जीवन के केंद्र को जब हम किसी सीमित दृष्टि पर निर्धारित कर देते हैं तो उसके परिपूर्ण अर्थ और स्वरूप तक नहीं पहुंच पाते और उसकी परिधि को सीमित कर देते हैं। प्रकृति के प्रवाह की तरह बहती हुई धारा में जैसे बदलाव और परिवर्तन होता रहता है और उसमें किसी एक जगह ठहराव नहीं, निरंतर आगे बहने का स्वभाव निहित होता है। इसी तरह, जब हम खुद भीतर से बंधन में होते हैं, अपनी स्वतंत्र चेतना से नहीं सोचते तो अपनी वस्तुस्थिति से भी सही संपर्क नहीं बना पाते।

नया विषय अगर अज्ञात नहीं है तो वह नवीन कैसे हो सकता है। अपने भविष्य को दूसरों के अनुसार पहले ही हम निर्धारित कर देते हैं तो वह सिर्फ अतीत हो सकता है, नए का निर्माण नहीं कहला सकता। जीवन में आगे का रास्ता अपनी पूर्वनिर्धारित धारणाओं के खिलाफ जाकर ही मिलता है। विषय को जितना हम तय करना चाहते हैं, वर्तमान स्थिति के उतना ही गुलाम बनते जाते हैं और अपने ही बनाए हुए दायरे से बाहर नहीं निकल पाते। प्रतिदिन और प्रतिपल कुछ बदलना अपने को ठीक से जानने का अवसर प्रदान कर सकता है, क्योंकि अपने अस्तित्व को जानने का अधिकार सिर्फ मनुष्य जाति को ही मिला है। व्यक्ति के पास अपनी चेतना है, इसलिए उसे चयन का, निर्णय का विकल्प भी मिलता है, जिसे अक्सर हम पहचान नहीं पाते। आत्मावलोकन ही आत्मपरिवर्तन का कारण बनता है और यही विवेक वास्तव में व्यक्ति के जीवन के केंद्र का निर्धारण कर सकता है।

आत्मनिरीक्षण का जोखिम उठाना आसान नहीं है, लेकिन यही दृष्टि पुनर्निर्माण की ओर बढ़ा पहला कदम है। इसमें चुनौतियों और कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन अपनी सीमाओं और जड़ता से मुक्ति भी आखिर एक सही विकल्प की तरफ ले जा सकती है। हम जीवन के अर्थ को गहराई से समझ कर अपनी पहचान के प्रति अधिक सजग और संवेदनशील होकर ईमानदारी से अपने जीवन का अवलोकन और मूल्यांकन कर सकते हैं। जैसे अंधेरे की फोटो खींचने का कोई लाभ और महत्त्व नहीं होता, क्योंकि उसमें किसी वस्तु और विषय का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता, इसी तरह समाज और दुनिया में जो घटित हो रहा है, उसका अनुकरण करते चुपचाप जीना भी उतना ही निरर्थक है, जिसमें अपने जीवन को देखने की कोई स्पष्ट दृष्टि प्राप्त नहीं होती। अपने को गहराई से जानना ही पूर्णता से जीना और अपने प्रति उत्तरदायी होना है, जिसमें हमें अपनी निजता का सौंदर्य दिखाई देता है।

अपने जीवन के केंद्र को जानने के लिए हमें अपनी अंतिम सीमा तक जाना पड़ता है और सभी आयामों को अन्वेषित करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में किसी मंजिल तक पहुंचने से पहले जो भी बनी-बनाई सुनियोजित अवधारणाएं और भ्रम हैं, उनमें टूट-फूट का काम भी व्यक्ति का आत्मबोध ही करता है। एक सही आधार से जीवन को किसी सार्थकता से जीने के लिए पहले स्वयं को ही जानना आवश्यक होता है और जिसकी हम उपेक्षा करते रहते हैं। जब अपनी संभावनाएं पता नहीं होतीं, तो हम दूसरों के जितना पारिभाषित किए गए पैमाने पर एक सीमित उद्देश्य को ही पाने की कोशिश करते हैं और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए भी दुनिया के अनुसार ही निर्भर हो जाते हैं। अपने प्रति मौलिक जिम्मेदारी की अनुभूति ही व्यक्ति की क्षमता और संभावनाओं का विस्तार करती है। जीवन की अपनी परिधि के अंतर्गत उतना ही हम देख पाते हैं, जिसकी अनुमति आसपास का परिवेश देता है, लेकिन आगे जाने के लिए संकीर्ण सीमा से पार जाना पड़ता है जो लकीर पहले से ही निर्धारित करके खींच दी गई है।

समाज और समूह के नियमों द्वारा मनुष्य को वे तमाम बाहरी पहचानें दी जाती हैं जो प्रत्येक जगह कई बनावटी परतों और मुखौटों की तरह उसके व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं। सुख-सुविधा, सफलता, व्यवस्था और सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर अधिकतर हम जीवन को परखते हैं, लेकिन वास्तव में अपनी आंतरिक सच्चाई की कसौटी के आधार पर ही जीवन के केंद्र को परखा जा सकता है। कोई दुर्लभ व्यक्तित्व ही औसत जीवन की अपनी इन निजी व्यक्तिगत सीमाओं को तोड़ कर एक वास्तविक और सार्थक विकल्प को पाने का प्रयास करता है, क्योंकि जो नई दृष्टि से स्वयं के अस्तित्व को नहीं जानना चाहता। उसका बाहर की दुनिया के लिए जितना भी ज्ञान है, वह गलत और व्यर्थ सिद्ध होगा। जब तक जीवन का यह केंद्र दिखाई नहीं देता, तब तक अंधेरे के प्रसार में रोशनी की दिशा की तरह निरंतर उसे खोजना पड़ता है।

इसे पाने के लिए अपने ही बनाए गए बहुत से बाहर के प्रभावों और बंधनों से मुक्त होना जरूरी हो जाता है और जब अपना वह आतंरिक आधार समझ में आ जाता है तो वही जीवन का स्थायी केंद्र बन जाता है। जिस व्यक्ति के पास अपना निर्मित स्वतंत्र अस्तित्व होता है, वह भीड़ की मनोवृत्ति पर आश्रित रहना बंद कर देता है और दूसरों के कारण निर्धारित की गई मान्यताओं के प्रभाव से नहीं, बल्कि अपनी उच्चतम चेतना से निर्णय का विकल्प चुनता है, क्योंकि जितनी बार दूसरों के अनुसरण और स्वीकृति के अनुसार काम करने का साधारण रास्ता चुना जाता है, वह भीतर के अज्ञान के अंधेरे को उतना गहरा करता जाता है। अपनी एकाग्र और बोधपूर्ण दृष्टि ही वह कीमती चीज है जो व्यक्ति के जीवन की परिधि में दीपक की तरह हमेशा आलोकित रहती है।