अलका ‘सोनी’
सुख और दुख जिंदगी के खेल हैं। इन्हें खेल की तरह खेलते हुए चलना चाहिए, क्योंकि जब तक जीवन है, ये तो आएंगे ही… हमें मांजने… हमें जीवन के नए अनुभवों से और समृद्ध करने, ताकि हम अपने अंतिम लक्ष्य तक और बेहतर होकर पहुंचें। इसलिए अगर तकलीफों को नजरअंदाज न किया जाए तो यहां जीना मुश्किल हो जाता है।
दुख अपने प्रत्यक्ष रूप में जितना बड़ा दिखाई देता है, अंदर से वह उतना ही खोखला और कमजोर होता है। अगर विचारों को मजबूत बनाकर रखा जाए तो दुख हवा के झोंके के साथ गायब होने वाले पानी के बुलबुलों की तरह हो जाते हैं। दुख हमारे लिए बड़ा होगा और हम पर हावी हो जाएगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमने सुख के कारणों पर कितना गौर किया है।
कई बार दुख आता है, लेकिन अगर हम उसे उसकी प्रकृति का हिस्सा मान कर अपने ऊपर से गुजर जाने देते हैं तो वह नए अनुभव दे जाता है, जो सुख का आधार बन सकता है। वहीं अगर हम उसे अपना हिस्सा बनने देते हैं तो सुख की संभावनाओं को कमजोर कर देते हैं। मगर सवाल है कि अगर किन्हीं वजहों से दुख एक चुनौती बन कर सामने खड़ा हो ही जाए तो उन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर अगर हमारे पास है तो फिर दुख हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सच यह है कि जब तक इससे भागने की कोशिशें जारी रहेंगी, यह हमें और ज्यादा उकसाता, घेरता रहेगा।
तकलीफ के दौर में रोने, सिर पीटने या डरने के बजाय अपने आप पर, अपने कर्मों पर विश्वास रखने की जरूरत है। मगर होता यह है कि जब हम पर किसी वजह से दुख का पहाड़ टूटता है, तो हम उसके कारणों और उससे निकलने के उपाय पर विचार करने के बजाय उसके सामने समर्पण कर देते हैं और अपने आप पर भरोसा भी खो देते हैं। हर दुख का एक कारण होता है।
हम इस दुनिया में रहते हैं, तो अपने आसपास की तमाम गतिविधियों में कभी ऐसा भी हो सकता है कि किसी का असर हम पर पड़े और उसका परिणाम हमें भी भुगतना पड़े। यह सकारात्मक हो सकता है और नकारात्मक भी। सकारात्मक असर होता है तब हम आमतौर पर सहज रह कर उससे आनंदित होते हुए अपना वक्त गुजार देते हैं, लेकिन नकारात्मक परिस्थितियों में दुख में डूब जाते हैं और कई बार खुद को खोते चले जाते हैं। जबकि दुख की जगह वहीं है, जहां दुख में डूबे रहने की मानसिकता है।
अगर किसी के भीतर दुख से लड़ने का हौसला है, तब उसका आधा दुख यों ही कम हो जाएगा। बाकी दुख से लड़ाई शुरू करते ही दुखों से मुक्ति मिलने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। हां, अगर हमारे भीतर यह वहम बैठा हुआ है कि हमें केवल सुख ही मिलना चाहिए, तो इस दुनिया में जीवन गुजारते हुए यह न तो संभव है, न ही स्वाभाविक।
यह दुनिया हम मनुष्यों को यह समझने के लिए बनी है कि जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं है। अगर हमारे जीवन में बहुत दुख है तो हम अपनी तुलना उन लोगों से कर सकते हैं, जो हमसे ज्यादा दुखी और परेशान हैं। खुश रहने की कोशिश करना दुखों से मुक्ति पाने का एक सबसे शुरुआती और आसान रास्ता है। दुख के जाल में हम अकेले नहीं होते हैं। यह सच है कि दुख और आपदाएं इंसान की जिंदगी के साथ जुड़ी हुई ऐसी अप्रासंगिक घटनाएं हैं, जो क्षति पहुंचाकर मनुष्य को विचलित कर देती हैं।
कभी-कभी तो विवेक से रहित इंसान सहनशक्ति के अभाव में अपने होश खो बैठता है। हालांकि एक आशावान मन उससे बिना डरे सकुशल बाहर निकल जाता है और निराश मन अपने भाग्य को रोता रहता है। अंतर केवल दृष्टिकोण का रहता है। यह ठीक है कि हम अपनी परिस्थितियों और घटनाओं को नहीं बदल सकते, लेकिन दृष्टिकोण बदलना तो हमारे हाथ में ही है।
परीक्षा के समय हम देखते होंगे कि कई विद्यार्थी इसके तनाव का डटकर सामना करते हैं तो कई हार मान लेते हैं और अवसाद में चले जाते हैं। कई तो कम नंबर आने पर अपनी जान तक दे देते हैं या इसकी कोशिश करते हैं, बिना यह सोचे कि यह तो जिंदगी का बहुत छोटा-सा पड़ाव है। आगे पूरा जीवन पड़ा है। इस तरह के बच्चों की हार के पीछे आमतौर पर उनके अभिभावकों के सपनों का बोझ होता है, जिसके नीचे कई बच्चे दब कर दम तोड़ देते हैं।
हर दिन एक जैसा नहीं होता। प्रकृति का नियम ही है कि रात के बाद दिन जरूर आता है। यहां कुछ भी स्थायी नहीं है। बुरे वक्त में हमें भी सुख रूपी सवेरे का खुशी-खुशी इंतजार करते रहना चाहिए। इसलिए दुख से भागने की नहीं, सामना करने की जरूरत है। यह सबके जीवन को मांजता और मथता रहता है। जीवन के हर पल और अनुभव का सामना करना ही जीवन की खूबसूरती है और इसी से जीवन में संपूर्णता है।
आज अगर बुरा वक्त चल रहा है तो कल अच्छा समय भी आएगा, जब हमारे बिगड़े हुए सभी काम फिर से बनने लगेंगे। यह सारी उथल-पुथल थम जाएगी तब जिंदगी फिर मुस्कुराने लगेगी। जिस तरह तैराकी सिखाने वाला हमें जल की धारा में यों ही उतार देता है, ताकि हम हाथ-पैर चलाते हुए तैरना सीख जाएं, उसी तरह वक्त से मिला दुख हमें मांज कर और निखार देता है।
