अलका ‘सोनी’
अपनी-अपनी मंजिल को पाने की चाहत हर किसी की होती है। इस चाहत में वह निरंतर बढ़ता जाता है। या कहें कि इस क्रम में वह उन रास्तों को भूल जाता है, जिनसे गुजर कर मंजिल की ओर बढ़ता है और अपने मंजिल को पाता है। एक तरह से जीवन में मंजिल ही प्रमुख बन जाती है, रास्ते गौण हो जाते हैं। वे मंजिल को पाने के माध्यम मात्र बनकर रह जाते हैं। जबकि ऐसा मानना या रास्ते को कमतर समझना हमारी भूल है। समझने की जरूरत है कि रास्ते न हों तो मंजिल तक पहुंचना मुमकिन नहीं।
वे रास्ते ही हैं, जिन पर चलते हुए हमें कई तरह के अनुभव होते हैं। धूप-छांव, सर्दी-गर्मी सब कुछ इन्हीं रास्तों पर गुजरते ही महसूस किया जा सकता है। साथ ही अपनी तरह के कई पथिकों से भी इन रास्तों में ही भेंट-मुलाकात की जा सकती है। इनमें से कुछ हमारा साथ निभाते हुए चलते हैं तो कुछ अपरिचित ही रह जाते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
वहीं कुछ लोग हमें एक नया अनुभव दे जाते हैं। इन रास्तों पर मिलने वाले हर पथिक की अपनी एक भूमिका होती है। हमें इन सबका आभार मानते हुए चलते रहना चाहिए, क्योंकि इन रास्तों पर वही चल पाते हैं, जिन्हें चलने का रसास्वादन करने आता है। कवि शिव मंगल सिंह सुमन की एक कविता की पंक्तियां हैं, ‘इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गए स्वाद, जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।’
दरअसल, चलना शुरू करने से लेकर अंतिम पड़ाव तक में रास्ते महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते नजर आते हैं। लेकिन हमारी आंखें इस कदर मंजिल को ढूंढ़ने में खोई रहती हैं कि उन्हें रास्ते की खूबसूरती नहीं दिखाई देती है। उन्हें यात्रा के दौरान मिलने वाले पेड़ों की कतारें, नदियों की कल-कल और पक्षियों की चहचहाहट भी आकर्षित नहीं कर पाते।
उन्हें इतनी भी गरज नहीं होती कि दो पल रुक कर कानों में रस घोलने वाला चिड़ियों का शोर सुना जाए। बहती हुई नदी के पानी का शीतल आचमन किया जाए। आखिर इतनी हड़बड़ाहट किसलिए! जिस मंजिल तक पहुंचने के लिए लोग नाक की सीध में दौड़े जा रहे हैं, वहां तो सभी को पहुंचना ही है। हां, पहुंचने के समय में घड़ी-दो घड़ी आगे-पीछे हो सकता है।
याद रखना चाहिए कि मंजिल तक पहुंचना ही हमारा उद्देश्य नहीं होता। मंजिल पर पहुंच कर तो थकान मिटाई जा सकती है गहरी नींद के साथ। जबकि जीना सीखने के लिए तो रास्तों को ही शिक्षक बनाया जा सकता है। वे रास्ते जो हमें हर कदम एक नई बात सिखाते रहते हैं। आज एक पाठ पूरा किया, तो कल दूसरा पाठ सामने प्रस्तुत हो जाएगा।
नए अनुभव और रोमांच के साथ। हमें जब भी लगता है कि हमने तो बहुत कुछ जान लिया, बस तभी एक नया तोहफा अचानक ही लेकर आ जाती है जिंदगी। अब यह हम पर है कि हम उस तोहफे को कैसे लेते हैं। उसमें उलझ कर उसी मोड़ पर छूट जाते हैं या उससे बाहें छुड़ाकर मुस्करा कर आगे बढ़ जाते हैं।
हममें से बहुत सारे लोगों ने किसी ट्रेन में यात्रा करते समय देखा होगा कि कितनी ही बार हमें अपने आसपास बैठे सहयात्रियों के साथ तालमेल बिठाने में परेशानी आई। कितनी ही बार भीड़ से दम घुटने लगा होगा। ट्रेन समय पर नहीं पहुंचा पाई होगी गंतव्य तक। फिर भी खिड़की के बाहर तेजी से पीछे छूटते दृश्य और हरियाली से आच्छादित पेड़ हमारे मन को ठंडक देते होंगे। तब लगने लगता है कि यह दृश्य आंखों से कभी ओझल न हों।
वरना यात्रा बोझिल लगने लगेगी। बस यही हाल जीवन के इन रास्तों का है, जिन पर चलते हुए कितनी सारी चीजें हमें मिलती रहती हैं। उनका आनंद लेते हुए हमें अपनी यात्रा जारी रखनी चाहिए। चलते हुए कभी थक गए और यात्रा को बोझ समझ लिया, फिर तब रास्ते थकान से भर देंगे। या फिर रास्तों में मिलते कंकड़, तेज धूप और कभी हवाओं से ध्यान भटका और हमने सोचा कि दो पल सुस्ता लिया जाए और बस इतने भर के लिए किस्से से निकले खरगोश की तरह आंखें मूंद लिए। जब आंख खुली तो देखा कि साथ के कछुए आगे निकल चुके हैं।
याद रखना चाहिए कि कहानी में से खरगोश और कछुए भी निकलकर चल रहे होते हैं साथ। लेकिन यह यात्रा कहानी की तरह किसी जीत के ठिकाने तक पहुंचने के लिए नहीं है। यह तो बस चलते रहने के लिए है। जो जितना चलेगा उसे उतना ही रस मिलेगा, क्योंकि चलना ही जिंदगी है। रुकना या किसी पड़ाव को मंजिल मान लेना केवल भुलावा है। कितना सही कहा गया है इन पंक्तियों में किसी अज्ञात की कलम से ‘रास्ते कहां खत्म होते हैं जिंदगी के सफर में, मंजिल तो वहां है, जहां ख्वाहिशें थम जाएं।’