शिशिर शुक्ला

हम जो कुछ अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए अनुभव करते हैं, वह सब बाह्य जगत का एक भाग है। हमारी समस्त भौतिक आवश्यकताएं इस बाहरी संसार के माध्यम से ही पूरी होती हैं। चूंकि हमारी सामान्य दिनचर्या में हमें जिन चीजों की आवश्यकता पड़ती है, हम उनके लिए पूर्णतया बाह्य जगत पर ही निर्भर हैं, इसलिए बाह्य जगत के साथ हमारा एक गहरा अंतर्संबंध विकसित हो जाता है। लेकिन इस बाह्य जगत के अतिरिक्त एक ऐसा संसार भी है, जो हमारे ही अंदर मौजूद होते हुए भी हमें दिखाई नहीं देता। इस अलौकिक संसार को हम अंतर्जगत कहते हैं। यह पूरी तरह हमारे अंदर ही निहित होता है, लेकिन हमारी भौतिक आंखों के पास वह क्षमता नहीं होती कि वे दिव्यता का दर्शन करने में सक्षम हो सकें।

दो परस्पर विपरीत दिशाओं में एक साथ गति कर पाना संभव नहीं है

हमारी ज्ञानेंद्रियां सामान्य रूप से क्षमता के उस स्तर को स्पर्श नहीं कर पातीं जिस स्तर तक पहुंचकर हम इस दिव्य जगत की अनुभूति कर पाने में समर्थ हो सकते हैं। जहां बाह्य जगत हमारे भौतिक शरीर से बाहर की ओर विस्तृत है, वही अंतर्जगत हमारे शरीर के अंदर विद्यमान है। दूसरे शब्दों में यह कहना उचित होगा कि हमारा भौतिक शरीर बाह्य जगत और अंतर्जगत के बीच एक परिसीमा की भूमिका का निर्वहन करता है। चूंकि बाह्य जगत और अंतर्जगत दोनों का विस्तार परस्पर विपरीत दिशाओं में है, इसलिए दोनों को एक साथ अनुभव कर पाना या समझ पाना सर्वथा संभव है। विज्ञान के नियम के अनुसार दो परस्पर विपरीत दिशाओं में एक साथ गति कर पाना संभव नहीं है।

यही कारण है कि हम आजीवन अपने अंतर्जगत से अपरिचित ही रहते हैं, क्योंकि हमारी यात्रा हमेशा बाह्य जगत की ओर उन्मुख होने के कारण हम यह जानने का प्रयास नहीं कर पाते कि हमारे अंदर क्या है। अगर कभी खुद से कुछ प्रश्न किए जाएं, उदाहरण के लिए, मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं, मेरा आने का प्रयोजन क्या है, उद्देश्यसिद्धि के बाद मैं कहां जाऊंगा, तो इतना निश्चित है कि आमतौर पर हम इन प्रश्नों का उत्तर खोज पाने में असफल रहेंगे। कारण यह है कि इन प्रश्नों का उत्तर हमारे अंतर्जगत में मौजूद है और अंतर्जगत के ज्ञान को लेकर हम बेहद अनजान हैं। इसलिए इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ पाना हमारे लिए असंभव होगा।

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ये प्रश्न नितांत गूढ़ प्रश्न हैं, इनका उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें कुछ समय के लिए बाहरी संसार से विमुख होकर अपने आंतरिक जगत में कदम रखते हुए अपनी गहराइयों में उतरना पड़ेगा। जहां बाहरी संसार व्यापक आयाम तक फैला हुआ है, वहीं आंतरिक संसार नितांत सूक्ष्म आयामों में विद्यमान है।

अंतर्जगत की यही सूक्ष्मता इसे बाह्य जगत से भिन्न कर देती है। सूक्ष्मता के कारण ही आंतरिक जगत ज्ञानेंद्रियों की क्षमताओं से परे हो जाता है। अंतर्जगत की यात्रा ध्यान के माध्यम से की जा सकती है। ध्यान का अर्थ है- मन में शून्य विचारों का होना। मस्तिष्क में विचारों की उत्पत्ति में पूरा-पूरा योगदान बाह्य जगत का होता है और विचारों के उपस्थित रहते हुए ध्यान की अवस्था को प्राप्त नहीं किया जा सकता। कुल मिलाकर, अपने आंतरिक जगत की यात्रा के लिए हमें बाह्य जगत से विमुखता सुनिश्चित करनी होगी। हमारे अंतर्जगत में क्षमताओं एवं संभावनाओं का एक अमूल्य कोष छिपा हुआ है, लेकिन हम अपने संपूर्ण जीवन में बाहरी संसार की आपाधापी के कारण अपने ही अंदर छिपे इस बेशकीमती खजाने को प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करते।

हमारे अंतर्जगत की यात्रा के रथ का सारथी हमारा अंतर्मन होता है। एक बार अगर हमने अपने अंतर्मन को साध लिया, तब फिर हमारे लिए अपने आप को जानना और उन तमाम प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ पाना, जो अपने आप में बड़ी गूढ़ता को समाहित किए हुए थे, एक सरल कार्य हो जाता है। अंतर्मन से सच्ची मित्रता हो जाने पर हमारे सामने सफलताओं के अनेक द्वार खुल जाते हैं। बाहरी जगत की वे समस्याएं एवं चुनौतियां जो हमें किसी पहाड़ के बराबर लगती थीं, अंतर्मन से साक्षात्कार के बाद वे हमें चुटकियों का खेल लगने लगती हैं।

हालांकि यह सब इतना आसान नहीं है। आंतरिक जगत से परिचित होने के लिए हमें बाह्य जगत की ओर अपनी गति को विराम देते हुए विपरीत दिशा में लौटना पड़ सकता है, जो एक दुस्साध्य कार्य है। लेकिन इतना निश्चित है कि जब हम एक बार अपने आंतरिक जगत में प्रवेश कर जाएंगे, तब फिर हमें उसे यात्रा में अद्भुत आनंद की अनुभूति होने लगेगी और उस दशा में हमें पुन: विपरीत दिशा में अर्थात बाहरी जगत की ओर लौटना कभी अच्छा नहीं लगेगा। अंतर्जगत की यात्रा करके हम उन तमाम रहस्यों से परिचित हो सकते हैं, जो प्रश्नों का रूप लेकर आमतौर पर हमारे मस्तिष्क को परेशान करते रहते हैं।

इसके सहारे हम अपने जीवन में बड़े से बड़ा लक्ष्य हासिल कर सकते हैं, क्योंकि अंदर के इस संसार में नकारात्मक विचारों के लिए कोई स्थान नहीं होता है। हमें अपने ऊपर नियंत्रण करते हुए अपने अंतर्जगत में उतरने का प्रयास करना चाहिए। इस यात्रा में आरंभ में कठिनाइयां आ सकती हैं, मगर एक बार यह यात्रा सिद्ध हो जाने पर हम जीवन के तमाम दुखों और कठिनाइयों से काफी हद तक मुक्ति पा सकते हैं। ऐसा होने के उपरांत हम अपने आप ही बाहरी विषयों से दूरी बनाते हुए अपने अंतर्जगत की सुंदरता में खुश रहेंगे और खुशी बांटेंगे।