अलका ‘सोनी’
कहा जाता है कि किसी हादसे का सबक यह होना चाहिए कि उससे बचने के रास्ते निकाले जाएं। लेकिन कई बार कुछ लोग अपनी फितरत की वजह से ठोकर खाए बिना सुधरते नहीं। यह धारणा शायद किसी दौर में सच भी हुआ करती होगी कि जब ठोकरों से ही इंसान सुधरता होगा। हालांकि इंसान होने के नाते यह उम्मीद की जाती है कि वह अपनी समझ से गलतियों की पहचान करके उससे बचने की कोशिश करे।
लेकिन आज के दौर की सच्चाई यह है कि हम यानी इंसान ऐसे जीव हो चुके हैं जो कई बार ठोकर खाने के बाद भी सुधरने का नाम नहीं लेते हैं। ठोकर हमें थोड़ी देरी के लिए बाधित करती है, लेकिन उसका जख्म भरते ही हमारी चाल फिर बदल जाती है। इसका उदाहरण देखने के लिए ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। दो-तीन साल पहले के समय को पलट कर देखा जाए तो आसपास की बातें ही सबको याद होंगी।
उस समय चकाचौंध से भरे ऊंचे-ऊंचे व्यावसायिक परिसर या माल, रेस्तरां और सिनेमाघरों में चहलकदमी करती जिंदगी अचानक थम-सी गई थी। घरों में कैद रहते हुए मन-मस्तिष्क आकुल-व्याकुल हो गया था। लगने लगा था कि कब हम अपने पांव घर से बाहर निकाल पाएंगे। लंबे समय तक इस चकाचौंध से दूर रहते हुए जब हमें घर से बाहर निकलने का मौका मिला, तब हममें से आमतौर पर सभी ने अपने आसपास की नदियों, पहाड़ों और इसी तरह की प्राकृतिक रमणीय जगहों की सैर की थी। इसका एक कारण माल जैसे व्यावसायिक परिसर और सिनेमाघरों का तब बंद हो जाना भी था।
प्रकृति की गोद में खुली आंखों से उस समय हमने कल-कल करती नदियां देखीं, पहाड़ देखे और पानी से लबालब बांध भी देखे। आसपास की स्वच्छ हवा में दम भरकर आक्सीजन लिया। यह सब हममें से बहुतों के लिए एक अलग तरह का अनुभव था, क्योंकि इसके पहले हमारे पास इनके सान्निध्य में जाने की फुर्सत नहीं थी।
उस कठिन समय में ज्यादातर लोगों के मन में यह प्रार्थना भी आई होगी कि ईश्वर सब कुछ ऐसे ही अच्छा बनाए रखें। यह प्राकृतिक सुंदरता हमेशा बनी रहे। कृत्रिमता हमारे ऊपर हावी न होने पाए। लेकिन जैसे ही जिंदगी अपने पुराने ढर्रे पर लौटी। हम वापस उसी चकाचौंध में खो गए। नदियों, झरने, पहाड़ों और बांध के वे सारे दृश्य आंखों से छूटते चले गए। फिर से वही प्रदूषित हवा मिलने लगी सांसों के लिए।
हाल ही में एक बांध के सावन में भी सिकुड़े रहने की खबर आई थी, जिसमें एक वर्ष पहले गर्मी के मौसम में भी पानी भरा रहता था। नाव की सवारी के लिए रखी हुई सभी नावें किनारे बंधी मायूस खड़ी थीं। बांध का जलस्तर काफी नीचे जा चुका था। जबकि हर वर्ष सावन आते ही वह लबालब पानी से भर जाता था। इतना पानी रहता था कि उससे पानी छोड़ने का दृश्य देखने जाना भी एक रोमांचक अनुभव होता था सबके लिए।
लेकिन आज हालात बदल गए हैं। न बांध में उस स्तर का पानी रहा और न उसे छोड़े जाने के उस रोमांचकारी अनुभव की उम्मीद दिख रही है। बेशक इसमें बांध की कोई गलती नहीं है। गलती इसमें नदी की भी नहीं है। फिर सवाल है कि किसकी गलती है कि नदियां सूख रही हैं! क्यों बांध सिकुड़ते जा रहे हैं? क्या यह इंसानों की गलती है? ऐसा लगता है कि इंसानों की प्रकृति ही ऐसी है कि वह ठोकर खाकर भी शायद नहीं सुधर सकता।
रात के अंधेरे में जब नदी की रेत से लदे ट्रकों के सड़क से गुजरने की आवाज सुनी जाए तब मन दहल जा सकता है कि जाने किस दिन यह सुनने को मिल जाए कि अब हमारे लिए पानी की आपूर्ति बंद होने जा रही है। सामान्य दिनों में अब नदी परती हो चुकी है और बांध भी रीत गए दिखते हैं। ये वही नदी और बांध हैं, जो बरसात के दिनों में अब तबाही का जरिया बनने लगे हैं।
ऐसा ही हाल पेड़ों का भी है। आज जाने किन-किन कारणों से पेड़ों को बेहिचक काटा जा रहा है। कभी सड़कों को चौड़ा बनाने तो कभी सौंदर्यीकरण के नाम पर पेड़ों की जड़ों को कमजोर करने की कोशिश की जाती है। कई बार उनकी जड़ों के पास से मिट्टी हटा दी जाती है। नतीजा यह है कि आज पेड़ इतने कमजोर हो चुके हैं कि तेज हवा का हल्का-सा थपेड़ा बड़े-बड़े वृक्षों को धराशायी कर देता है।
वृक्षारोपण के नाम पर क्या हो रहा है, यह पता भी नहीं चल पाता। लेकिन आंधी-तूफान या बाढ़ के तेज बहाव के बाद हरे-भरे पेड़ों की कतारें जरूर गिरी हुई दिख जाती हैं। कुदरत हमें बार-बार मौका देती है संभलने का, सब कुछ ठीक करने का। लेकिन हम कई बार ठोकर खाने के बाद चैन से सो जाते हैं, अगली ठोकर की पुनरावृत्ति होने तक!