कभी-कभी जीवन एक अनकहे संघर्ष की भूमि बन जाता है, जहां हम मुस्कुराते हुए दूसरों के दुख को पी जाते हैं और अपनी पीड़ा को मौन की चादर से ढक देते हैं। हम खुद को इस हद तक भुला बैठते हैं कि अपनी पहचान तक धुंधला जाती है। हम एक सामाजिक प्राणी हैं, यह स्वीकार करना जितना सहज है, उतना ही कठिन है उस समाज की अपेक्षाओं के बोझ को ढोते हुए अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखना।

हम अपने रिश्तों में, परिवार में, मित्रों के बीच और यहां तक कि कार्यस्थल पर भी, एक ऐसा चेहरा ओढ़ लेते हैं जो सबको स्वीकार्य हो, भले ही वह चेहरा हमारी आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति न हो। धीरे-धीरे यह मुखौटा इतना अभिन्न हो जाता है कि हम स्वयं भी यह भूल जाते हैं कि उसके पीछे कौन-सी अस्मिता सांस ले रही है।

दूसरों की खुशी के लिए जीना कोई अपराध नहीं है

दूसरों की खुशी के लिए जीना कोई अपराध नहीं है। यह मानवीय करुणा का सर्वोत्तम रूप हो सकता है। पर जब यह आदत बन जाए और वह भी इतनी गहराई से कि हम अपने ‘स्व’ को, अपने ‘मैं’ को ही खो बैठें तो यही करुणा आत्मघात बन जाती है। सदियों से भारतीय संस्कृति त्याग और बलिदान की परंपरा का सम्मान करती आई है। त्याग और आत्म-उपेक्षा में महीन, लेकिन महत्त्वपूर्ण भेद है। त्याग वह है जहां हम पूरी चेतना के साथ अपने मूल्यों के लिए कुछ छोड़ते हैं।

पर आत्म-उपेक्षा वह है, जहां हम दूसरों की अपेक्षाओं में इतने उलझ जाते हैं कि स्वयं की आकांक्षाओं का गला घोंट देते हैं। एक मां जो अपने बच्चों के लिए अपने सपनों को छोड़ देती है, वह त्याग करती है, अगर वह निर्णय स्वतंत्र इच्छा से लिया गया हो। पर वही मां जब सामाजिक दबाव, परंपरा या अपराधबोध से ऐसा करती है, तो वह खुद को खो बैठती है। इसी प्रकार, एक कर्मचारी जो कार्यालय में सबको खुश रखने के लिए अपनी मर्यादाएं तोड़ता है, धीरे-धीरे एक ऐसे मानसिक बोझ से दबता चला जाता है, जहां उसका आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान दोनों ही क्षरित हो जाते हैं।

यहां एक बड़ा भ्रांति बिंदु उभरता है, क्या स्वयं के लिए जीना स्वार्थ है? समाज ने इसे अक्सर ऐसे ही चित्रित किया है। जो व्यक्ति ‘न’ कहने का साहस करता है, वह असहयोगी कहलाता है। जो अपनी प्राथमिकताओं को चुनता है, वह आत्मकेंद्रित समझा जाता है। सच यह है कि जब तक हम स्वयं से प्रेम करना नहीं सीखते, तब तक किसी और से सही मायनों में प्रेम कर भी नहीं सकते। आत्म-प्रेम वह दीपक है जो हमारे भीतर की अंधेरी गलियों को रोशन करता है। यह हमें सिखाता है कि दूसरों की सेवा तभी तक उचित है, जब तक वह सेवा हमारे आत्मसम्मान को निगलने न लगे।

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रिश्ते अगर बराबरी और समझदारी के आधार पर न बनें तो वे धीरे-धीरे एकतरफा समर्पण की मांग करने लगते हैं। मित्रता, प्रेम, दांपत्य या पारिवारिक संबंध, सभी में अगर कोई एक व्यक्ति लगातार समझौते करता रहे, अपनी इच्छाओं का परित्याग करता रहे और हर बार ‘हां’ कहकर दूसरे को सुखी करता रहे, तो यह न केवल उस व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को क्षीण करता है, बल्कि आखिरकार उस रिश्ते को भी खोखला कर देता है।

यह विडंबना ही है कि जिन लोगों के लिए हम स्वयं को खो देते हैं, वही अक्सर हमें हमारी असलियत से नहीं, हमारे उपयोग से जोड़ कर देखते हैं। और जब हमारा उपयोग समाप्त हो जाता है, तो वे लोग हमें भी त्याग देते हैं, तब जाकर हम उस गहरे शून्य में गिरते हैं, जहां न कोई आवाज है, न कोई पहचान।

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खुद को खो देना एक धीमी प्रक्रिया है और खुद को फिर से पाना उससे भी अधिक संघर्षपूर्ण यात्रा। यह कोई अचानक घटित होने वाली घटना नहीं, बल्कि वर्षों तक दूसरों की अपेक्षाओं को ढोते-ढोते आत्मा का थक जाना है। इस यात्रा की शुरुआत होती है आत्ममंथन से- एक ऐसा ठहराव, जब बाहर की आवाजें धुंधली हो जाती हैं और भीतर का मौन तीव्र होने लगता है। तब हम खुद से सवाल पूछते हैं- ‘मैं कौन हूं, जब कोई मुझसे कुछ अपेक्षा न रखे? …क्या मेरी मुस्कान वास्तव में मेरी है या किसी और की संतुष्टि का मुखौटा?’ …सबसे महत्त्वपूर्ण कि ‘क्या मेरे निर्णय मेरे अपने हैं या सामाजिक समीकरणों की परिणति?’

यह आत्मपरीक्षण हमें आत्म-स्वीकृति की ओर ले जाता है, जहां हम अपनी कमजोरियों को गले लगाना सीखते हैं, अपनी सीमाओं को मान्यता देते हैं और यह समझते हैं कि हर बार ‘हां’ कहना परिपक्वता नहीं, बल्कि कभी-कभी आत्मविस्मृति हो सकती है। ‘न’ कह पाने का साहस ही आत्म-संरक्षण का पहला कदम है, एक मौन विद्रोह, जो हमें फिर से खुद से जोड़ता है। यही विद्रोह, धीरे-धीरे आत्मा को पुनर्जीवित करता है और हमें फिर से अपने जैसा बना देता है।

समाज के लिए जीना, अपनों के लिए बलिदान देना और संबंधों में समझौते करना, ये सब मानवीय मूल्यों के स्तंभ हैं। पर इन स्तंभों को टिकाए रखने के लिए जिस नींव की जरूरत है, वह है स्वयं की संपूर्णता। अगर वह नींव ही दरक जाए, तो ऊपर खड़ा कोई भी रिश्ता स्थिर नहीं रह सकता।

इसलिए, जरूरी है कि हम संतुलन साधें, दूसरों को खुश रखें, पर अपनी हंसी न खोएं। दूसरों के दुख बांटें, पर अपनी पीड़ा को भी मान्यता दें, रिश्तों को सींचें, पर अपनी जड़ों को न सुखाएं, क्योंकि आखिर अगर हम खुद को ही खो देंगे तो किसे और क्या दे सकेंगे!