मीना बुद्धिराजा

हम जीवन में अधिकतर वही निर्णय करते हैं जो समाज में परंपरा से एक ही लीक पर चलकर सभी करते रहे हैं और जो पहले से सबको ज्ञात हैं। इसलिए समाज की व्यवस्था में सभी मान्यताओं का अनुसरण करते हुए व्यक्ति का अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व शेष नहीं रहता जो उसे निर्धारित और जाने-पहचाने क्षेत्र से बाहर किसी नए विकल्प की खोज के लिए अनुप्रेरित कर सके। लेकिन स्वाधीन व्यक्तित्व के लिए यही शर्त है कि जीवन में भीड़ के पीछे न चलते हुए एक अज्ञात विकल्प का चुनाव करना आवश्यक है, चाहे वह कितना भी मुश्किल हो। उस असंभव से प्रतीत होते रास्ते की चुनौतियों से जूझने और संघर्ष के लिए भी आतंरिक रूप से अकेले होने के लिए तैयार रहना और परिणाम की सफलता-असफलता पर निर्भर न रहने की मानसिक दृढ़ता भी इस स्वाधीन व्यक्तित्व की विशेषता कही जा सकती है।

मनुष्य एक मानवीय इकाई के रूप में पैदा नहीं होता, बल्कि निर्माण होता है

मनुष्य एक मानवीय इकाई के रूप में पैदा नहीं होता, बल्कि उसका निर्माण होता है, जो स्वयं की चेतना द्वारा निर्मित और विकसित होता है। जब वह अपनी उच्चतम संभावना को प्राप्त करना चाहता है तो समाज और उसके दबाव की सारी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं। हम किसी एक विषय, स्थान, व्यवसाय और वस्तु से संबधित क्षेत्र को विशेष और अपने लिए सुविधाजनक मानकर बाकी विकल्पों को अनुपलब्ध कर लेते हैं। अगर समग्र रूप से पूरी प्रकृति और दुनिया को अपना मान लिया जाए तो फिर दृष्टा और अन्वेषण भाव से व्यापकता में उसे देख सकते हैं, न कि सिर्फ उपभोग और संकीर्ण स्वार्थ के लिए उसे अपनी सीमा बनाकर रखने की विवशताओं रहना स्वीकार करना चाहते हैं। जैसे पूरे आकाश का विस्तार सबके लिए उपलब्ध होता है, वैसे ही जब तक पूर्वनिर्धारित धारणा से मुक्त होकर आगे नहीं बढ़ेंगे, तब तक जीवन में प्रतिपल नया और भिन्न अनुभव नहीं देख सकते।

व्यक्तित्व के एक ही ढर्रे को पकड़ कर आंतरिक और बाहरी बदलाव संभव नहीं

अपने व्यक्तित्व के एक ही ढर्रे को पकड़ कर आंतरिक और बाहरी बदलाव संभव नहीं हो सकता, इसलिए गतिशीलता जरूरी है और इसी से स्वाधीन अस्तित्व का आरंभ होता है। जो हम कल थे, वह आज नहीं हो सकते, क्योंकि स्वयं का निर्माण किसी एक ही बिंदु को हम जीवन का केंद्र बना कर नहीं सकते। जैसे एक मूर्ति का निर्माण विशाल पत्थर को बहुत से कोणों से तोड़ कर, उसे तराश कर किया जाता है, जिसमें बहुत कुछ टूटता है, कुछ घटता है, तब उसका आकार उभरता है। किसी इमारत की तरह नहीं जो एक के ऊपर एक बहुत से ईंट-गारे को जोड़कर बनती है। इसी तरह भीड़ से अलग अपने अस्तित्व को तराश कर, तीक्ष्ण करके ही बहुत-सा जो आसपास व्यर्थ में पकड़ रखा है, उसे छोड़कर नई चुनौतियों और संघर्ष के साथ उसे निर्मित किया जा सकता है।

नए विचारों को सोचने और उस पर कार्य करने का साहस रखने वाला सहज होता है

अपनी पूर्ण चेतना, पूर्ण गरिमा और पूर्ण स्वतंत्रता से विकसित होने वाला व्यक्ति ही समाज से एक संतुलित और सहज सबंध बना सकता है, जिसमें नए विचारों को सोचने और उस पर कार्य करने का साहस हो। जब उसकी दूसरों पर निर्भरता मिट जाती है तब उसके पास अपना ऐसा मौलिक और मूल्यवान अर्थ होता है जो बेशर्त और स्वाधीन होता है, जो बाहरी परिस्थितियों के दबावों से भी सर्वथा अछूता रहता है और कभी बदल नहीं सकता।

अपने में जो जितना पूर्ण होता है, वही अनंत संभावनाओं तक पहुंच सकता है, क्योंकि उसके जीवन की बुनियाद गहरी और आंतरिक रूप से सशक्त होती है। उसका अस्तित्व खुले आसमान की तरह उन्मुक्त और विशाल होता है जो किसी नाम, पद, पहचान की परिभाषा का गुलाम नहीं होता और किसी भी संकीर्ण महत्त्वाकांक्षा के प्रभाव से मुक्त होता है। वह उच्चतम बिंदु से सबंध बनाने के लिए आगे बढ़ता है, जिसमें जीवन की बहुत-सी सतही, छोटी चीजें और विषय महत्त्वहीन हो जाते हैं। समाज और भीड़ की मान्यताओं के बहाव के विरुद्ध जो सबसे ऊंचे आदर्श और कार्य होते हैं, वे अकारण होते हैं, जिसके उद्देश्य में किसी तरह के प्रचलित बंधनों का कोई कारण नहीं होता।

इस तरह की स्वाधीनता एक सतत बोध की जीवंत प्रक्रिया होती है, जिसमें विविध अनुभव प्रत्यक्ष घटित होकर उसकी अवधारणा को सार्थक रूप देते हैं। अपनी चरम संभावनाओं को उपलब्धि के शिखर तक विकसित करना ही किसी समूह में एक व्यक्ति की स्वतंत्र पहचान बनती है। परस्पर विरोधी अनुभवों और संघर्षों से उसकी समझ को गहराई मिलती है और वह उसे समाज की स्वाधीनता के लिए भी दायित्व की तरह लेता है, जिसमें सच का सम्मान और उसे सबसे ऊंचे स्थान पर रखने की जिम्मेदारी भी उसकी होती है।

हमारा साधारण होना ज्यादा खतरनाक है, जिसमें भीड़ का अंधानुकरण होता है, जबकि मानवीय चेतना का स्वभाव तो असाधारण और कठिन विकल्पों का चुनाव होना चाहिए। साहस के सौंदर्य और जड़ता के विरुद्ध संघर्ष ही जीवन की वास्तविक उपलब्धियां हैं। दूसरों की दृष्टि से और किसी निर्भरता से नहीं, बल्कि अपने आधार पर जीवन का मूल्यांकन ही स्वयं को पहचान पाना है। नीत्शे का कहना है- ‘जीवन के अनिश्चय ही हमें निर्णायक बनाते हैं, क्योंकि मनुष्य ही कर्ता, भोक्ता और नियंता है। इसलिए नकारने के साथ स्वीकारने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की होगी। निर्णय लेना उस जोखिम की मांग करता है, जिसकी मान्यता समाज नहीं देता और यह चुनाव ही उस मनुष्य के अस्तित्व की स्वाधीनता है।