हमारे देश में एक बात को लेकर ज्यादातर लोग यह दावा कर सकते हैं कि अगर अपने शहर में गाड़ी चला ली, तो समझें कि देश के किसी भी शहर में गाड़ी चला सकते हैं। कई बार लगता है कि ऐसे दावे सही हैं। अधिकतर लोग इससे सहमत होंगे। अगर किसी को शक हो तो वह गाड़ी लेकर निकल जाए शहर में किसी भी सड़क पर।

जैसा कि कहा जाता है कि यह तो घर-घर की कहानी है, तो बस समझ लिया जा सकता है कि यह कहानी भी शहर-शहर की है। हम जैसे ही घर से गाड़ी तक पहुंचते हैं तो पाते हैं कि हमारी गाड़ी से सटा कर किसी और ने गाड़ी खड़ी कर रखी है। परीक्षा की शुरुआत यहीं से हो जाती है। अब किसी को उन गाड़ियों के बीच से निकालने की कवायद शुरू करनी होती है।

कई कोशिशों के बाद सफलता मिल जाएगी। शायद गाड़ियों में ‘पावर स्टीयरिंग’ का इंतजाम ऐसी ही परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किया गया होगा! पार्किंग से सफलतापूर्वक गाड़ी निकालने के बाद जब हम आगे बढ़ते हैं और गली के कोने पर जाते हैं तो वहां कोई न कोई गाड़ी खड़ी की हुई मिलती है।

इस गाड़ी के पार कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा होता है और वहां से गाड़ी मोड़ कर मुख्य सड़क पर पहुंचना है। यानी परीक्षा का दूसरा प्रश्न आ गया कि हम कितनी होशियारी से गाड़ी में बगैर खरोंच लगे मोड़ लेकर मुख्य सड़क पर पहुंचते हैं। यह दृश्य किसी कोने में बैठा उस गाड़ी का मालिक एक यातायात पुलिस की तरह देख रहा होता है, ताकि जैसे ही टक्कर हो, वह उठ कर ‘जुर्माना’ लगाए।

कुछ ध्वनि प्रदूषण विरोधियों का यह मत है कि हमें कम से कम ‘हार्न’ का उपयोग करना चाहिए। कहते हैं कि विदेशों में हार्न बजाने पर जुर्माना लगता है। लगना भी चाहिए। ध्वनि प्रदूषण करना अच्छी बात नहीं है। मगर बगैर हार्न बजाए अगर गाड़ी चला कर कोई दफ्तर जा रहा है तो निश्चित रूप से वह समय पर तो नहीं पहुंच पाएगा।

अगर हार्न बजा दिया तो आगे चलने वाला इस तरह घूर कर देखता है, मानो किसी ने बहुत बड़ा अपराध कर दिया। हालांकि वह खुद दोपहिया पर होने के बावजूद चार पहिया वाहन की लेन में चल रहा होता है। कई बार ऐसा लगता है कि सड़क पर जो विभाजक बने हैं, उनमें कोई जबरदस्त चुंबकीय शक्ति होती है, जो दोपहिया वाहनों को अपनी ओर खींचती है!

आजकल एक और विशेषता शहर में देखी जा सकती है। सड़कों का विस्तारीकरण तेजी से हुआ है। बड़ी-बड़ी यानी लंबी नहीं, चौड़ी सड़कों का निर्माण शहर के हर क्षेत्र में हुआ है। किसी-किसी इलाके में तो सौ-सौ फीट चौड़ी सड़कें भी हैं। सड़कें क्या बनीं, शहर की पार्किंग की समस्या का निवारण हो गया है! वहां निशुल्क गाड़ी खड़ी कर कोई खरीदारी कर सकता है, कोई कुछ नहीं बोलने वाला है।

बस इस बात का जरूर खयाल रखा जाता है कि वहां एक पर्याप्त चौड़ी पट्टी यानी सात-आठ फुट की गली ईमानदारी से छोड़ दी जाती है, ताकि बाकी के वाहन वहां से पंक्तिबद्ध होकर निकल जाएं! इसके बावजूद अगर जाम लगता है तो अपना धैर्य बनाए रखना है, क्योंकि वहां खड़ी गाड़ियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे तब तक खड़ी रहती हैं, जब तक कि उनके मालिक या मालकिन की खरीदारी पूरी न हो जाए।

अगर किसी व्यक्ति का इलाज इसलिए कराया जाए कि उसके पास धीरज की कमी है, तो डाक्टर शायद यही सलाह देगा कि उसे रोज शाम को किसी वाहन में बैठा कर एक घंटे व्यस्त सड़क पर शहर का चक्कर लगवाया जाए। इससे उसमें धैर्य का विकास होगा और वह गुस्सा करना बंद कर देगा। फिर हिंसक होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि लोग अब जानते हैं कि जरा भी गड़बड़ की तो बाहर उनसे भी बड़े हिंसक लोग घूम रहे हैं। ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं कि किसी की गाड़ी से दूसरे की गाड़ी महज छू गई तो सड़क पर ही बुरी तरह मारपीट शुरू हो गई। कई बार लोगों की जान भी चली जाती है।

बहरहाल, शहर के यातायात को नियंत्रित करने के लिए हर चौराहे पर कैमरे लगे होते हैं। हमारे शहर के लोग इतने होशियार हैं कि उन कैमरों की दिशा को ध्यान रखते हुए इतनी सफाई से एक किनारे होकर निकलते हैं कि कैमरे की क्या मजाल कि उनकी गाड़ी पर नजर डाले। इन चौराहों पर संकेतक भी काम करते हैं।

लोग इतनी ईमानदारी से पालन करते हैं कि जैसे ही हरी बत्ती होती है, तो गाड़ियों के साथ पैदल लोग भी ‘जेब्रा क्रासिंग’ पर सड़क पार करना प्रारंभ कर देते हैं। यही है शहर की कहानी। जिसने ऐसे शहर में गाड़ी चला ली, वह कहीं भी गाड़ी चला सकता है। वह किसी सफल अभिमन्यु से कम नहीं, जो सड़क यातायात में फंसने के बावजूद अपनी मंजिल पर पहुंच जाता है।