सीखना अगर एक कला है, तो बेशक सिखाना भी एक हुनर है। गुरु-शिष्य परंपरा के बीज भी कभी सीखने-सिखाने की इस कला ने ही बोए होंगे। चाणक्य के बिना चंद्रगुप्त कहां होता। रामकृष्ण परमहंस के बिना स्वामी विवेकानंद खुद को कभी खोज ही न पाते। सिद्धार्थ के जीवन की वे चार घटनाएं थीं, जिन्होंने उन्हें झकझोर कर गौतम बुद्ध बना दिया। यानी गुरु हमेशा कोई साक्षात व्यक्ति ही हो, ये जरूरी नहीं। बल्कि वे अनुभव और घटनाएं भी गुरु हैं, जिनसे टकराकर हम खुद की पहचान ढूंढ़ने में लग जाएं। कई बार सिखाने वाले को खुद भी नहीं पता होता कि उसने जाने-अनजाने किसी को सीख का बीजमंत्र दे दिया है। एकलव्य की प्रेरणा ने माटी की निर्जीव मूरत में अपने संकल्प की प्राण प्रतिष्ठा की होगी कि उसने द्रोणाचार्य के बुत से धनुर्विद्या सीख ली।
गुरुओं के देवता बृहस्पति कहे जाते हैं और दानवों के गुरु शुक्राचार्य हैं
गुरुओं के देवता बृहस्पति कहे जाते हैं और दानवों के गुरु शुक्राचार्य हैं। ये दोनों गुरु अपने आप में प्रतीकात्मक हैं। सीखने वाले की प्रवृत्ति और प्रकृति, इन दोनों की दिशा इस बात से तय होती है कि सिखाने वाले की प्रवृत्ति कैसी है। गुरु और शुक्र, दोनों में ज्ञान की कमी नहीं। लेकिन भाव, ज्ञान की दिशा पलटने का दम रखता है। कहते हैं, रावण-सा ज्ञानी दूसरा पैदा नहीं हुआ। उसमें न ज्ञान की कमी थी और न ही बल की, लेकिन उसका दिशाहीन बल और उसकी बुद्धि ही उसे ले डूबी।
सीखने की ललक के बिना गुरु के ज्ञान का भी कोई मोल नहीं। ये एक सिक्के के दो पहलू हैं। जो जैसा सीख सीखना चाहता है, वैसा ही गुरु भी खोज लेता है। हमारे यहां गुरु-शिष्य का संबंध केवल शिक्षा के दायरे में नहीं बंधा है। उस्ताद चोरों के भी होते हैं, जिनसे वे चोरी और ठगी के पैंतरे सीखते हैं। ट्रक पर काम करने वाले, चाय-ठेले और दूसरी दुकानों पर काम करने वाले छोटू और रामू चेले के भी उस्ताद होते हैं। यानी जीवन के हर पहलू में गुरु-चेले की जुगलबंदी जरूर मिलती है, लेकिन इन सबमें शिक्षा के क्षेत्र में गुरु-शिष्य का संबंध सबसे ऊपर और पहले है।
कोविड महामारी ने लोगों को वैकल्पिक होकर जीना सिखा दिया
सीखने-सिखाने का यह संबंध अब दोतरफा नहीं रहा, तकनीकी दखल ने यहां दस्तक दे दी है। गूगल, यू-ट्यूब पर सहजता से जानकारी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते अब हम चैट-जीपीटी और कृत्रिम बुद्धिमता के गलियारों में खोने लगे हैं। कोविड महामारी ने लोगों को वैकल्पिक होकर जीना सिखा दिया। शिक्षा और स्कूल की कड़ी जोड़े रखने की कोशिश ने आनलाइन पढ़ाई का जो रास्ता दिखाया, उसने सीखने का चेहरा बदल दिया।
गुरु-शिष्य के संबंध में यह सुलभता अनदेखी दूरी ला रही है। अब शिक्षक सिखाने की ज्यादा सरदर्दी नहीं लेते। वे भी आनलाइन मंचों के लिंक साझा कर देते है। बच्चों को भी अब यह ज्यादा भाने लगा है। अब सिखानेवाले हुनरमंदों की जरूरत खत्म होने लगी है। तकनीकी दखल ने सीखने-जानने के जो अनेक तरीके सिखाए हैं, उनमें से एक है सहजता की सीख। यानी जब चीजें आसानी से की और सीखी जा सकती हैं, तो उन्हें मुश्किल तरीकों से हल करने की जरूरत क्या है। हालांकि देर-सवेर हमें यह समझ में आएगा कि चीजें आसानी से जानने और करने की सहूलियत सीखन-सिखावन की कड़ी को कमजोर कर रही है। हम सीखने को लगातार आसान बनाने की कवायद में लगे हैं।
हमारी शिक्षा व्यवस्था की सबसे मजबूत कड़ी गुरु-शिष्य परंपरा है, जिसकी साख अनुशासन और सम्मान पर टिकी है। सहजता जैसी कोई चीज नहीं होती। आलस्य को अनुशासन से साधकर ही सहजता के पायदान पर चढ़ा जा सकता है। पर आज यह तस्वीर भी बदल रही है। तकनीक ने जो सुलभता हमें मुहैया कराई है, वह हमारी मानसिकता पर इस कदर हावी है कि हम सब कुछ आसानी से हासिल कर लेना चाहते हैं। फिर वह रोजमर्रा का कोई काम या जरूरत हो या पढ़ाई-लिखाई ही क्यों न हो।
किताबों की जगह ई-किताबें, पीडीएफ, अध्यापक, गुरुओं की जगह कोचिंग संस्थान, आनलाइन यूट्यूब वीडियो और ट्यूटर सहजता से मिल रहे हैं। ई-पेपर और ई-पत्रिकाओं के जमाने में किताबें आनलाइन हो रही हैं तो हैरानी की बात नहीं। इस सच को हम अक्सर आंकड़ों की गिनती से झुठलाने की कोशिश करते हैं। बच्चों के हाथ से कापी-कलम छूट रहे हैं। कापियों के बजाय बच्चे लैपटाप, कंप्यूटर पर ही व्यस्त हैं। अभिभावक बड़े अभिभूत हो रहे हैं कि हमारे बच्चे पश्चिमी देशों के बच्चों और उनकी जीवनशैली से जरा भी कम नहीं।
सवाल यह उठता है कि चीजें आसानी से करने और सीखने की जरूरत क्यों हैं? पहले चीजें आसान करके सिखाने के बजाय, न सीखने के जोखिम और परिणाम पर गुरु और अभिभावक बराबर जोर देते थे। जब हम शुरू से जोखिम और चुनौतियों का सामना करते हैं तो यह हमें मानसिक तौर पर मजबूत बनाता है। आज युवा प्रतियोगिता और जोखिम से निपटने के आसान रास्ते पहले खोजता है। इस बात पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि बच्चों को चीजें और परिस्थितियां आसान करके देने की चाह में कहीं हम सक्षम होने की राह में रोड़े तो नहीं बन रहे। सहूलियत और सिखावन में तकनीक का पुल बांधते हुए हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि सीखने की कुछ शर्तें होती हैं और सफलता और मेहनत का कोई संक्षिप्त रास्ता नहीं। आसानी से कुछ हासिल नहीं होता और चुनौती सफलता का पहला पड़ाव है।