गौर किया जाए तो पता चलेगा कि एक ही मौसम में नीम और आम दोनों पर बौर लगते हैं। दोनों ने ही हमें कड़वे और मीठे का चरम स्वाद दिया है। आंवला, शहतूत, नारंगी, करेला कितने-कितने स्वाद हमें इस प्रकृति ने दिए हैं, जिन्हें हमने अपनी ग्रहण करने की क्षमता से इनका आस्वादन किया है। ये आसमान में जो अनगिनत रंग हर सुबह और शाम बिखरते हैं, उन्होंने हमारे चित्रकारों को चित्रों में रंग भरना सिखाया है।
झर-झर गिरते झरने और कल-कल करती नदियों ने हम में संगीत का बोध पैदा किया है। चिड़ियों की चहचहाहट ने हमें जगाया है। हमारे जीवन में इन सबने रंग भरे हैं।कहते हैं दुनिया की सबसे पहली मिठाई हमें मधुमक्खियों ने शहद के रूप में दी। कितने ही जीवों ने हमें मिलकर समूह में रहना सिखाया है। क्या किसी ने सख्त चट्टानों के बीच से किसी पौधे को चुपके से निकलते देखा है? वह हमें सख्त परिस्थितियों में भी संभावनाएं देखना सिखाता है। संघर्ष में उठ खड़े होने की सीख देता है।
फिर वे कौन लोग हैं जो जंगल खत्म कर रहे हैं? पेड़ों को काट रहे हैं? आदिवासियों का जीवन जीना दूभर कर रहे हैं? वे कौन लोग हैं जो नदियों से बजरी निकाल कर उन्हें उथला कर रहे हैं, उन्हें दूषित कर रहे हैं? हम पिछले तीस वर्षों के पहले का एक मोटा-सा आंकड़ा देखें तो पाएंगे कि हमारे देश में लगभग साढ़े चार हजार से अधिक छोटी-बड़ी नदियां सूख गई हैं।
करीब बीस लाख से अधिक तालाब सूख गए हैं। अनगिनत कुएं अब कचरा-पात्र बन गए हैं या उथले हो गए हैं और उनमें पीपल और बरगद उग आए हैं। अब पानी के स्रोत कम होते जा रहे हैं और पानी किसी बांध से बांधकर शहरों तक खींचा जा रहा है। हमारे विकास की कड़ी में औद्योगिक इकाइयों से निकलते नीले, लाल, काले रसायनयुक्त पानी का जमीन में जाना क्या प्राकृतिक जल स्रोत को दूषित नहीं कर रहा?
पर्यावरण हर उस जीव का मुद्दा है जो सांस लेता है। लेकिन मनुष्य के अलावा अन्य जीवों ने इसके पर्यावरणीय चक्र को बनाए रखने में हमेशा अपना योगदान दिया है। हम अगर चाहते हैं कि हमारा जीवन खुशहाल रहे तो इस पृथ्वी पर साफ जल, पहाड़, पेड़, जीव-जंतु, सभी का हमें संरक्षण करना होगा। इसे अपनी आदतों में ढालकर अपने जीवन का हिस्सा बनाना होगा।
विकास के नाम पर पिछले पांच सालों में एक करोड़ से ज्यादा वृक्षों को काट दिया गया। दूसरी ओर, ‘ग्रीन इंडिया मिशन’ के तहत बारह राज्यों को सतासी हजार एक सौ तेरह हेक्टेयर क्षेत्र में वनीकरण और छप्पन हजार तीन सौ उन्नीस घरों को वैकल्पिक ऊर्जा उपकरण प्रदान करने के लिए 273.09 करोड़ की राशि जारी की गई।
छत्तीसगढ़ में लौह अयस्क खनन के लिए चार हजार नौ सौ बीस हेक्टेयर जंगल की जमीन लौह अयस्क खनन के लिए दी जा चुकी है। रांची में साठ हजार पेड़ काट डाले गए और फिर हरियाली लाने के लिए छब्बीस करोड़ खर्च किए जाने की तैयारी है। अब राजस्थान के जयपुर शहर में ‘डोल का बड़’ जंगल को काटने की तैयारी है।
ओड़ीशा के तमनारा प्रखंड के केसरचुना और औराजोर के बीच ग्रामीण अपने स्तर पर वन संरक्षण और पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए सामूहिक रूप से प्रयास कर रहे हैं। जहां वन विभाग की नजर नहीं जाती, वहां उन्होंने मिलकर जंगलों को बचाया है। वहां के ग्रामीणों का कहना है कि जंगल उनकी जीवनशैली और आजीविका से जुड़े हैं। आदिवासी जंगल को अपना घर मानते हैं। उन्होंने दोनों गांवों में पौधरोपण, बीजारोपण और ‘सीडबाल’ के जरिए जंगलों को विकसित किया है।
सच यह है कि पेड़ों की अंधाधुंध कटाई मानव जाति के भविष्य के लिए संकट खड़ा कर रही है। प्रकृति की खूबसूरती उसके संतुलन में निहित है। आज शहरों में सड़कों को चौड़ा करने, उपरिपुल बनाने, औद्योगिक इकाइया लगाने के लिए बड़े पैमाने पर वृक्षों को काटा जा रहा है। सफाई के नाम पर नालियों को ढका जा रहा है और फुटपाथ पक्के किए जा रहे हैं। लोग घरों में दरवाजों के पास तक की जमीन को पक्का करवा रहे हैं। मिट्टी और खुली धरती की जगह तेजी से सिमट रही है। पेड़ों के पत्तों का गिरना भी अब हमें घरों में गंदगी लगने लगा है। जंगल में पेड़ों से बहुत पत्ते गिरते हैं, फिर भी जंगल हमें कभी गंदा नहीं लगता।
आज कई महानगरों में लोग अवकाश के दिनों में जंगलों में प्राकृतिक हवा, एकांत, पक्षियों का कलरव सुनने और जंगल को महसूस करने जा रहे हैं। प्रकृति के नैसर्गिक सुख के बिना आदमी आखिर कैसे जी सकता है? सबके लिए उपलब्ध प्याऊ पर पिलाया जाने वाला पानी अब बोतल में बंद होकर बाजार में आ गया है। अब रोगियों के लिए शुद्ध हवा भी प्राकृतिक चिकित्सालयों में उपलब्ध है। ऐसी स्थिति में हमें सोचना होगा कि विकास के नाम पर तबाह होती हरियाली का हम कितना दोहन करें और कैसे इसे बचाएं।
