यह एक सामान्य तथ्य है कि बच्चे देश और दुनिया की संभावना हैं। भविष्य में चंद्रमा की तरह चमक बिखेरने वाले बचपन को पल्लवित करने की हसरत मनुष्य में प्रारंभ से ही रही है। बचपन सोच-विचार और कल्पना की दीवार पार कर बच्चों के हुनर को जानने और समझने का अवसर है। यह भावुकता, संवेदनशीलता और कल्पनाशीलता का सुखद गुलदस्ता है। बच्चों का मन मोह लेने वाला मंजर गढ़ना मुश्किल काम है, क्योंकि उनके मनोविज्ञान को समझना हर समय एक चुनौती रहती है और यह आसान नहीं है। बच्चों को सोचने-विचारने और सुनने का अवसर घर से अधिक विद्यालय में मिलता है।

विद्यालय में पढ़ने के साथ-साथ खेलने-कूदने, मस्ती करने, एक दूसरे पर शब्दों के बाण चलाने से बच्चों को आनंद तो मिलता ही है, उन्हें प्रशिक्षण भी मिलता है। यह जरूरी है कि बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास साथ-साथ होता रहे। एक समय बच्चों को ज्ञान देने के साथ-साथ विज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान जंगलों में बने गुरुकुल में गुरु दिया करते थे। गुरुकुल का स्थान आज के दौर में जब विद्यालयों ने ले लिया तो वहां मौजूद खेल का मैदान सबसे बड़ा मानसिक संतुलन बनाने की जगह है।

याद रखने की जरूरत है कि ओलंपिक खेलों तक पहुंचने वाले खिलाड़ियों की भी शुरुआत कभी प्राथमिक स्कूलों के छोटे या बड़े खेल के मैदान से ही हुई होती है। कुछ समय पहले केरल में खेल के मैदानों को लेकर एक नई शुरुआत हुई है। वहां के माननीय उच्च न्यायालय ने बच्चों की मानसिकता को देखते हुए एक बेहद अहम निर्णय सुनाया कि अगर किसी विद्यालय के पास खेल का मैदान नहीं है तो उसकी मान्यता रोक देनी चाहिए।

दरअसल, इस फैसले से इसका महत्त्व स्थापित होता है कि प्रत्येक स्कूल के साथ खेल मैदान होना जरूरी है। यह बात सही भी है कि शिक्षा को केवल कक्षा तक सीमित रखना उचित नहीं है, बच्चों के भीतर कौशल और कल्पनाशीलता तभी विकसित होगी, जब वह खेल के मैदान में सीखने के वातावरण का हिस्सा बनेंगे।

बच्चों के भविष्य के लिए खेल और खेल जैसी गतिविधियां उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा रही हैं। पर बदलते परिवेश में रट्टा मारने के चलन ने सब कुछ बिगाड़ कर रख दिया। स्कूल के माध्यम से खेल के मैदान बच्चों में जीवन का कौशल आत्मसम्मान के साथ-साथ आत्मविश्वास पैदा करते है। बच्चों में निरंतर बढ़ रहे भय और तनाव, संकोच जैसे मनोविकारों को दूर करने का स्थान खेल के मैदान ही हो सकते हैं। ये मैदान बच्चे और विद्यालय के प्राण हैं।

मगर जमीनी हकीकत यह है कि बड़ी तादाद में स्कूलों में खेल मैदान तो क्या, बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। ऐसे में इस निर्णय का स्वागत करते हुए गंभीरतापूर्वक समीक्षा होनी चाहिए और इसे पूरे देश में लागू करना चाहिए। यहां यह भी महत्त्वपूर्ण है कि यह निर्णय केवल निजी विद्यालयों तक सीमित नहीं है। बच्चे किसी की संपत्ति नहीं हैं। वे देश की संपत्ति हैं, चाहे वे सरकारी स्कूल में पढ़ें या फिर निजी स्कूलों में।

खेल के मैदान और अन्य सुविधाएं दोनों जगह बराबर मिलनी चाहिए। तभी उनके बचपन को बचाया जा सकता है। देश भर में हर जगह उगे निजी विद्यालयों को छोटी-सी इमारत में संचालित कर लिया जाता है। कई जगह सरकारी विद्यालय भी ऐसे दिख जाते हैं। इस पर किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं होता। निजी विद्यालयों पर अंकुश लगाकर उनकी मान्यताओं को रद्द किया जा सकता है, लेकिन नियम बच्चों के भविष्य का है जो सबके लिए एक समान होने चाहिए। बच्चा चाहे कहीं भी शिक्षा ग्रहण करे, उसे आवश्यक सुविधाओं से वंचित नहीं किया जा सकता। अन्यथा स्कूली शिक्षा का उद्देश्य अधूरा रह जा सकता है।

खेल के मैदान की सुविधा सुनिश्चित करना शिक्षा विभाग का नैतिक दायित्व है। अगर स्कूलों में पर्याप्त खेल मैदान नहीं हैं तो उस सरकारी या गैरसरकारी स्कूल में किसी भी तरह यह सुविधा उपलब्ध कराया जाना चाहिए। भले स्कूल के स्थान को बदल दिया जाए। यह उल्लेखनीय है कि शिक्षा पर गठित सभी आयोगों ने कक्षाओं में शिक्षण और सीखने के समांतर खेलकूद और अन्य रचनात्मक गतिविधियों के प्रभावी आयोजन के लिए अनुशंसाएं की हैं।

इतना सब कुछ होते हुए भी आजादी के सात दशक बाद ऐसा निर्णय न्यायालय को लेना पड़ रहा है। यह शासन की नीतिगत कसौटियों और प्राथमिकताओं को एक तरह का आईना है। देश और राज्य की सरकारों को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि किसी भी स्थिति में विद्यालयों में खेल मैदान, पुस्तकालय, प्रयोगशाला और अन्य बुनियादी साधन सुविधाओं के साथ-साथ पाठ्यक्रम निर्धारित होना चाहिए। केवल रट कर याद करने के चलन और इसके परिणाम को देखकर विद्यालयों की गुणवत्ता का निर्णय नहीं किया जा सकता।

ऐसे में ज्यादा अंक तो आ जाएंगे, लेकिन बच्चों का मानसिक संतुलन कैसे सुनिश्चित होगा। इसलिए यह जरूरी है कि स्कूलों में न केवल उचित खेल मैदान और अन्य अपेक्षित भौतिक सुविधाएं हों, बल्कि पूर्णकालिक प्रशिक्षित योग्य शारीरिक शिक्षक भी पदस्थापित हों। हालांकि कई जगहों पर यह व्यवस्था होती है जो बच्चों के भविष्य के लिहाज से बेहतर है।

अध्ययनों में यह सिद्ध हुआ है कि जिन स्कूलों में शारीरिक शिक्षक रहे हैं, वहां अनुशासनहीनता की घटनाएं कम हुई हैं। इसमें अभिभावकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि जिन विद्यालयों में खेल मैदान नहीं हैं, वहां इस सुविधा के लिए वे जागरूकता पैदा करें और सरकार के पास प्रस्ताव भेजें। बच्चों के जीवन और भविष्य से जुड़े इस विषय पर सरकार और समाज को सामूहिक रूप से मंथन करने की जरूरत है।