बीते दिनों त्योहारों के मौके पर अधिकांश घरों में बाजार से खरीदी काजू-कतली के साथ और कई अन्य प्रकार की मिठाइयां और एक अलग डिब्बे में काजू, अखरोट, बादाम अतिथियों के सामने रखा जाना आम रहा। जाहिर है, काफी मान-मनुहार के साथ इन सूखे मेवे या ड्राइ फ्रूट्स को खाने का आग्रह भी किया गया होगा। ऐसा करने वाले अधिकांश परिवारों में निम्न मध्यवर्गीय या मध्यवर्गीय परिवार थे। अमूमन सूखे मेवे रोजमर्रा के दिनों में नहीं खाए जाते हैं। यह भी सही है कि विशेष त्योहारों पर लोग खुशी से तो कभी परंपराओं को देखते हुए कुछ अधिक खर्च करते भी हैं।
अब से कोई तीन दशक पहले किसी त्योहार पर यों सूखे मेवे मेहमानों के सामने नहीं रखे जाते थे। अब ये बाजार की मेहरबानी है कि चाहे मुश्किल से ही, लेकिन सूखे मेवे मेहमानों के सामने रखे ही जाते हैं। बाजार की मिठाइयों में भी एकरूपता ही अधिक देखने को मिलती है। अब बहुत कम घरों में ऐसा मिलता है कि एक-दो मिठाई हाथ की बनी हो। अब हाथ के काम और व्यक्तिगत रुचियां खोती जा रही हैं और एकरूपता बढ़ती जा रही है। इसकी वजह समय का अभाव, रुचि कम होना आदि हो सकती है। दरअसल, बाजार से लाई चीजों में सहूलियत है। पैसे खर्च करें और जो चलन में हो, उसे खरीद लिया जाए। अब ‘बाजार में सब मिलता है, लेकिन सब कहां मिलता है!’
पहले घरों में होली-दिवाली जो गूंजे, सांख, मठरी बनती थीं, वे अब धीरे-धीरे हमारी रसोइयों से गायब होकर बड़े-बड़े मिष्ठान्न भंडारों में पहुंच गईं हैं। पहले जब घर में मिठाइयां बनती थीं, तब त्योहारों से एक-दो दिन पहले घरों से उनकी खुशबू आती रहती थी। अपने हाथ से बनाई मिठाई में गजब का आकर्षण होता था। किफायत भी होती थी। घर भरा-भरा-सा लगता था।
पहले घरों में एक अलग-सी रौनक रहती थी। त्योहारों पर घरों की सफाई और रसोई का सक्रिय हो जाना त्योहारों की दस्तक होती थी। अब रसगुल्ले हैं, काजू-कतली है, मेवे हैं, लेकिन वह खुशबू, वह रौनक गायब है। पहले हर घर में अलग व्यंजन, अलग स्वाद होता था। अब अलग क्या है? सबका एक-सा ही लगता है। एक-सी सजावट, एक-सा व्यंजन। हाथ के काम में जो अपनापन है, आत्मीयता है, वह बाजार की चीजों में भला कैसे हो सकती है?
विविधता जहां हमारे अपने घर का अनूठापन था, वह अब समय और बाजारीकरण के चलते कम से कमतर होता जा रहा है। अब अधिकतर घरों में छोटे-छोटे लट््टुओं की लड़ियां लगती हैं। दीये बहुत कम जलाए जा रहे हैं। सब लड़ी लगा रहे हैं तो हम भी लड़ी लगा रहे हैं। सब मेहमानों के सामने सूखे मेवे रख रहे हैं तो हम भी रख रहे हैं। हाथ के कामों का कम होना रिश्तों में स्नेह का कम होना भी है।
त्योहारों के दौरान कई महिलाओं को गुलाब जामुन या मीठी मठरी बनाने के बाद बची हुई चाशनी से मीठी चीले बनाते देखा जा सकता है। चादर फट जाने पर उसके किनारों को जोड़कर मेजपोश, थैले या पायदान बनाते देख सकते हैं। यों काम में ले लेने के बाद भी किसी चीज का अन्य किसी प्रकार से उपयोग करना वस्तुओं का बहुपयोगी और इंसान में मितव्ययी होने का गुण विकसित करता है।
बाजार कहता है कि आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस, पैसे लाएं और जो चाहे, ले जाएं। अब बाजार में हर उत्पाद उपलब्ध है। अब तो होली पर जलाने के लिए गोबर की बिलूकड़ी, गोबर के कंडे ‘काउ डंग केक’ के नाम से और चूल्हे की राख ‘एश’ के नाम से आनलाइन बिक रही है। एक बार एक संस्था में हाथ से किए जाने वाले काम के महत्त्व को तवज्जो देने और उस ओर ध्यान दिलाने के लिए लिखा गया था- ‘मैं सिले कपड़े पहनता हूं, मैं धुले और प्रेस किए कपड़े पहनता हूं। मैं बना-बनाया खाना खाता हूं। मैं साफ घर में रहता हूं।’ इस तरह कोई बीस कामों की सूची थी, जिनका जवाब था- यह सब काम नहीं करते तो भाई करते क्या हो? इसका जवाब था कि मैं पैसा कमाता हूं। पैसे से यह सब मिल जाता है।
सही है कि पैसे से बहुत कुछ मिल जाता है, लेकिन जब हम किसी काम को हाथ से न करके सिर्फ खरीदते हैं, तब उस काम को करने से मिलने वाली सीख, काम को करते समय का उत्साह, उसके पूरे हो जाने की खुशी से वंचित रह जाते हैं। बाजार की चीजें सिर्फ हमें उपभोक्ता बना कर छोड़ देती हैं। चीजें आईं और उनके उपयोग के बाद वे खत्म। इन सबका आज हमारे रिश्तों पर भी प्रभाव पड़ रहा है।
आज रिश्ते भी ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ पर आधारित होते जा रहे हैं। हम जिस व्यवहार को बार-बार आदत में लाते हैं, धीरे-धीरे वे हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं। हर व्यक्ति का, हर घर का, हर मोहल्ले का, शहर का अनूठापन उसे खास बनाता है। जब सब शहर लगभग एक जैसे होंगे तो कोई उन्हें क्या देखने जाएगा? हमें अपना स्व देखने की जरूरत है और उसे विकसित करते रहने की जरूरत है। यही हमें अनूठा बनाता है।