राकेश सोहम्

जीवन ठहर जाने का नाम नहीं है। चलना ही जिंदगी है। जीवन में अनेक पड़ाव आते हैं और निकल जाते हैं। ठीक रेल यात्रा की तरह। स्टेशन आते जाते हैं। रेलगाड़ी रुकती है, फिर आगे बढ़ जाती है। यात्री रास्ते में आए स्टेशनों को छोड़ता हुआ मंजिल की ओर बढ़ता चला जाता है। एक जगह ठहर नहीं जाता। असल जीवन में अनेक लोग जीवन में आए पड़ाव पर ठहर जाते हैं। वे उस पड़ाव से निकल नहीं पाते। उस पड़ाव से उन्हें इतना जुड़ाव हो जाता है कि पड़ाव के छूटते ही असहज हो जाते हैं। बिछोह जकड़ लेता है। कई बार यह जुड़ाव उनके जीवन-मरण का मामला बन जाता है।

जीविकोपार्जन के लिए नौकरी-पेशे में बिताया गया समय, जीवन की सबसे लंबी अवधि होती है। यह व्यक्ति का सबसे लंबा पड़ाव होता है। व्यक्ति उम्र का सर्वाधिक समय यहां व्यतीत करता है। स्वाभाविक है, इस पड़ाव से लगाव हो जाता है। नौकरी से जुड़ी जिम्मेदारियां दैनिक जीवनचर्या का हिस्सा बन जाती हैं। इस दौरान सुख-दुख और गृहस्थ जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव व्यतीत होते हैं। और एक दिन यह पड़ाव भी छोड़ना पड़ता है।

नौकरी से सेवानिवृत्त होना पड़ता है। जीवन का यह लंबा पड़ाव छूट जाता है। अगले पड़ाव की ओर बढ़ जाना होता है। मगर अनेक नौकरी-पेशा लोग इसे स्वीकार नहीं कर पाते। नौकरी की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर वे असहाय महसूस करने लगते हैं। ऐसी मानसिक स्थिति के चलते अपने परिवार से कटे-कटे से रहते हैं। परिवार के साथ आनंदमय समय व्यतीत नहीं कर पाते।

अवसाद में चले जाते हैं और कुछेक असमय ही दुनिया को छोड़कर चल देते हैं। एक बड़ी संस्था ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना के तहत कर्मचारियों की छंटनी की। अनेक अधिकारी और कर्मचारियों ने वित्तीय लाभ लेते हुए सेवानिवृत्ति स्वीकार की। बाद में अनेक ऐसे लोग अवसाद में चले गए। उन्हें अफसोस था कि अभी वे आठ-दस साल और नौकरी कर सकते थे। पद और गरिमा छिन जाने से रोग ग्रस्त हो गए।

एक समय था, जब आर्थिक संपन्नता नहीं थी। नौकरी-पेशा लोगों की आय कम हुआ करती थी। अपना घर बनाना और वाहन क्रय करना एक सपना था। तब लोग सेवानिवृत्ति के बाद अपने शहर, अपने गाव, अपने घरों को लौट जाते थे। आवागमन के साधन कम थे। संचार माध्यमों की कमी थी। जिनके घर उसी शहर में होते, वे कभी-कभी नौकरी स्थल पर चले जाते थे। खास सहकर्मी मित्रों से कभी-कभार मिल-जुल लेते थे। इसलिए नौकरी के पड़ाव से जल्दी बाहर आ जाते थे। शीघ्र अपने परिवार के साथ जीवनचर्या में रम जाया करते थे।

पिछले कुछ वर्षों में तकनीकी विकास तेजी से हुआ है। इंटरनेट, मोबाइल और वाट्सएप जैसे साधन आने के बाद से दुनिया पूरी तरह बदल गई है। कार्यालयों की कार्यप्रणाली ‘हाई टेक’ हुई है। इंटरनेट और वाट्सएप चैट का बहुतायत से इस्तेमाल होने लगा है। कार्यालयों में इंटरनेट के माध्यम से भर्ती, पदोन्नति, स्थानांतरण की सूचनाएं मिलने लगी हैं। आदेशों के त्वरित निष्पादन और अनुपालन हेतु कार्यालयीन वाट्सएप समूहों का गठन भी चलन में आ गया है।

इसके अलावा भी कार्यालयों में व्यक्तिगत वाट्सएप समूह बने रहते हैं। इन समूहों के माध्यम से अधिकारी और कर्मचारी आपस में जुड़े रहते हैं। वे अपने सुख-दुख के अलावा आपसी मनोरंजक बातें साझा करते हैं। नौकरी के दौरान जीवन का यह पड़ाव कार्यालयीन इंटरनेट वेबसाइट पर नजर बनाए, वाट्सएप समूहों पर विमर्श करते और कार्यालयीन जिम्मेदारियों का निर्वाहन करते, सहकर्मियों के बीच बीतता है। दिन, महीने, साल चुटकियों में गुजर जाते हैं।

यह देखा गया है कि सेवानिवृत्ति के बाद भी अनेक लोग अनधिकृत रूप से कार्यालयी वेबसाइट का ‘आइडी-पासवर्ड’ सेवारत सहकर्मी मित्रों से हासिल कर लेते हैं। कार्यालयी वाट्सएप समूह में भी जुड़े रहते और कार्यालय की वर्तमान गतिविधियों पर नजर गड़ाए रहते हैं। समय-समय पर जारी किए जाने वाले कार्यालयी आदेशों को पढ़ते हैं। किसकी पदोन्नति हुई, कौन सेवानिवृत हुआ या किसकी मृत्यु हुई आदि की खबर लेते रहते हैं। वहां की वर्तमान गतिविधियों को लेकर अवांछित दबाव में रहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी नौकरी के पड़ाव पर जीते हैं। इस कोशिश में हताशा और निराशा हाथ आती है। अवसाद में घिर जाते हैं।

ऐसे लोगों का जीवन रुक जाता है। वे सेवानिवृत्ति के पड़ाव को ठीक से जी नहीं पाते। पिछले पड़ाव पर ठहरा यात्री गंतव्य पर नहीं पहुंच सकता। कदम आगे बढ़ाने के लिए पिछले कदम को जमीन छोड़नी ही पड़ती है। यही वह मंजिल है, यही वह स्थायी पड़ाव है, जहां पर बच गई जिम्मेदारियां निभाने का पूरा समय होता है। नौकरी की आपाधापी में छूट गए शौक और कला सुकून दे सकते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन, हमारा अपना पड़ाव है। इसे हमने ही सपनों को जोड़कर गढ़ा है। सपने और अपने, इसी पड़ाव पर आपकी प्रतीक्षा करते हैं। बस स्वीकार करने की देर है।