवल के दौरान हुए विरोध से जुड़ी खबर थी। शीर्षक पढ़कर कुछ और ही समझ बैठा था। आजकल विरले लोग ही शीर्षक से आगे बढ़ पाते हैं। वे शीर्षक पढ़ कर निष्कर्ष निकाल लेते हैं। इस खबर में दो शब्दों ने ध्यान खींचा था- कान और विरोध। आजकल दो शब्द ही किसी मुद्दे के लिए पर्याप्त होते हैं, बशर्ते आप शब्दों की जादूगरी जानते हों। कई राजनेता तो ऐसे जादू में माहिर होते हैं। जब आप उन्हें दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित करते हैं, तो ऐसा आप अपने जोखिम पर करते हैं।

बोलने वाला माइक हाथ लगने के बाद कितना भी और कुछ भी बोल सकता है, वह विरोध में भी बोल सकता है। बवाल होने पर वह यह भी कह सकता है कि मेरा ऐसा मतलब नहीं था। मेरे शब्दों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है। दरअसल, तब तक उसका मकसद पूरा हो चुका होता है। तब तक उसके कहे शब्द अपना काम कर चुके होते हैं। तब ऐसे शब्दों के जादूगर अपने बचाव के लिए आजमाए हुए कोई भी ‘पंच’ वाक्य इस्तेमाल करके प्रपंच से बाहर निकल सकते हैं।

आजकल माइक पर विरोध करने के लिए कुछ ज्यादा ही हिम्मत चाहिए

जब से हमारे यहां विरोध करने वालों का सार्वजनिक सम्मान करने की प्रथा चल पड़ी है, तब से सम्मान से सुरक्षित दूरी बनाए रखने वाले लोगों के बीच कान में विरोध दर्ज करने का फैशन फिर से प्रचलन में आ गया है। वैसे भी आजकल माइक पर विरोध करने के लिए कुछ ज्यादा ही हिम्मत चाहिए। इसीलिए पढ़े-लिखे समझदार लोगों के विरोध का रास्ता कान से होकर ही गुजरता है। अगर कान आपके बिल्कुल निकट है, तो फिर ज्यादा जहमत उठाने की जरूरत नहीं है। तब आप अपना विरोध फुसफुसा भी सकते हैं। इसमें एक सुगमता और है कि कान से विरोध का रास्ता सीधे व्यक्ति के दिमाग तक जाता है। यह रास्ता पूरी तरह जोखिम रहित होता है और उसके लिए विशेष हिम्मत की जरूरत भी नहीं पड़ती है। कमजोर दिल वाले भी मौका मिलने पर कान में आसानी से विरोध दर्ज कर सकते हैं।

कहते हैं कि कान में विरोध का यह मार्ग किसी ऐसे गुप्त मार्ग की तरह होता है, जिसमें अंतत: कुछ भी गुप्त नहीं रह जाता है। कान में विरोध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है या नहीं, यह टीवी चैनल वालों के लिए बहस का नया और रोचक विषय हो सकता है। अनुभवी बताते हैं कि कान में विरोध का मजा ही कुछ और होता है, शायद इसीलिए कान में विरोध की खबरें अक्सर आती-जाती रहती हैं। हालांकि कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जिनके कान पर कभी जूं तक नहीं रेंगती है। आप चाहे जो कहते रहें, वे आपकी बात पर कान धरने को राजी नहीं होते हैं। अगर वे एक कान से सुनते भी हैं, तो दूसरे कान से उसे तुरंत बाहर निकाल देते हैं। ऐसे लोगों के कान में विरोध का कुछ वैसा ही मतलब होता है जैसा कि किसी बहरे के कान में विरोध करना।

कुछ लोग कान के बहुत कच्चे होते हैं, ऐसे लोगों के कान में विरोध का जोखिम मोल नहीं लेना चाहिए। आपकी बात सुनते ही उनके कान खड़े हो सकते हैं। भूलकर भी ऐसे लोगों के कान में विरोध नहीं फूंकना चाहिए। जहां तक हो सके, उन्हें आपके विरोध की कानो-कान खबर तक नहीं होनी चाहिए, वरना मौका मिलने पर वे आपके भी कान काट सकते हैं।

कुछ लोग होते हैं जो हमेशा कान में तेल डाल कर बैठे रहते हैं। उनके कानों में ऐसी विरोध भरी बातों का कोई असर नहीं होता है। हां, आपके विरोध से उनके कान अचानक खुल सकते हैं और वे नाराज होकर आपसे कह सकते हैं कि अब और ज्यादा कान न पकाओ। बेहतर होगा कि आप ऐसे लोगों से कान पकड़ लें कि कभी भूलकर भी उनके कान में विरोध दर्ज नहीं करेंगे।

ऐसे लोगों के कान में विरोध दर्ज करने का कभी यह परिणाम भी हो सकता है कि आपकी गलती से उनके कान फटने लग जाएं और फिर वे आपके बारे में दूसरों के कान खोलने में लग जाएं। इसलिए सुनी सुनाई बातों पर ज्यादा कान नहीं देना चाहिए। और अंत में एक बात और : कहते हैं कि दीवारों के भी कान होते हैं, अगर आप जीरो जोखिम पर विरोध दर्ज करने का शौक रखते हैं, तो बहरे के कान के बजाय दीवारों के कान में तो अपना विरोध दर्ज कर ही सकते हैं।