आत्मचिंतन एक सतत प्रक्रिया है। यह एक बार किया जाने वाला कार्य नहीं, बल्कि जीवन की हर परिस्थिति में इसे अपनाना पड़ता है। यह ऐसी साधना है, जिसमें व्यक्ति किसी गुरु पर निर्भर नहीं रहता, न किसी बाहरी अनुशासन पर, वह अपने अंत:करण को ही अपना पथप्रदर्शक बनाता है। पढ़ें मोनिका राज के विचार।
मनुष्य की प्रकृति ऐसी है कि वह जो भी देखता है, अनुभव करता है, उसका मूल्यांकन करने की चेष्टा करता है। विडंबना है कि यह मूल्यांकन अकसर बाहरी दुनिया तक ही सीमित रहता है। जीवन में जब भी कोई घटना घटती है- सुखद या दुखद, मनुष्य की दृष्टि अपने भीतर झांकने के स्थान पर बाहर की ओर दौड़ती है। वह अपने संकटों, उलझनों और दुखों का कारण दूसरों को मानता है, जैसे जीवन की सारी विसंगतियां बाहरी तत्त्वों की देन हों और उसका अपना मन बिल्कुल निर्दोष हो।
व्यक्ति अपने भीतर झांकने के स्थान पर बाहर की दुनिया को दोषी ठहराता है
यह प्रवृत्ति केवल सामान्य जन में ही नहीं, बल्कि सुशिक्षित और धर्म-प्रवृत्त लोगों में भी समान रूप से देखी जाती है। क्योंकि, मन की आदत यही है- दोषारोपण की। किसी भी असफलता, दुख, अपमान का कारण बाहर के व्यक्तियों, परिस्थितियों, शासन, व्यवस्था या समाज को ठहराना आसान होता है। यह आसान रास्ता आत्ममंथन की उस कठिन प्रक्रिया से बचने का एक साधन है, जिसमें व्यक्ति को अपने भीतर की लालसा और दुर्बलता से साक्षात्कार करना होता है।
मनुष्य का मन एक दर्पण के समान है, पर यह दर्पण समय और परिस्थितियों के साथ टूट गया है। ईर्ष्या और अहंकार की मोटी परतों ने इसे इतना ढक दिया है कि इसमें अपना असली चेहरा दिखना बंद हो गया है। जब यह दर्पण ही मैला हो, तब उसमें दोष अपना नहीं, दूसरों का ही दिखेगा। यही कारण है कि व्यक्ति अपने भीतर झांकने के स्थान पर बाहर की दुनिया को दोषी ठहराता है।
आत्मचिंतन एक शब्द नहीं, साधना है। यह वह प्रक्रिया है, जो हमें अपने ही भीतर की परछाइयों से साक्षात्कार कराती है। यह हमें बताती है कि हमारी प्रतिक्रियाएं, भावनाएं, पीड़ा और यहां तक कि हमारे निर्णय भी हमारे ही अंत:करण की उपज हैं। जब आत्मचिंतन के दीप से भीतर का अंधकार उजाला बनता है, तब जीवन का वास्तविक आलोक सामने आता है। हमें यह समझना होगा कि दूसरों के दोष गिनाना सहज है, पर अपने दोषों को देखना कठिन, क्योंकि आत्मस्वीकृति में साहस चाहिए, अपने ही भीतर के राक्षसों से लड़ने का हौसला चाहिए।
पर जब हम एक बार भीतर झांकना शुरू करते हैं, तो हमारी चेतना का एक ऐसा नया अध्याय आरंभ होता है, जो हमें बाहर के नहीं, भीतर के युद्ध का योद्धा बनाता है। जब कोई व्यक्ति अपमानित होता है, तो वह सोचता है कि सामने वाले ने उसे अपमानित किया। अगर वह आत्मचिंतन करे, तो पाएगा कि उसका अहंकार, उसकी अपेक्षाएं, असंवेदनशीलता- ये सब मिल कर उसे उस अपमान का अनुभव कराती हैं।
यह अनुभव बाहरी नहीं, भीतरी है। दुख का स्रोत बाहर नहीं, भीतर है। जब तक यह बोध नहीं होगा, तब तक आत्मबोध संभव नहीं। बाहर की घटनाएं तो केवल आवरण हैं, मूल तत्त्व भीतर छिपा है। मसलन, अगर कोई व्यक्ति हमें क्रोधित करता है, तो हम सोचते हैं कि उसने हमें क्रोधित किया। सच्चाई यह है कि हमारे भीतर क्रोध पहले से था, वह केवल प्रकट हुआ। अगर भीतर शांति हो, तो कोई भी व्यक्ति हमें क्रोधित नहीं कर सकता।
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यह सत्य तभी प्रकट होता है, जब हम बाहर नहीं, भीतर देखते हैं। संतों ने बार-बार आत्मचिंतन पर बल दिया है। संत कबीर कहते हैं- ‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।’ यानी जब व्यक्ति अपने ही अंतर्मन को खोजता है, तब उसे अपनी कमजोरियां दिखती हैं और यहीं से शुरू होती है वास्तविक उन्नति की यात्रा।
आज का समाज जितना जटिल होता जा रहा है, उतनी ही आवश्यकता आत्मचिंतन की है। हम अपने संबंधों, कार्यक्षेत्र, समाज और राजनीति में जिस प्रकार दूसरों को दोषी ठहराने का चलन बढ़ा रहे हैं, वह केवल बाह्य संघर्षों को जन्म देता है। ये संघर्ष कभी समाप्त नहीं होंगे, जब तक व्यक्ति भीतर जाकर यह न देखे कि उसके विचारों और निर्णयों में कितनी विकृति है। आत्मचिंतन से जीवन की दिशा और दृष्टि दोनों बदलती है। जो व्यक्ति पहले केवल दोष देखता था, वही अब कारण देखता है।
यह अंतर सूक्ष्म, लेकिन प्रभावशाली है। जब व्यक्ति अपने भीतर की अशांति को पहचानता है, तभी वह बाहर की शांति की कामना छोड़ कर भीतर की शांति की साधना करता है।
आत्मचिंतन एक सतत प्रक्रिया है। यह कोई एक बार किया जाने वाला कार्य नहीं, बल्कि जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में, हर छोटे-बड़े निर्णय और संबंध में इसे अपनाना पड़ता है। यह वह साधना है, जिसमें व्यक्ति न तो किसी गुरु पर निर्भर रहता है, न किसी पंथ या बाहरी अनुशासन पर, बल्कि वह अपने अंत:करण को ही अपना पथप्रदर्शक बनाता है।
आत्मचिंतन का दर्पण ही वह साधन है जो हमें अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित कराता है। यह हमें सिखाता है कि बाहर की दुनिया केवल प्रतिबिंब है- मूल स्वरूप हम खुद हैं। जब यह बोध होता है, तब जीवन की दिशा बदलती है और व्यक्ति केवल घटनाओं का शिकार नहीं रहता, बल्कि जीवन का सर्जक बन जाता है।