मुनीष भाटिया

भावनाएं और अनुभूतियां जीवन को सार्थक बनाती हैं। इसके साथ यह भी सत्य है कि आर्थिक समृद्धि के बावजूद हम सब अपनी भावनाओं से जुड़े रहते हैं, उसका स्वरूप चाहे जो हो। हम सब अपने दर्द को तो बखूबी समझते हैं, लेकिन दूसरों के दर्द को सिर्फ देख सकते हैं। अगर कभी उनकी जज्बाती स्थिति को समझ पाते हैं तो उनके साथ बातचीत करने का ही प्रयास कर सकते हैं।

हमें दूसरों की भावनाओं का समर्थन करना चाहिए, क्योंकि दूसरों के दर्द को सिर्फ देखना काफी नहीं है, बल्कि हमें उनके साथ मिलकर उनका सहयोग और समर्थन करना चाहिए। जीवन से हमें हर पल नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और यही हमें मजबूत बनाता है। भावनाओं का आना-जाना, खुशियों और दुख का सामंजस्य, ये सभी जीवन का हिस्सा हैं।

जीवन में समय के साथ-साथ विभिन्न परिवर्तन होते रहते हैं और इन परिवर्तनों का हमारी भावनाओं और दृष्टिकोण पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। जीवन का संतुलन सिर्फ आर्थिक प्रस्तुतीकरण से नहीं होता, बल्कि मानवीय संबंध और भावनाओं का सही संतुलन बनाए रखना भी महत्त्वपूर्ण है। भावनाएं हमारे जीवन को समृद्धि और सुख-शांति से भर देती हैं।

जीवन में खुशी और गम, दोनों ही होते हैं और यही जीवन का सत्य है। हमें इन दोनों को स्वीकार करके उनका सामना करना चाहिए, ताकि हम अपने आत्मविकास की ओर बढ़ सकें और दूसरों के साथ सहजता से जीवन बिता सकें। गुजरे वर्षों में भावनाओं में प्रबलता थी, रुपए सीमित थे, लेकिन सुकून था। संयुक्त परिवारों में भावनाओं का सही तरीके से पोषण होता था।

मगर आज एकल परिवारों में सीमित सदस्यों के पास ही एक-दूसरे के लिए समय नहीं है। माता-पिता और भाई-बहन के साथ बोलने-बात करने की अपेक्षा लैपटाप और मोबाइल के साथ ज्यादा समय बीत रहा है। सोशल मीडिया की विभिन्न वेबसाइटों पर बनाए गए मित्र संबंधों के तो जन्मदिन से लेकर उनकी हर छोटी-छोटी खुशियों में बड़ी ही तल्लीनता से शरीक रहते हैं।

मगर अपने घर की चारदिवारी की बड़ी से बड़ी खुशी से भी कई बार अनजान रहते हैं। यह सत्य है कि समृद्धि से ऐश्वर्य प्राप्त होता है, लेकिन यह भी गलत नहीं कि आत्मसमर्पण से मानवीय संबंधों में ही सच्चा सुख निहित है। जीवन में समृद्धि सिर्फ वित्तीय सफलता में नहीं होती, बल्कि मानवीय संबंधों, भावनाओं और आत्मिक समृद्धि में भी बसी होती है।

हमें दूसरों के साथ समदृष्टि बनाए रखना चाहिए और उनका समर्थन करना चाहिए, क्योंकि समर्थन और सहानुभूति हमें एक-दूसरे के साथ मिलकर आगे बढ़ने में मदद करते हैं। जीवन के सभी पहलुओं को स्वीकार करके, चुनौतियों का सामना करके, हम अपने आत्म विकास में मजबूत हो सकते हैं। मसलन, आज के सामाजिक परिवेश में मुख्यधारा की जीवनशैली और संबंधों से इतर समलैंगिता पर समर्थन और विरोध, दोनों तरह के विचार एक चुनौती बने हुए हैं।

आज कुछ इस तरह के समुदाय समाज के अन्य वर्गों से मिल रहे कथित उपेक्षा के फलस्वरूप अपने हकों की आवाज बुलंद कर एकजुट हो रहा है। किसी समय ये भावनाएं बेशक जिंदा थीं, लेकिन खुले तौर पर इनका व्यापक पैमाने पर प्रदर्शन नहीं होता था। आज खुलकर कुछ लोग सामने आ रहे हैं। हालांकि हमारे समाज की जो पारंपरिक सोच रही है, उसमें वे लोग कई जगहों पर उपेक्षा का पात्र भी बन रहे हैं।

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि समाज के एक बड़े वर्ग के प्रति नफरत का भाव रखना स्वस्थ समाज का संकेत नहीं है। आज समय की मांग है कि अगर कोई व्यक्ति अपनी तरह से और अपने चुनाव के तहत जीवन व्यतीत करना चाहता है तो उस पर खुले तौर पर स्वस्थ मानसिकता के साथ बहस होनी चाहिए।

हमारे आसपास एलजीबीटी सहित वैसे तमाम लोग हैं, जो तर्क देते हैं कि जीवन उनका है और उन्हें इसे अपने तरीके से जीने का हक मिलना चाहिए। मगर इस मसले पर हमारे समाज में चारों ओर व्याप्त नैतिकता और अनैतिकता की दीवार ने हमारे सामाजिक ताने-बाने को बांध कर रखा हुआ है, उसे नष्ट नहीं करने की भी बात कही जाती है।

धार्मिक परंपराओं और सामाजिक दबाव की वजह से लोग अवश्य अपनी भावनाओं को कुछ समय तक दबा सकते हैं, मगर वह स्थायी नहीं हो सकता। धार्मिक धाराओं और सांस्कृतिक मूल्यों के कारण, व्यक्ति अपने भीतर जीवन जीने की पद्धति और भावनाओं को छिपा सकता है या उन्हें स्वीकार करने में कठिनाई महसूस कर सकता है।

एक कहावत है कि भाव बदल सकते हैं, लेकिन किसी का स्वभाव नहीं बदल सकता। प्रकृति ने इंसान को जैसा बनाया है, उसमें वैसा ही स्वभाव विद्यमान रह सकता है। ध्यानपूर्वक और सहानुभूतिपूर्वक परंपराओं को समझकर, उनके साथ संतुलन बना कर लोग इसे समझ सकते हैं और अपने आसपास हाशिये के बाहर के लोगों की समस्याओं का सहानुभूतिपूर्वक समाधान निकाल सकते हैं।