Gender Discrimination: आधुनिक दौर में भी हमारा समाज पितृसत्तात्मक राग में ही डूबा है। तमाम हको-हुकूक के बावजूद स्त्रियों को कई प्रकार के तयशुदा मानकों में बांधने की कोशिशें की जाती हैं। हमारे घरों, मोहल्लों, कार्यालयों- हर तरफ स्त्रियों के प्रति दोहरी मानसिकता को प्रदर्शित करते अनेक मुहावरे, उक्तियां, व्यवहार प्रदर्शन आदि को सहजता से देखा जा सकता है। अगर कोई लड़की घरेलू काम की तुलना में अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ज्यादा ध्यान देती है तो अक्सर उसे सुनने को मिल जाता है कि ‘कितना भी पढ़ लो, आखिरकार तुम्हें रोटी ही बेलनी है’। यह भी कि ‘लड़की जात हो, अपनी औकात में रहो’।

महिलाओं की विकास की बात करने वाले लोग घर के बारे में परंपरावादी हो जाते हैं

अगर कोई लड़की काम के सिलसिले में देर रात तक घर लौटती है, तो उसे लेकर लोग बगैर विचार किए उलटी-सीधी बातें करने लगते हैं। कोई स्त्री या लड़की अपने अधिकारों की बात करती है या अपने फैसले स्वयं लेती है, तो वह समाज के लिए घातक मान ली जाती है। इस तरह की सोच और ऐसे व्यवहार पग-पग पर स्त्रियों के विकास में रोड़े बनकर खड़े हैं। खबरों में तो लोग महिलाओं के विकास की बातें खूब चाव से देखते-सुनते हैं, पर बात जैसे ही अपने घर की या मोहल्ले की बहू-बेटी की होती है, तो वे घोर परंपरागत होने लगते हैं।

हमारे समाज में मातृत्व को लेकर अत्यंत भ्रामक मानक गढ़े गए हैं। विभिन्न ग्रंथों, उक्तियों आदि के द्वारा स्त्री के संपूर्ण जीवन से ज्यादा उसकी कोख के महत्त्व को दर्शाया गया है। तरह-तरह के शब्दगुच्छों से उसका महिमामंडन किया गया है। कोख के अलावा उसके शेष जीवन का कोई मोल नहीं। अंतरिक्ष अभियान पर गई सुनीता विलियम्स का 286 दिनों तक फंसे रहने के बाद सफल वापसी पूरे विश्व में चर्चा का विषय बना। सुनीता के भारत की बेटी होने के नाते हमारे देश में भी उनकी वापसी की खुशी को जश्न के तौर पर मनाया गया।

सबने उनकी उत्कृष्ट सफलता और मजबूत इच्छाशक्ति की सराहना की। पर इस तरह की चर्चा के बीच कुछ खबरों में संतानहीनता पर भी बात की गई। जबकि ऐसी कई महिलाएं हैं, जिन्होंने अपने भविष्य, समाज के लिए कुछ अलग करने की सोच या अन्य वजहों से अपनी संतान नहीं लाने का फैसला किया। ये महिलाएं हर स्तर पर सफल और सक्षम हैं और अपनी जिंदगी से बहुत खुश भी। उन्हें भी अक्सर परिवार और समाज के तानों और कुबोलों का सामना करना पड़ता है। उन पर नियमों को तोड़ने, मनमानी करने आदि का आरोप लगाया जाता है। उन्हें बार-बार स्त्री होने की हदों का अहसास कराया जाता है। दूसरी तरफ ऐसा ही निर्णय अगर एक पुरुष लेता है तो उसके इच्छा को महत्त्व देते हुए सहजता से स्वीकार कर लिया जाता है।

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हर मनुष्य को अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का अधिकार है। हालांकि ऐसे अधिकार पुरुषों को तो जन्म से ही मिल जाता है, पर जैसे ही स्त्री की चाहतों और स्वतंत्रता की बात आती है, पितृसत्तात्मक समाज द्वारा रचे गए नियम और परंपराओं की बंदिशें फन उठाए खड़ी हो जाती हैं।

यह सही है कि स्त्रियां तमाम वर्जनाओं और साजिशन रचे गए नियमों को ढाह कर हर प्रकार की उपलब्धियां हासिल कर रही हैं और विकास के शिखर तक पहुंच रही हैं। पर आज भी बहुत कुछ ऐसा है, जो अत्यंत दुरूह है। ज्यादातर स्त्रियों, विशेषकर आर्थिक रूप से पराश्रित स्त्रियों का मान-सम्मान उनके संतानवती (विशेषकर पुत्रवती) होने के इर्द-गिर्द ही घूमता है।

एक स्त्री को कोख से ऊपर न मानने की सामाजिक सोच उसे सामान्य मनुष्य भी नहीं रहने देता। ‘तुम्हें फलाना काम करना है और फलाना नहीं’, वाली बात स्त्री के हर कदम पर दोधारी तलवार के रूप में खड़ी की गई हैं। आज भी ज्यादातर स्त्रियों, चाहे वे गृहिणी हों या नौकरीपेशा, लगभग सभी अपनी इच्छा-अनिच्छा को परे धकेलते हुए सामाजिक मानकों के अनुरूप अपने जीवन को ढालते, रचते, बसते पूरी उम्र बिता देती हैं।

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उनके लिए अपनी मनमर्जी से जीने का ख्वाब उस ‘आकाश कुसुम’ जैसा होता है, जिसे सिर्फ बंद आंखों से महसूस किया जा सकता है, जीवन में उतारा नहीं जा सकता। एक ओर पुरुषों की उपलब्धियां उन्हें सम्मान देती हैं, लेकिन जैसे ही किसी स्त्री की सफलता की बात होती है, उसमें उसके निजी जीवन की चर्चा भी साथ-साथ होने लगती है।

गौरतलब है कि ऐसी बातें भारत ही नहीं, अमेरिका, इंग्लैंड सहित विश्व के तमाम देशों में कमोबेश होती हैं। आम महिलाओं को तो कदम-कदम पर ऐसी स्थितियों से दो-चार होना पड़ता है। सृष्टि पर जीवन कायम रखने के लिए मातृत्व की महत्ता से सब वाकिफ हैं।

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किसी भी जीव का होना इसी से संभव है। पर साथ ही मनुष्य की गरिमा, उसकी पसंद-नापसंद, इच्छा का भी महत्त्व उतना ही है। आवश्यक से आवश्यक नियम और परंपराओं को भी मनुष्य की कीमत पर नहीं स्वीकारा जा सकता है। तब तो यह और भी अमानवीय हो जाता है, जब किसी को उसके स्त्री होने की वजह से नियमों और परंपराओं के सींखचों में बांधा जाए।

मातृत्व को स्वीकारने या अस्वीकारने के संदर्भ में उसकी इच्छा या अनिच्छा का सम्मान सर्वोपरिहै। समाज के चेतन-अवचेतन में बैठा यह तथ्य कि स्त्री का वजूद उसके संतान पैदा करने में ही है, सबसे बड़ा भ्रम है। पुरुष हो या स्त्री, सभी को अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का अधिकार है। स्त्री का इंसान होना ही उसकी सबसे बड़ी पहचान है। वह सिर्फ किसी उद्देश्य की पूर्तिकर्ता मात्र नहीं है। वहीं अगर कोई स्त्री किसी खास उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ी है तो उसकी ससम्मान स्वीकार्यता भी अनिवार्य है।