बढ़ते जीवन स्तर और मनुष्य के शैक्षणिक विस्तार ने भौतिक जीवन की चकाचौंध को और अधिक फैलाया है। सांस्कृतिक जीवन की विरासतें बदली हैं और नए जीवन मूल्यों ने जन सामान्य को आकृष्ट किया है। मानव संवेदना को जीवन संघर्ष ने इस कदर झिंझोड़ दिया है कि वह पूरी तरह रूखा हो चुका है। इसी संकीर्णता से जीवन का लालित्य, बदलाव के उस कोने तक आ गया है, जहां वह बलात खुशियां बटोर कर अपने खुशहाल होने की गलतफहमियों में उलझ गया है। हमारी संस्कृति भी इसी उदासीनता से प्रभावित हुई है तथा एक ऐसा भाव सांस्कृतिक जीवन में आता जा रहा है, जो शून्यता की ओर ले जाता है।

मनुष्य के रूप में सामाजिक सरोकार खास प्रतिबद्धताओं का स्मरण तो दिलाते हैं, पर समाज रचना के काम में वह अपनी भूमिका को हेर-फेर के साथ स्वीकार करता है। वह किसी मौलिक विचार पर अपनी ऐसी कोई सहमति नहीं देना चाहता, जिससे उसका व्यक्तिगत जीवन किसी भी तरह प्रभावित होता हो। तब कलाकार जीवन तथा जीवन की कला परस्पर विरोधी स्वरूप के साथ कदमताल करती दिखाई देती है। सांस्कृतिक जीवन मूल्यों में परिवर्तन की आंधी ने जहां मानवता और बंधुत्व के भावों को चरमराया है, वहीं उसकी संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ किया है।

हम क्या थे? यह जानने के लिए व्यस्त जीवन में क्षणिक फुर्सत नहीं है। इच्छाओं के असीम जंगल में हजारों नागफनी उग आई हैं तथा उनकी चुभन हर ओर से लगने लगी है, तब हम सांस्कृतिक उन्नयन का पारंपरिक स्रोत कैसे बनाए रख सकते हैं। परंपरा और वर्तमान का टकराव इस तेजी से हुआ है कि हमारी सद्भावनाएं चूर-चूर हो गई हैं। संवेदनशून्यता ने इसके लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा है। ऐसे में कैसे नैतिक आदर्शों की वापसी की बात सोची जा सकती है।

हुआ यह है कि स्वयं मनुष्य यंत्र बन गया है। राजकीय प्रयास ने मनुष्य की मांगलिकता का सपना तो बोया, लेकिन इस आत्म-अवलोकन का अवसर उसे भी नहीं मिला। ये सपने अंकुरित क्यों नहीं हुए? बिजली, सड़क, नहर, पुल, बांध और मशीनीकरण की बड़ी परियोजनाओं ने एक ऐसा मार्ग भी खोला, जो भ्रष्टाचार के लिए था तथा उसकी छूत सामाजिक सरोकारों की मनुष्य की प्रतिबद्धताओं को विचलित करने वाली थी। ऐसे में एक ऐसा अंधड़ चलता है, जब सब कुछ उजड़ने लगता है और भले-बुरे का भेद मिटाकर क्षुद्र स्वार्थों की लार टपकने लगती है।

हमारी मान्यताएं, मर्यादाएं और परंपराएं तब कर भी क्या सकती थीं? बस, हम ही तो बुला रहे थे उन्हें, वरना यह तो सभी को पता है कि हमने उनके बल पर क्या क्या अर्जित नहीं किया था? सिरमौर बनकर हमने आर्य होने का गौरव लिया, जिनमें अपनी आन की खातिर मिटने तथा पर हित में न्योछावर हो जाने की संवेदना थी। बस तब हम इस भौतिक संस्कृति के दावानल से कोसों दूर थे तथा एक हरा-भरा सद्भावना उत्सव अनवरत सांस्कृतिक जीवन में चलता रहता था। निष्ठा, लगन और श्रम के सहारे जनकल्याण की व्यापक भावना समा गई थी सभी दिलों में।

भय नहीं था किसी भी तरह का और सभ्यताएं ऐसे आनंद कुंज में सांस ले रही थीं, जो संस्कृति का भी विश्राम स्थल था। मगर समय के थपेड़ों ने पुराने वातायन तोड़ डाले तथा भीतर समाने लगे लू के गर्म थपेड़े। तब कैसे बच पाता हमारा वसंत।

साम्राज्यवादियों तथा सत्तालोलुपों ने मनुष्य के इसी स्वाभाविक वसंत को नष्ट किया। एक ऐसा भाव थोपा जो भयावह है। आजादी के बाद से ही हमने ऐसी सांस ली, जो हमारे सांस्कृतिक वैभव को चौपट करने लगी तथा जीवन शैली सर्वथा नवीन स्वरूप में हमसे रूबरू होने लगी। किसी ने बढ़कर भी उसे नहीं रोका, क्योंकि तब मनुष्य की भूख का पारावार नहीं रहा तथा वह पशुओं की तरह चरने लगा। उसने यह नहीं देखा कि वह क्या खा रहा है। इस अवमूल्यन में वे सांस्कृतिक जीवन की संवेदनाएं भी खा गया, जो पल्लवित होनी थी।

आज हम ऐसे मुहाने पर खड़े हैं जो किसी भी क्षण ढह जाएगा और हम सब के सब किसी अंधेरी गुफा में दब जाएंगे। दब जाने के बाद उठना कठिन होता है। यही समय फिर जीवन के वसंत के रंग भरने का है। हो सके तो हमें अपने प्रयत्नों में तेजी लाकर, उस सांस्कृतिक उत्थान की ओर सचेष्ट होना चाहिए, जो नितांत हमारा भारतीय था। यह कहना नहीं चाहिए कि हमने अफरा-तफरी में क्या गंवाया है।

यह तो याद भी है कि कलात्मक सौंदर्य जीवन की जड़ है, अगर यही सूख गई तो फूल और फल नहीं मिल पाएंगे। इसी संत्रास को आग दिखाते रहने से हमारा पारंपरिक वैभव कोई मार्ग बना पाएगा। ये हमें उस विपन्नता की ओर ले गया है, जिससे वैचारिक दरिद्रता पनपती है तथा विचार की ऊंचाई धूल चाटती दिखाई देती है। तब कैसे नहीं होना चाहिए हमारी सांस्कृतिक चेतना का शंखनाद।