अनिल त्रिवेदी

विचार और प्रचार दोनों के बीच अंतर्संबंधों पर जब हम सोचते-विचारते है तो यह सूत्र मिलता है कि विचार ही प्रचार का जन्मदाता है। विचार मूलत: चिंतन प्रक्रिया का मूल या बीज ही माना जाएगा। अगर विचार न हो तो चिंतन, मनन, लेखन और सृजन या विध्वंस कुछ भी उत्पन्न हो ही नहीं सकता। विचार अस्तित्व है तो शून्य अस्तित्व का अभाव है। अस्तित्व साकार या सगुण है, तो शून्य निराकार निर्गुण है। रेखागणित में बिंदु की जो परिभाषा मानी गई है कि जिसमें न तो लंबाई हो और न चौड़ाई, उसे बिंदु माना गया है। यानी एक तरह से बिंदु काल्पनिक है, क्योंकि बिंदु की रेखागणितीय परिभाषा में कल्पना की गई है कि जिसमें लंबाई और चौड़ाई न हो, वह बिंदु है।

इस मान्यता पर ही समूची रेखागणितीय अवधारणाएं अस्तित्व में आईं और मस्तिष्क में निराकार विचार-विमर्श या चिंतन परंपरा का उदय हुआ या इसे यों भी कहा जा सकता है कि मान कर सोचने-विचारने का एक विचार जन्मा। विचार कुछ भी, कहीं भी, कैसे भी अचानक और सोचने-समझने तथा समझाने के दौरान, चलते-फिरते, काम करते या शांत भाव से बैठे-ठाले भी आ सकता है। विचार बातचीत या मिलने-जुलने पर भी आ सकते हैं। कई बार बहुत सोचने पर भी विचार नहीं आते या आते हैं तो उनमें कोई सार नहीं होता। फिर भी मन-मस्तिष्क में विचार की अंतहीन हलचलों का सिलसिला जारी रहता है।

विचारों को अपने आप तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए

विचार यात्रा में मनुष्य को यह विचार आया कि विचारों को अपने आप तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए विचारों को फैलाना चाहिए, इसी क्रम में प्रचार के विचार का जन्म हुआ। इस तरह हम मान सकते हैं कि प्रचार भी विचार का किसी निश्चित हेतु की दृष्टि से किया गया विस्तार ही है। विचार को प्रचारित करने के विचार ने मनुष्य समाज की चिंतन प्रक्रिया को ही बदल डाला है और आज के कालखंड में प्रचार को लेकर नए-नए प्रयोग करने का एक शास्त्र या मनुष्य के मन-मस्तिष्क को प्रचार तंत्र के माध्यम से अपने अधीन करने का प्रचार साम्राज्य तो स्थापित हो चुका है। आज सूचना प्रौद्योगिकी के काल खंड में मानव समाज में मौलिक विचार प्रक्रिया पर निर्भरता क्षीण होते जाने के साथ-साथ प्रचार की अंतहीन भूख बढ़ती ही जा रही है। यह सिलसिला सुनामी की तरह मनुष्य की विचार प्रक्रिया को कुंद कर रहा है।

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प्रचार के कृत्रिम साम्राज्य के अधीन मानव सभ्यता और समाज के सोच विचार और आपसी व्यवहार में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बदलाव आते दिखाई देते हैं। विचार मनुष्य की प्राकृतिक शक्ति है, पर प्रचार के लिए अप्राकृतिक संसाधन और आर्थिक, राजनीतिक, व्यापारिक और तकनीकी संस्थानों की शक्तियों का सहयोग और एजंडा चाहिए। अकेला मनुष्य अपने बलबूते विचार कर सकता है, पर प्रचार अकेले बिना संसाधनों के संभव नहीं है। आज की दुनिया को यह लगने लगा है कि बिना प्राकृतिक विचारों के भी हम जी सकते हैं, पर बिना प्रचार के हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं। हमारी व्यक्तिगत और सामाजिक, राजनीतिक, व्यापारिक, धार्मिक और आध्यात्मिक या निजी और सार्वजनिक गतिविधियों को बिना प्रचार के सफलता के साथ संपन्न करना संभव नहीं है। यह चिंतन प्रक्रिया तेजी से फैलती हुई दिखाई पड़ती है और आधुनिक काल के मनुष्य अपनी वैचारिक तेजस्विता के बजाय आभासी प्रचार तंत्र को आसान जीवन का पर्याय मानने की दिशा पकड़ते दृष्टिगत हो रहे हैं।

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आज के कालखंड में प्राकृतिक जीवन शृंखला के बजाय आभासी अप्राकृतिक संसाधनों की बाढ़ मानव बसाहटों में मानव सभ्यता का आवश्यक हिस्सा बनती जा रही है। विचार-विमर्श सहित लेखन चिंतन और सृजनात्मक शक्तियों जैसे प्राकृतिक मानवीय गुण अब अप्राकृतिक संसाधनों या शक्तियों के विशेष अधिकार सामान्यत: बनते जा रहे हैं। हमारा समूचा मानव जीवन अप्राकृतिक विस्तार पर निर्भर होता जा रहा है। राज्य, समाज और बाजार तीनों मनुष्यों को सृजनात्मक शक्ति का वाहक बना कर चैतन्य नागरिकों का समाज खड़ा करने की दिशा में बढ़ने के बजाय यंत्र आधारित अप्राकृतिक प्रज्ञा आधारित मनुष्य सभ्यता की दिशा में बढ़ते हुए मानवीय सभ्यता की विविधता को विलुप्त करने की दिशा में अग्रसर होने को ही विकसित सभ्यता का पर्याय बनने की दिशा में लगातार बढ़ रहे हैं।

मानव मस्तिष्क में प्राकृतिक विचार और व्यवहार क्षीण होकर अप्राकृतिक यंत्रों से चलने वाली दुनिया में मनुष्य यंत्रवत अप्राकृतिक संसाधनों के भरोसे जीने लगा है। मनुष्य जीवन को प्रकृति प्रदत्त वाणी, ज्ञानेंद्रियों और विचार-विमर्श से ओतप्रोत चैतन्य नागरिक बनने के बजाय अप्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित राज्य, समाज और बाजार का अदना उपभोक्ता बनता जा रहा है। आधुनिक दुनिया को अप्राकृतिक संसाधनों का अजायबघर जैसा बना रहा है।
इस तरह जीवंत प्राकृतिक दुनिया को अप्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित, जीवनी शक्ति विहीन उपभोक्ताओं का जीवन मानो एक कठपुतली के खेल में बदल रहा है।

आज मानव समाज विचार की नैसर्गिक और जीवंत दिशा को त्याग कर एक पूर्व निर्धारित योजना के तहत चलने वाले प्रचार साम्राज्य की आधुनिक दुनिया में मानव जीवन को बदलने की निरंतर कोशिश कर रहा है। विचारहीनता और विचार शून्यता एक तरह से मनुष्य की वैचारिकी के दो परस्पर विरोधी ध्रुव की तरह ही है। विचार प्राकृतिक स्वरूप में ओस की बूंद की तरह ही मन-मस्तिष्क में आता है और सूर्योदय के बाद धूप की प्रखरता बढ़ने के साथ ही अपने आप अदृश्य हो सृष्टि में समाहित हो जाता है, वैसे ही विचार का प्राकृतिक स्वरूप असंख्य मस्तिष्कों में समाहित होते ही अपने मूल स्वरूप स्वभाव और प्राकृतिक स्वरूप को ओस की बूंद की तरह ही सृष्टि में समाहित कर लेता है।