एकता कानूनगो बक्षी
मानव विकास के इतिहास से पता चलता है कि प्रारंभ में जीवन में संघर्ष इतना अधिक था कि एक दूसरे के संसाधनों को प्राप्त करने और जमीन पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए आधुनिक मनुष्य के पूर्वज एक दूसरे की जान ले लिया करते थे। अपने आप को सुरक्षित रखने का यह हिंसक तरीका शायद श्रेष्ठ महसूस हुआ होगा या संभव है, यही एकमात्र विकल्प दिखाई दिया हो उस वक्त।
स्वाभाविक है, तब हमारी निर्भरता शारीरिक बल पर अधिक थी। तब हम उतने सभ्य और बुद्धिमान नहीं हुए थे कि नए आविष्कार कर सकें। संसाधनों की उपलब्धता का विस्तार कर सकें, विचार-विमर्श करके आपसी समाधान, निष्कर्ष तक पहुंच सकें, खुद के साथ-साथ दूसरों के बारे में भी सोच सकें और मदद का हाथ आगे बढ़ा सकें। वे हमारी सीमाएं थीं।
प्राकृतिक रूप से जो जगह अधिक समृद्ध होती थी, वहां संघर्ष शुरू हो जाता। गुटों और समूहों में विभाजित हो लोग अपनी जरूरतों के लिए तब तक लड़ते रहते, जब तक कि दूसरे समूह को उसके ही क्षेत्र से खदेड़ न दें या उसकी जीवन लीला ही समाप्त न कर दें या सामने वाला समर्पण करके हमारा गुलाम न बन जाए। शायद केवल एक नियम चलता था कि जो शक्तिशाली है, वही जीवित बना रह सकता है।
मनुष्य के हालात उसके विकास के साथ बदलते गए। अब हमारे पास जीवन को ठीक तरह से जीने के लिए बेहतर विकल्प मौजूद हैं। इस विकास से हमारे जीवन मे आए संतुलन से हमें सुरक्षित परिवेश मिला। जीवन मे स्थिरता आई तो हम और स्वस्थ मानसिकता से चीजों को सीखने-समझने लगे। हमारे भीतर जिम्मेदारी और अच्छाई का बोध जागा और हम अच्छे काम करने को प्रेरित हुए।
मानवीय संवेदनाओं ने हमारे अतीत के हिंसक मनुष्य की छवि को दुरुस्त कर दिया। प्रेम, दया, करुणा, सहयोग, सह-अस्तित्व जैसी प्रवृत्तियों ने मनुष्य को परिभाषित किया तो पशु और जीव-जंतुओं से वह अलग होता गया। उसके जीवन में संघर्ष के अक्खड़ और घातक तौर-तरीकों से हटकर विवेक पूर्ण और बौद्धिकता से निखरे औजारों का प्रवेश होता गया। प्रश्न यह भी सामने है कि इतना आगे बढ़ जाने और अपने को विकसित कर लेने के बाद क्या हम अपनी आदिम प्रवृत्तियों से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं?
यह चकित करने वाली बात है कि वैचारिक रूप से प्रबुद्ध होते हुए भी आज भी हम मौका मिलते ही दो समूहों में बंट जाते हैं। चाहे दोनों पक्षों की लड़ाई ही गलत मुद्दों पर लड़ी जा रही हो, हम बीच में कूद जाते हैं। किसी भी पक्ष का साथ देना अनिवार्य न भी हो तो भी हमें अपने विचार किसी एक के समर्थन में व्यक्त करना जरूरी लगने लगता है। बुद्धि के बजाय हम बल पर जोर देने लगते हैं। जिसके हाथ में लाठी देखते हैं, हम उसके पक्ष में जा खड़े होते हैं।
सामान्य जीवन में भी अक्सर ऐसे दृश्य दिखाई देते रहते हैं। जैसे किसी सड़क दुर्घटना के बाद दो समूह एक दूसरे पर दोषारोपण करते हुए चीखते-चिल्लाते, हाथापाई करते नजर आएंगे। पास में खड़ी भीड़ से कई लोग अपनी समझ के पक्ष को चुन लेते हैं, फिर हालात को और दुरूह बना डालते हैं। कुछ वीडियो बनाने में जुट जाते हैं। इनमें से कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो निर्विकार भाव से जख्मी को उपचार के लिए अस्पताल ले जाने की व्यवस्था में संलग्न हो रहे होते हैं।
जब हमारा मन किसी बुरी घटना के होने पर संवेदनशील होने के बजाय निर्णायक के रूप में खुद को सम्मिलित करता है, हम एक निरर्थक रास्ते पर अग्रसर हो जाते हैं। किसी भी तरह की विषम घटना का घटित हो जाना और किसी एक को त्वरित रूप से जिम्मेदार ठहरा देना या इस तरह के किसी वाद-विवाद में बिना सोचे-विचारे सम्मिलित हो जाना हमारी संकुचित, अपरिपक्व और असंवेदनशील समझ का परिणाम है। मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाने की जगह कई बार इस तरह की घटनाओं में हम मनोरंजन ढूंढ़ने लगते हैं। अपनी नासमझ बातों के जरिए हम माहौल में और अधिक उग्रता बढ़ाने लगते हैं।
पक्ष-विपक्ष की उलझी हुई गुत्थियों से अधिक सटीक वह रास्ता होता है, जिसमें हमारे मन में प्रेम और करुणा उत्पन्न हो पाती हो। कुछ चीजें, स्थितियां किसी भी तरह के समय में किसी के जरिए की गई हों, अनैतिक ही समझी जाती हैं। ऐसे ही हमें अगर वकालत करनी भी है, तब भी हमारा जोर किसी एक पक्ष की ओर न होते हुए पीड़ित के लिए आवश्यक सहायता और सहयोग के लिए उठना चाहिए। हिंसा के समर्थन-विरोध से अधिक महत्त्वपूर्ण है शांति और स्नेह की मांग लगातार करते रहना। यह एक सरल सहज रास्ता है, जिसमें हमें किसी का इतिहास खंगालने की जरूरत नही होती। हमारा पक्ष केवल नैतिक और मानवीय मूल्यों के लिए ही बना रहना चाहिए।
किसी भी रूप में की गई हिंसा, अनैतिकता को सही मानते हैं तो हमारा भविष्य और अधिक असुरक्षित, हिंसक और असहिष्णुता लिए हुए होगा। अगर हम प्रेम और शांति पर बल देंगे तो हमें सौहार्दपूर्ण परिवेश मिलेगा। मनुष्यता की परिभाषा में हमें अभी और अधिक सुंदर उदाहरण जोड़ने की बेहद जरूरत है।