रेखा शाह आरबी
मनुष्य का जीवन पग-पग पर लक्ष्यों और चुनौतियों से भरा हुआ है। हम चाहे या न चाहें, जीवनपर्यंत कुछ चुनौतियां हम सभी के सामने कभी लक्ष्य के रूप में, कभी कर्तव्य के रूप में तो कभी फर्ज के रूप में खड़ी ही रहती हैं। उन्हें अगर हम नहीं पूरा कर पाते हैं तो हमारा जीवन सहज नहीं रह जाता है। शिशु अवस्था से लेकर वृद्धावस्था तक एक न एक चुनौती और लक्ष्य हम सभी के साथ चलते ही रहते हैं।
मनुष्य का जीवन इच्छाओं और अपेक्षाओं की दोधारी तलवार पर सदैव चलता रहता है। बचपन में एक शिशु की चुनौती होती है कि वह अपने परिवार और आसपास के सभी शिशुओं के समान अपने पैरों पर खड़ा होकर चल सके और शिशु अपने इस लक्ष्य को पाने के लिए अपना साहस दिखाता है। बार-बार गिरता है, लेकिन खड़े होने की जिद नहीं छोड़ता है। कई बार उसके घुटने छिल जाते हैं, वह दर्द से बिलबिला उठता है। उस न बोल सकने वाले उम्र में भी शिशु को पता रहता है कि खड़े होने के लक्ष्य को पूरा करने में बार-बार गिर सकता हूं, घुटना भी छिल सकता है, चोट भी लग सकती है। लेकिन वह हार नहीं मानता।
यह साहस ही रहता है कि वह खड़ा होने का प्रयास नहीं छोड़ता है। शिशु छोटा है, लेकिन उसका लक्ष्य के प्रति समर्पण इस कदर रहता है कि वह अपना सर्वोच्च दांव पर लगा देता है। एक छोटे शिशु का सब कुछ उसका शरीर ही होता है। अभी वह बहुत कुछ नहीं जानता और समझता है, लेकिन फिर भी वह अपने को खड़ा करने की कोशिश करता है और आखिर उसे सफलता मिल जाती है।
उसे इसलिए सफलता मिलती है कि वह अपने लक्ष्य को लेकर पूरी तरह समर्पित था। उसने अपनी सभी इंद्रियों को इसी कार्य की ओर लगा रखा था। जब हम बड़े हो जाते हैं तो हमारे सामने अलग-अलग चुनौतियां डटकर खड़ी रहती हैं। लक्ष्यहीन जीवन किसे अच्छा लगेगा?
मनुष्य जीवन में कोई न कोई चुनौती तो हमारे सामने हमेशा ही रहेगी। उनको हल करने का सबसे सही तरीका हम अपने शिशु अवस्था के उदाहरण को देखकर सीख सकते हैं। अगर हम यह सोचते हैं कि हमारे लक्ष्य की पूर्ति के लिए कोई दूसरा हमारे हिस्से की मेहनत करेगा और चुनौतियों का सामना करेगा तो हमारे हिस्से कभी भी पूर्ण सफलता नहीं आ सकती है, क्योंकि जितना हम अपनी चुनौतियों को अच्छे से हल कर सकते हैं, दूसरा व्यक्ति कभी भी उसके लिए उत्सुक नहीं रहेगा। दरअसल, मनुष्य मन बिना स्वार्थ सिद्धि के कोई भी कार्य पूरे समर्पण के साथ नहीं करता है।
अक्सर मनुष्य का चरित्र इतना प्रबल नहीं पाया जाता कि वह अपनी लगातार विफलता के बावजूद किसी कार्य को लगातार करता रहे। अक्सर वह अपने धैर्य को खो बैठता है, लक्ष्य से भटक जाता है और लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग त्याग देता है। कभी भी ऐसे मनुष्य को अपने लक्ष्य प्राप्ति में कामयाबी नहीं मिलती है।
अगर हम किसी सांसारिक वस्तु के लिए संघर्ष कर रहे हैं और हमने उसको अपना लक्ष्य बना लिया है तो हमें अपना संपूर्ण उस कार्य को देना पड़ता है। किसी भी कार्य को आधे-अधूरे मन से नहीं पूरा किया जा सकता है। कार्य पूर्ति के लिए दृढ़ संकल्प की जरूरत होती है। सच यह है कि दृढ़ संकल्प एक महान शक्ति होती है और यह मनुष्य की प्रेरणा और लगन से उत्पन्न होती है और इसी के बल पर मनुष्य अपनी प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है। अगर एक बार हम किसी लक्ष्य को पाने के लिए दृढ़ संकल्प करके अपने कदम को आगे बढ़ा देते हैं तो हम देखते हैं कि धीरे-धीरे उस लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग की बाधा समाप्त होने लगती है।
इसके लिए धैर्य चाहिए। सिर्फ इतना कहना काफी नहीं होता कि ‘मैं यह कार्य करना चाहता हूं’। बहुत से लोगों को हमने यह कहते सुना होगा कि ‘मेरी एक इच्छा है… मैं यह कार्य करना चाहता हूं’ या ‘ऐसा हो जाए’। मगर ऐसा सोचने मात्र से कुछ भी नहीं होता। उसके लिए लगातार कोशिश और मेहनत करनी पड़ती है। जब हम अपने लक्ष्य के प्रति रचनात्मक और मौलिकता के साथ अपनी सभी इंद्रियों को एकाग्र करके किसी एक बिंदु की ओर अग्रेषित करते हैं, तभी हमें उसका सही हासिल संभव हो पाता है।
जब हम एक बार अपने मन को दृढ़ संकल्पित कर लेते हैं तो भय, संदेह, उदासीनता और दुष्ट इच्छाएं, जो हमारे लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग को अवरुद्ध करना चाहती हैं, वे धीरे-धीरे खुद ही समाप्त होने लगती हैं। हमारे व्यवहार और विचारों में एक नवजीवन का संचार होने लगता है। हम अपने आप को एक नई ऊर्जा से भरा हुआ पाते हैं। कर्म और विचार में सही समन्वय स्थापित हो जाता है और एक अस्त-व्यस्त जीवन जीने वाला मनुष्य भी एक नियम और क्रमबद्ध जीवन बिताने लगता है। इसके बाद मनुष्य कर्मठ बनने लगता है। यह सब होता है हमारे लक्ष्य के प्रति समर्पण और समर्पित होने से।