सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

कहते हैं जिंदगी दो दिन का तराना है। आज आना और कल जाना है। इतने छोटे-से जीवन पर कैसा अहंकार? हमें नहीं पता कि जन्म से पूर्व हम क्या थे और मरने के बाद कहां जाएंगे! हमारे हिस्से में जो बचा है, वह आज है। क्यों न इस आज को जिंदादिली के साथ जीएं, हंसे-हंसाए और मुस्कुराएं। यहां सब अपने हैं, कोई पराया नहीं है।

सच्चे दिल से देखा जाए तो कोई इंसान बुरा नहीं है। कभी-कभी दुख का ग्रहण इतना गहरा जाता है कि हमारे अपने भी दुखदायी लगने लगते हैं। दूसरी ओर, जब सुख की पूर्णिमा छा जाती है तो पराये भी अपने लगने लगते हैं। यही सब लोग हमारी जिंदगी के असली रंग हैं। इनके बिना जीवन फीका-फीका लगता है। देखा जाए तो किसकी जिंदगी में दुख नहीं है! सच यह है कि सुख और दुख का अभिन्न साथ होता है।

इसीलिए अपनों के संग जीने के रंग का जो आनंद है, वह कहीं और नहीं है। यही वे पल होते हैं जो हमारे अकेलेपन में गुदगुदी का अहसास देते हैं। ऐसा न हो कि हम मृत्युशैया पर लेटे रहें और अतीत में जीवनोत्सव न मनाने की कसक चुभती रहे। जीने को तो कीड़े-मकोड़े भी जी लेते हैं। मगर वह भी कोई जीना है? असली सुख एक पल में सारी जिंदगी को जी लेने में है। अंत समय में हमारे पास कुछ रहे न रहे, खुशी के ये रंग जरूर रहेंगे। जिंदगी की होली में खुशियों के रंग बहुत कम लोगों को नसीब होते हैं।

इंद्रधनुषी रंगों से भरे पल हमारी जिंदगी की खूबसूरती बढ़ाने के साथ-साथ हममें नई ऊर्जा भरते हैं। हर रंग हमसे कुछ कहना चाहते हैं। हमसे बतियाना चाहते हैं। हमें गले लगाना चाहते हैं। जिंदगी के भीतर सफेद रंग अपनी चादर बिछा दे तो चारों ओर सुख-चैन फैल जाता है। न किसी से दुश्मनी, न किसी से झगड़ा। चेहरे पर लाल रंग की लालिमा एक तरह की ऊर्जा भर देती है।

सब कुछ गजब लगने लगता है। खुद पर भरोसा करने लगते हैं। उसी भरोसे के सहारे दूसरों के दिल जीतने लगते हैं। संभावनाओं की हरियाली बढ़ जाती है। यही हरियाली हमारी जिंदगी में फैले दुखों के रेगिस्तान में खुशहाली बनकर आती है। यहीं से पैदा होता है हल्दी के शुद्ध पीलेपन-सी अच्छाई और भलाई करने का गुण। अच्छाई का पीलापन जैसे-जैसे एक से दूसरे हाथ फैलता है तो बुराई की सोच खुद-ब-खुद मिट जाती है।

कोई रंग अच्छा या बुरा नहीं होता। आदमी की सोच बुरी हो सकती है। रंगों को धर्म, जात-पात के नाम पर बांटना बेवकूफी है। रंग में इंसान को नहीं, इंसान के रंग को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। धर्म के ठेकेदारों के पास तो सबके जवाब होते हैं। क्या वे बता सकते हैं कि अगर खून का रंग लाल है तो पीड़ा का रंग क्या है? कागज पर लिखे काले रंग का मन में कौन-सा रंग बनता है, यह बताना मुश्किल है।

इसका अनुभव करना तो और मुश्किल है। इसलिए हरे या केसरिया रंग को किसी मजहब से जोड़ना बेमानी है। इस विभाजन को खत्म करना जरूरी है। दुनिया के सभी लोग फसलों में हरियाली, चूल्हे की आग में केसरिया रंग देखते हैं। अनाजों में सफेद-पीला और न जाने क्या-क्या रंग देखते हैं, जो भी देखते हैं उसमें अपनी जिंदगी देखते हैं।

अक्सर लोगों को कहते सुना है कि उन्हें फलां दिन बहुत प्रिय थे और वे उसे फिर से जीना चाहते है। जबकि कुछ लोगों के साथ कभी ऐसा नहीं लगा, वे गुजरे किसी भी समय को नहीं जीना चाहते। उन्हें नहीं लगता कि जीवन में समस्याओं की कमी है। समस्याएं तब थीं और अब भी हैं। सबकी अपनी-अपनी समस्याएं होती हैं और वे उतनी ही जटिल लगती हैं, जितनी कि आज हैं।

बस आज हम दूर खड़े होकर देख रहे हैं, इसलिए वे छोटी लग रही हैं। अगर हम यही कला सीख लें तो कोई भी दुख हमें उतना प्रभावित नहीं कर पाएगा, जितना आज कर देता है। जीवन के सारे रंग सुख-दुख में बंटे हुए हैं। यही रंग जीवन के हर पड़ाव पर हमें वेश बदल-बदल कर मिलते है और हमें हर बार लगता है कि ऐसा तो पहली बार हुआ है। जबकि पूरा वही चक्र जीवन भर स्वयं को दोहराता रहता है। इसलिए जिंदगी को जिंदादिली के साथ जीने का प्रयास करना चाहिए। उसके तराने को समझने, गुनगुनाने और मजा लेने का जिगरा रखना चाहिए।

हम इस भुलावे में कभी न रहें कि रंगों का अपना कोई अस्तित्व होता है। इस दुनिया में किसी भी चीज में रंग नहीं है। हमारे पंचतत्त्व पानी, हवा, गगन, धरती और आग सभी रंगहीन हैं। यहां तक कि जिन चीजों को हम देखते हैं, वे भी रंगहीन हैं। रंग केवल प्रकाश में होता है। वह प्रकाश कुछ और नहीं हमारी खुशी, आशा, भाईचारा, प्रेम, सौहार्द, एकता तथा विश्व बंधुत्व की भावना है।

इस प्रकाश से सराबोर रंग का असली अस्तित्व अपने पास रखने में नहीं, बल्कि दूसरों पर लुटाने से है। इसीलिए जिंदगी की होली में खुशियों के रंग लगाना है तो पहले अपनी सोच बदलनी होगी। सबकी खुशी में अपनी खुशी और सबके दुख में अपना दुख देखने वाला ही सच्चा इंसान है। सबको अपना बनाने और अपने को सबका बनाने में जो खुशी है, वह दुनिया में कहीं नहीं मिल सकती। इसीलिए कबीर ने कहा था- ‘लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल। लाली देखन मैं गई खुद भी हो गई लाल।’