विस्तार और संकुचन दो विरोधाभासी शब्द ही नहीं हैं, बल्कि इनसे ऐसे संदर्भ निकलकर आते हैं जिनसे जीवन के बड़े महत्त्वपूर्ण विमर्श भी निकलते हैं। आमतौर पर हमें विकास की खूब चर्चा सुनाई देती है, लेकिन कई बार हम विस्तार को ही विकास मान लेने की भूल कर जाते हैं। इसी तरह संकुचन और सिमट जाने में भी बहुत बारीक अंतर होता है। हमारे समाज में हमने विस्तार को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। परिवार, पूंजी, धर्मों, विचारधाराओं का विस्तार। विस्तार हमें हमेशा शक्तिशाली महसूस कराता है, पर विस्तार का दबाव हमें एक बेलगाम होड़ में भी सम्मिलित कर देता है। विस्तार की आकांक्षा में एक किस्म की हड़बड़ाहट भीतर बनी रहने लगती है। हमारे पास जो भी होता है, हम उसकी खींचतान कर उसे विस्तृत कर संतुष्टि महसूस करने लगते हैं।
विस्तार विकास के बाद आने वाली अवस्था है
विकास और विस्तार हमें आपस में जुड़े हुए नजर आते हैं, पर इन दोनों के बीच बहुत फर्क है। विस्तार उन चीजों का होता है जो पहले ही मौजूद हैं। जिनके विस्तार से कई वर्गों के जीवन की गुणवत्ता और अधिक बेहतर हो सकती है, जबकि विकास हर वर्ग, हर क्षेत्र की मूलभूत जरूरतों को पूरा करते हुए अपनी नींव स्थापित करता है और धीरे-धीरे उस पर काम करते हुए विकसित होने की एक लंबी संघर्षपूर्ण प्रक्रिया से होते हुए गुजरता है। विस्तार विकास के बाद आने वाली अवस्था है और उसका आना तभी सही माना जा सकता है, जब सभी संबंधित पक्षों का सम और सर्वांगीण विकास संभव हो सका हो।
इमारत के लिए नींव पहले बनानी ही होगी
बिना इसके विस्तार का कोई औचित्य ही नहीं है। जब नींव ही नहीं बनी है, तो उस पर किस तरह की इमारत बन सकेगी और उनमें कौन रहेगा, जिनके पास पहले से ही इमारत मौजूद है। ऐसे में विस्तार बिना विकास का हो जाता है, मानो शरीर के भीतर प्राण ही नहीं। किसी और के दुख पर भी अपने झंडे लहराने में ऐसा विकास कभी हिचक नहीं करेगा।
विस्तार से बिल्कुल विपरीत प्रकृति का होता है सिमटना। संकुचन और समेट लेने में भी बहुत बारीक अंतर होता है। संकुचन के अर्थ में अपने संपूर्ण अस्तित्व में समस्त पक्षों और आधार क्षेत्र के साथ कमी होना है, जबकि समेटने में व्यक्ति अपने को सीमित करता है और दूसरों के लिए स्थान छोड़ने की विनम्र मंशा रखता है। हम इसी समेटने या सिमटने की बात यहां कर रहे हैं।
हम सभी ने अक्सर सिमटने से प्राप्त संतुष्टि को महसूस किया है। याद कर सकते हैं जब हम किसी जगह मेहमान बनकर जाते हैं, लौटते समय किस तरह हम ध्यान से अपना सब कुछ वापस अपने बैग में समेट लेते हैं। यहां तक कि कुछ लोग अपने कमरे को इतना स्वच्छ, व्यवस्थित करके जाते हैं जैसे वे वहां कभी ठहरे ही नहीं। ठसाठस भरे परिवहन में कभी न कभी खुद के शरीर को समेट लिया होगा, ताकि कोई और भी बैठ सके लंबे सफर में।
कभी अपने शब्दों को भीतर ही समेट लिया होगा कि चुभ न जाए किसी अपने को। हमारी उपस्थिति से किसी को कष्ट न हो, हम इतना न ले लें कि दूसरे के लिए कुछ बचे ही न। हम कहीं किसी की प्रगति के बीच में आड़े तो नहीं आ रहे। उचित रूप से अपने को समेटते रहना अधिक शांत, विनम्र और गरिमामय रवैया लगता है जीवन को जीने का। जो भले हमें समृद्ध या सुखी नहीं बनाता हो, पर हम अधिक संतुलित और विवेकशील बने रहते हैं… अपने आप को कई मानसिक दबावों से बचा भी लेते हैं।
समेटने की प्रवृत्ति प्रकृति के भीतर भी देखने को भरपूर मिलती है। एक ओर वह विस्तार भी कर रही होती है, वहीं उसका ध्यान सबके विकास पर भी केंद्रित रहता है। विस्तार के मोह में कोई किसी का अतिक्रमण न कर लें, इस सोच के साथ संतुलन लगातार स्थापित होता रहता है। गौर से समझने पर यह भी नजर आता है कि समेटने के नियम का पालन प्राकृतिक रूप से जी रहे जीव-जंतु बड़ी ही गंभीरता से निभाते हैं। जब जंगलों के भीतर जहां मनुष्य का हस्तक्षेप न्यूनतम होता है, वे इलाके अधिक स्वच्छ नजर आते हैं।
जीव-जंतुओं की बहुतायत होने के बावजूद उनसे संबंधित चीजों को थोड़ा-सा ढूंढ़ने से ही हमें वे नजर आ जाती हैं। जिस तरह पेड़ों से सूख कर पत्ते झरकर मिट्टी में मिल जाते हैं, उसी तरह वहां रह रहे जीव-जंतु भी अपना जीवन इस स्वाभाविक प्रक्रिया से गुजरते हुए ही बिता रहे होते हैं। पेड़ों से गिरे सूखे पत्तों और जीव-जंतुओं का मृत्यु के बाद मिट्टी में मिल जाना नियति है। प्रकृति का यही बहुत जरूरी नियम है खुद को समेट लेना। जो जितना अच्छे से अपने पूरे जीवन के क्रियाकलापों को समेट लेता है और पीछे स्वच्छ जगह छोड़ देता है, दूसरों को पल्लवित होने को, वह उतना ज्यादा मौका देता है। प्रकृति का यही संदेश है।
हम भी प्रकृति का ही हिस्सा हैं, जिसे खामोशी के साथ पूरी तरह मिट जाना है।
हम कितना ही विस्तार की बात करें, असल में यह महत्त्वपूर्ण है कि हमने कितनी खूबसूरती से अपने जीवन को समेट लिया। हमने कितने लोगों के लिए नई संभावनाएं पैदा कीं। हमारी उपस्थिति से किसी को नुकसान न हुआ हो। खुद का विस्तार करते हुए कहीं हमने अपनी सीमा न लांघ दी हो। अंत में हम जब अपना सामान समेटें तो उसमें केवल अपनी कुछ ऐसी उपलब्धियां ही न हों जो बस हम और हमारे परिवार, समाज तक ही सीमित हों। समेट लेने में कहीं भी किसी प्रकार का संकुचन न हो। हमारे जीवन का विस्तार और सिमटने के बीच हमारे अपने छोटे-बड़े प्रयासों का ऐसा सूरज जरूर उगना चाहिए, जिसका प्रकाश कुछ दूर तक के अंधेरे में उजाला भरने की सामर्थ्य रखता हो।