भारतीय समाज में एक मान्यता बहुत गहरे से समाई हुई है कि अच्छे के साथ हमेशा अच्छा होता है और बुरे के साथ बुरा। हालांकि अच्छे और बुरे को परिभाषित कर पाना इतना सरल काम भी नहीं है। हम सभी के भीतर दोनों ही पक्ष समाहित रहते हैं। यह हमारे उचित चुनाव पर निर्भर करता है कि हम जीवन जीने के किस तरीके को चुन रहे हैं। हमारे व्यक्तित्व के कौन-से पक्ष के विस्तार को पर्याप्त खुराक दे रहे हैं या फिर क्या हम दोहरा जीवन जीना पसंद करते हैं?
खुद के लाभ के लिए सीमा को लांघ भी जाते हैं
जिसमें कुछ लोगों के लिए हमारी छवि अच्छी बनती है, वहीं किसी और के लिए हम नकारात्मक भूमिका में आ जाते हैं। सामान्य रूप से हम सभी सही आचरण करते हैं, पर कभी-कभी खुद के लाभ के लिए अपनी सीमा को लांघ भी जाते हैं, क्योंकि असफल होना किसी भी व्यक्ति को पसंद नहीं होता। हर हाल में वह विजेता की तरह नजर आने की ख्वाहिश रखता है। किसी भी व्यक्ति की मन:स्थिति को समझ पाना मुश्किल होता है।
दरअसल, हमारे पास अपने वास्तविक रूप को छिपाकर स्वांग रचने के कई साधन मौजूद हैं। दूसरी तरफ आत्मावलोकन और आत्मचिंतन की कला भी सभी को ठीक से नहीं आती। यही वजह है कि कई बार हम और हमारे विचार अक्सर किसी अपरिचित की तरह हमारे ही सामने आ खड़े होते हैं। हम अपने ही बदलते क्रियाकलापों, विचारों, भावावेगों से भौंचक्क रह जाते हैं।
लंबी अवधि तक किसी व्यक्ति के संपर्क में बने रहने और भिन्न परिस्थतियों में एक दूसरे की प्रतिक्रिया, आचरण और विचारों को समझने के बाद ही उससे थोड़ा बहुत परिचित हो पाना संभव हो पाता है। अधिकांश समय हम एक दूसरे के अल्प पक्षों को जानते हुए ही उसके समग्र व्यक्तित्व का अनुमान लगाने की भूल करते रहते हैं। इस भ्रामक स्थिति का फायदा उठाने में चतुर व्यक्तियों को मुश्किल नहीं होती।
निराशा और असहजता तब और अधिक बढ़ जाती है, जब हम किन्हीं निष्कपट, ईमानदार और सच्चे लोगों को हारते हुए संघर्ष करते देखते हैं। चतुर, चालाक, कूटनीतियों से अपने अनैतिक या भ्रष्ट काम को अंजाम देते हुए लोगों के साथ हमेशा बुरा होता हो, ऐसा भी हमें स्पष्ट नजर नहीं आता। यह भी रोचक है कि सही और गलत के खेल में हमेशा डोर मुट्ठी भर लोगों के निहित स्वार्थ पर केंद्रित होती है। ये वे लोग होते हैं, जिन्हें अनैतिक को नैतिक, गलत को सही दिखाने, बनाने और प्रसारित करने की कला बखूबी आती है। एक ऐसा वातावरण निर्मित करने में वे सक्षम होते हैं, जिसमें लाभ अर्जन के सारे खेल सहजता से स्वीकार्य होते चले जाते हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी घरों, परिवारों, स्कूलों में अक्सर यह पाठ पढ़ाया जाता रहा कि सच्चे मन और अच्छी नीयत से नैतिक मूल्यों के साथ किया गया काम और व्यवहार करते रहने से सब अच्छा होगा, सबका भला होगा। क्या यह बोधवाक्य अब अपनी प्रामाणिकता खोता हुआ नजर आने लगा है? इस कथन के प्रति पैदा होती निराशा मूल्यों के प्रति हमारी आस्था और विश्वास को धीरे-धीरे लील तो नहीं रही है? क्या यही कारण है कि आज हर हाल में सफल होना सबसे श्रेष्ठ लक्ष्य मान लिया जाने लगा है। असफलता पहले की तरह संवेदना नहीं बटोर पाती। गिर कर वापस उठने से जुड़ा साहस, धैर्य और उम्मीद अब किसी तरह का खास जुनून पैदा नहीं करते। दबे पांव आज सब कुछ बिकाऊ होता चला जा रहा है। सफलता भी खरीदी जाने वाली चीज बनती गई है। शायद इसलिए हमारी नैतिक और मानवीय संवेदना भी शून्य होती चली गई है।
हमें यह समझना होगा कि हमारे अपने जीवन की, समाज के भविष्य की मजबूती केवल वास्तविक सत्य को स्वीकारने और उसके पक्ष में खड़े रहने से ही संभव है। किसी भी तरह का छोटा, बड़ा अनैतिक, बदनीयत व्यवहार हमें कभी भी स्वीकार नहीं होना चाहिए। खुद के संतुलित व्यवहार और नैतिक आचरण की जिम्मेदारी भी गंभीरता से निभाना होगा। जब हम सही आचरण करते हैं, तब यह जरूरी नहीं है कि अब हमारे साथ सब अच्छा ही होगा या बाकी लोग हमारे साथ अच्छा व्यवहार ही करेंगे। संभव है कि हमें दूसरों से विपरीत प्रतिक्रिया मिले।
तब हमें निराश नहीं होना चाहिए। यह मनुष्य का स्वभाव है कि बुरी आदतें, शब्द वह जल्दी सीख लेता है। जबकि सही को अपने में सम्मिलित करने में साधना की जरूरत होती है। फिर यह भी महत्त्वपूर्ण है कि सही मूल्यों का असर जीवन में हमेशा के लिए बना रहता है। वह हमारा हिस्सा बन जाता है। हम कभी कुटिलता करने का प्रयास भी करते हैं तो हम भीतर से दुख और आत्मग्लानि में डूब जाते हैं। अच्छाई के रास्ते पर बढ़े कदम पीछे कभी नहीं लौट पाते। यही कारण है कि झूठ, फरेब कितना ही शिखर प्राप्त कर लें, पर सम्मान केवल ईमानदार सदाचारी व्यक्ति का ही होता है।
वर्तमान में अगर हमारा चयन स्वार्थपरक बन सही के पक्ष में आवाज नहीं उठा पाता है तो यह निश्चित है कि भविष्य में हमारी ईमानदार कोशिशों को उनका उपयुक्त स्थान नहीं मिलेगा। हमें सदियों से सुने जा रहे इस सरल वाक्य के भीतर के महत्त्वपूर्ण अर्थ को सच साबित करना होगा कि अच्छे के साथ अच्छा होता है और बुरे के साथ बुरा, यह न्यायपरक है, उम्मीदों से भरा वाक्य है, जिसमें सच्चे, मेहनती इंसान को हौसला मिलता है और कुटिल व्यक्ति को खुद को सुधारने की युक्ति। यह विचार सही मायने में सुंदर स्वस्थ समाज की नींव रखता है।