विप्रम
कहा जाता है कि जो आया है वह जाएगा ही। पुराना जाएगा तो नया आएगा। सृष्टि का यह अटल नियम है। नए के लिए पुराने को स्थान त्यागना पड़ता है। इस स्थान परिवर्तन को हमें सहजता से लेना चाहिए। सज्जनता इसी में हैं। विनम्रता सीखते हैं हम। जाते को हाथ जोड़ कर और आगत के आगे झुक कर प्रणाम करें। यही योग है, धर्म है और भक्ति भी। सबको मिला लें तो संस्कृति भी।
गुजरे साल में समझदार लोग अपने पूरे साल में किए कामों का विश्लेषण करते हैं। अपनी अच्छाइयां-बुराइयां और गलतियों का भी आकलन करते हैं, ताकि आने वाले साल से अपने में सुधार ला सकें। कहते हैं, आप स्वयं में तब्दीलियां लाते हैं तो अपने आप सगे-संबंधियों में बदलाव आने लगता है। परिवार में कहा भी जाता है- यह तो अपने बाबा से सीख कर बाबा बन गया है! या यह भी सुनने में आता है कि अरे, ये तो दादी हो रही है। देखो तो इसे आज पूरी दादी अम्मा हो गई है मुन्नी।
साल-दर-साल ऐसे ही बदलाव आते रहते हैं, जो प्रगति का सूचक है। खुशहाली का द्योतक है। वैसे भी ठहरा हुआ जीवन किस काम का? कहते हैं ठहरे हुए पानी में तो अक्सर कीड़े-मकोड़े पनपते देखे जाते हैं। ऐसा पानी औरों को पानी-पानी भी कर दिया करता है। वर्ष के अंतिम दिन देश-विदेश में जगह-जगह गली मोहल्लों में विदाई समारोह बड़े ही जोर-शोर से मनाए जाते हैं। मानो आपस में खैर मनाई जा रही है। दुहाई गाई जा रही हो।
कभी हंसी-खुशी से तो कभी रो-धो कर कि आगे सब सकुशल रहे। जो हम ग्रहण नहीं कर पाए, सीख नहीं सके। अब आगे सीख लेंगे। सब सकुशल होगा।चूंकि समय रुकता नहीं। जैसा चाहेंगे, वैसे कट जाएगा। कट जाता है और काट देता है। हमें समय से सीखना चाहिए। समय पर सीख जाना चाहिए। समय क्या कुछ दिखा देता है। कह नहीं सकते।
वैसे कहा जाता है कि जो किताबें-पुस्तकें सिखा नहीं पातीं, उसे वक्त सिखाया करता है। वक्त ही बुरे वक्त से लड़ना सिखाता है। सीधे-सीधे कहें तो गलत नहीं होगा, अतिशयोक्ति भी नहीं होगी कि समय एक गुरु ही नहीं, महागुरु भी होता है। इसका पढ़ा कभी भविष्य में पछताता नहीं। बस उसे यह गांठ बांध कर चलना चाहिए कि जो गलती हो चुकी है, उसे दोहराएं नहीं, उसकी पुनरावृत्ति न होने दें।
कभी सुना है कि पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, आदि कहीं पढ़ने जाते हैं? कहीं नहीं। हां, सिखाने से ये बहुत कुछ सीख जाते हैं। लेकिन वे सीखते तो स्वयं ही हैं। जंगल-पहाड़ या झील-वीरानों में कौन, किसको सिखाता है। अगर उसके घर परिवार के सिखाते भी हैं तो बहुत ही कम। सब अपने से और अपने बलबूते सीखते हैं। असल में गलतियां वे दोहराते नहीं। चीटियां सीध में चलती हैं तो भेड़-बकरियां समूह में। ऐसे ही अन्य जीव-जंतुओं से हम सीख सकते हैं, पर सीखना नहीं चाहते। जबकि ये बेजुबान जानते-समझते हैं। बीमार होने पर अपना इलाज खुद करते हैं। फल, घास-पत्तियां खाकर अपनी डाक्टरी कर लेते हैं। फिर बरसों-बरस अपनी उम्र भी जीते हैं।
एक लिहाज से देखा जाए तो वर्ष समय ही होता है। एक-एक दिन से महीना और बारह महीने लिए एक साल हो जाता है। इससे पहले एक दिन में चौबीस घंटे और एक घंटे में साठ मिनट। और इससे भी आगे एक मिनट में साठ सेकंड। पल-पल लम्हों से ही समय बनता है। जाने क्यों, हम सब भुला कर घोड़े पर सवार होना चाहते हैं। सवार हो भी जाते हैं। जिसके फलस्वरूप कभी-कभी अनचाहा हो जाया करता है।
हमारे बड़े-बूढ़े इसलिए कहते भी हैं कि धैर्य रखें। धीरज से सब ठीक हो जाता है। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि परेशानी खुद से कम, दूसरों से बहुत अधिक मिलती है। जीवन में जो भी घटता है, वह सबक होता है। मन की तस्सली देने के लिए कह दिया जाता है- ‘ऊपरवाले के करम हैं। उसकी परम इच्छा है।’ चूंकि गुजरते वर्ष को हर कोई अपनी इच्छा और हैसियत से विदाई देता है। हालांकि यह चलन साल भर मौके-बेमौके बहुतों के यहां चलता रहता है। पर वर्ष के अंतिम दिन आधी रात तक इसे मनाने का एक अलग ही आनंद होता है।
आने वाला वर्ष हमें कुछ समझाए, सिखलाए, इससे पहले हमें संभल जाना चाहिए। शायद इसीलिए हम लोग नहीं, सब लोग मिल कर जश्न मनाते हैं। कसमे-वादे खाते हैं। एक सुधार के लिए इतना पर्याप्त है। आवश्यक भी इतना ही। कुछ गलत नहीं हुआ होगा, फिर भी हम क्षमा मांगते हैं। माफी चाहते हैं। इससे जाता कुछ नहीं। हां, एक खुशी मिलती है। दूसरे भी इस बहाने खुश हो जाते हैं। पिछले ग्यारह महीनों और तीस दिनों से कम से कम यह तो सीख ही गए हैं हम।