राजेंद्र प्रसाद

मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक बहुत सारे संघर्ष होते रहते हैं। कुछ लोग जीवन जीते हैं, कुछ जीवन बिताते हैं। कुछ उसको काटते हैं तो कुछ का जीवन यों ही काल बीतने के साथ बीत जाता है। हरेक का जीने का अंदाज और माध्यम अलग-अलग है। रह-रहकर सवाल कौंधता है कि किस तरह से और कैसा जीवन जीएं! जिंदगी का गणित गणना की तरह परिणामी नहीं होता और बहुधा उसे हल करने का प्रयास होता है। लेकिन सुख-दुख का खाता समझ से परे होता है। इसमें कर्मों के सिवा कुछ नहीं बचता। महत्त्व इसका नहीं कि हम कैसा जीवन चाहते हैं, बल्कि इसका है कि जीवित कैसे रहें। जीवन उद्देश्यपूर्ण तो रहना ही चाहिए और हर पड़ाव नई शुरुआत का इंतजार करता है।

बेशक जिंदगी में खत्म होने जैसा कुछ नहीं होता। जिंदगी जबर्दस्त है, जिसे जबर्दस्ती नहीं, बल्कि जबर्दस्त तरीके से जीना चाहिए। दुनिया के इस रैन-बसेरे में पता नहीं, कितने दिन और कैसे रहना है! जैसे नदी कल-कल करती बहती है और वापस नहीं आती, उसी तरह रात-दिन लौटकर नहीं आते। बचपन, जवानी, अधेड़ और बुढ़ापा जीवन के प्रधान अंग हैं। आधी जिंदगी मूल पाठ है और उसके बाद व्याख्या मुंह खोलती है, बशर्ते उसे सुनने के लिए तैयार हों।

निस्संदेह उसे बदलने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और आसान बनाने के लिए समझना पड़ता है। इसलिए हर तपिश मुस्कराकर झेलनी चाहिए, क्योंकि धूप कितनी भी तेज हो, पर वह समुद्र को सुखा नहीं सकती। जैसे वृक्ष कभी व्यथित नहीं होता कि उसने कितने पुष्प खो दिए, पर वह सदैव नए पुष्पों के सृजन में तल्लीन होता है। गुरु नानक कहते हैं कि कर्म भूमि पर कुछ अच्छा पाने के लिए मेहनत सबको करनी पड़ती है।

तेजी से बदलते सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक दौर में बदलाव हमारा निरंतर पीछा कर रहा है। जीवन परीक्षा में अधिकांश लोग इसलिए विफल रहते हैं, क्योंकि वे बिना सोचे-समझे दूसरों की नकल करते हैं। यकीनन सभी को जिंदगी का अलग-अलग प्रश्न-पत्र दिया जाता है और उसे हल करना हमारी जिम्मेदारी है। जीवन रूपी रस्सी उम्मीदों में झूलती है। ऐसा मानें कि आज कल से बेहतर है और कल आज से बेहतर होगा।

डाली से टूटा फूल फिर से लगाना संभव नहीं, मगर डाली मजबूत हो तो नया फूल खिलने का रास्ता सदा खुला है। जिंदगी में खोए पल वापस ला नहीं सकते, मगर उत्साह-विश्वास से आने वाले हर पल को सुंदर बनाया जा सकता है। जीवन ऐसा फूल है, जहां कांटे तो बहुत हैं, मगर सौंदर्य की कमी नहीं है। निस्संदेह पटरी से उतरे जीवन को पटरी पर लाना कठिन है, इसलिए उल्टी राह चलकर सीधे मार्ग पर आना एक चुनौती है।

एक बुजुर्ग से किसी ने पूछा कि क्या कभी बर्तन धोए हैं, तो उन्होंने कहा कि जी, धोए हैं। पूछने लगे, क्या सीखा? बुजुर्ग मुस्कराते हुए बोले, बर्तन को बाहर से कम और अंदर से ज्यादा धोना पड़ता है। जिंदगी में किसी से अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए। जो जैसा है, सर्वश्रेष्ठ है। जीवन ऐसी जोरदार प्रतिध्वनि है, जहां सब उस तरह लौट आना है, जो भी अच्छा-बुरा किया। ऐसे में वह सब अच्छा देने का प्रयास किया जाए, ताकि उसकी गूंज हमारे अनुकूल हो।

जिंदगी खेल है और हम पर निर्भर है कि खिलाड़ी बनना चाहते हैं या खिलौना। सुखी जीवन के लिए जिंदगी से ज्यादा ख्वाहिशें नहीं रखनी चाहिए। बस प्रयास किया जाए कि अगला कदम पिछले से बेहतरीन हो और भविष्य में उस पर पछतावा न हो। जीवन में कभी-कभी कसौटी का ऐसा पल भी आ धमकता है, जब तय करना होता है कि पन्ना पलटना है या किताब बंद करनी है। जीवन में कितना कुछ खो गया, इस पीड़ा को भूलकर क्या नया कर सकते हैं, इसी में जीवन की सार्थकता का गूढ़ रहस्य छिपा है।

जीवन न तो भविष्य में है, न ही अतीत में, पर वह रचता-बसता तो वर्तमान में है। पीछे मुड़कर देखेंगे तो पाएंगे कि जो हमने खोया है, वह जीवन नहीं है। हम बहुत कुछ पाने के लिए बेचैन रहते हैं। मिलता भी बहुत कुछ है इस जिंदगी में, लेकिन गिनती बस उसी की करते हैं, जो हासिल न हो सका। जीवन को सही अंदाज में उत्सव की तरह बिताना चाहिए और जब हम उत्सव मनाते हैं तो मस्ती होती है।

यही समझ जीवन का पायदान है, जहां शिकायत कम और शुक्रिया से बहुत कुछ आसान हो जाता है। पीछे देखकर जीवन समझ सकते हैं और आगे देखकर जी सकते हैं। जब तक जिंदगी पटरी पर चलती है, तब तक सोचते हैं कि हम कुशल चालक हैं, लेकिन जब हमारे मुताबिक न चल रहा हो तो पता चलता है कि जिंदगी रूपी बागडोर कोई और चला रहा है। निस्संदेह जिंदगी छोटी नहीं होती है, लोग जीना ही देरी से शुरू करते हैं। जब तक रास्ते समझ में आते हैं, तब तक लौटने का वक्त हो जाता है। वैसे भी जिंदगी की परीक्षा कितनी वफादार है कि उसका प्रश्नपत्र कभी ‘लीक’ नहीं होता!