एकता कानूनगो बक्षी

इंसान ही एक ऐसा जीव है, जिसके भीतर नई चीजों को समझने-सीखने और रचने की सबसे अधिक बुद्धि और क्षमता है। बुद्धिमान होने के बाद भी वह अपने मन को संतुलित बनाए रखने के लिए संघर्ष करता दिखाई देता है। हालांकि इंसान का मस्तिष्क नैसर्गिक होकर भी एक बेहतरीन कंप्यूटर कहा जा सकता है। इतना सब कुछ होते हुए भी कभी हम उदास होते हैं तो कभी अभावों में भी सब कुछ भला-भला लगने लगता है। यह जानते हुए कि हर व्यक्ति के अपने संघर्ष होते हैं, जीवन की अलग कहानी होती है, दूसरों की उपलब्धि देखकर व्यक्ति दुख और ईर्ष्या के भाव में डूब जाता है। ऐसा क्यों होता है?

किसी व्यक्ति के एक आविष्कार से समाज को खुशी मिलती है तो वही चीज कभी विध्वंस का कारण बन जाती है। एक ही व्यक्ति अलग-अलग किरदारों और परिस्थितियों में बिल्कुल अलग व्यवहार कर सकता है। दरअसल, यही स्थितियां मन का बड़ा संकट हैं। मन और मस्तिष्क में द्वंद्व का संकेत है। बुद्धि और संवेदनाओं के इसी असंतुलन पर नजर बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी।

इंसान के मन-मस्तिष्क को काबू में रखने के लिए और उसे सही दिशा देने के लिए कई प्रयास किए जाते रहे हैं। विज्ञान और तकनीक को हमेशा हमने अपने जीवन को सार्थकता देने में स्वीकार किया है। लेकिन अपने स्वार्थ के चलते इनका जब हमने सीमाओं के बाहर जाकर दोहन किया है, तब अपने जीवन को ही संकट में ला खड़ा किया।

अपने सुखों और विकास के नाम पर प्राकृतिक और मानवजनित आपदाओं को हम खुद आमंत्रित कर लेते हैं। तकनीकी भाषा में समझें तो इसके लिए जिम्मेदार कोई साधन या उपकरण की त्रुटि उतनी नहीं होती। इंसानी मानसिक त्रुटि का नतीजा किसी अच्छी तकनीक को भी विफल कर देता है। यही वह असंतुलन और द्वंद्व है जो मन और मस्तिष्क के बीच खेल करता रहता है।

पहले तकनीकों से आए बदलाव हमें भौतिक तौर पर प्रत्यक्ष रूप से नजर आते थे, पर अब बदलाव परोक्ष रूप से हो रहा है। डिजिटलीकरण और इंटरनेटजनित सेवाओं के उपभोक्ता, जो बच्चों से लेकर प्रौढ़ तक हैं, उनके लिए किसी तरह के खास प्रशिक्षण या आधिकारिक सूचनाओं की भी जरूरत नहीं बची। सुविधाओं के साथ मनोरंजन की ओट में मनुष्य के भीतर बहुत जटिल परिवर्तन महसूस किए जाने लगे हैं। मन और मस्तिष्क के द्वंद्व का यह एक नया और आधुनिक आयाम है।

मोबाइल में उपलब्ध ढेरों ऐप की बदौलत मानो हमें कोई निजी सहायक मिल गया है जो समय-समय पर हमारे महत्त्वपूर्ण कामों, स्वास्थ्य, हमारी नींद की गुणवत्ता, कदमताल, ऊर्जा, धड़कनों और ऐसी कई अनगिनत बातों से हमें अवगत कराता रहता है। हमारे जीवन की छोटी-बड़ी हर चीज के लिए हम इंटरनेट पर निर्भर होते चले जा रहे हैं। यह भी समझने की बात है कि इस बाजार प्रधान समय में हर चीज का सेवा शुल्क और जोखिम है। बेशक हम इसी समय के आगोश में हैं। हमारी वास्तविक दुनिया के समांतर बनी आभासी दुनिया अब वास्तविक दुनिया की तरह ही हमारे जीवन और समाज को प्रभावित कर रही है।

कुछ दिनों पहले आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता जनित बुजुर्ग महिला का वीडियो देखने को मिला, जो हमें उन दिनों की याद दिला रही थी जब टेलीविजन, मोबाइल से दूर लोग अपनों के बीच समय बिताते थे। यह विडंबना ही है कि इस तरह के विषय पर बात करने के लिए हमने इंसान को चुनने की जगह एक रोबोट को चुना, जिसकी शक्ल हमारे बुजुर्गों से मिलती है।

पालतू जीव-जंतुओं की कलाबाजी, गाते, काम करते, खेलते हुए वीडियो किसी भी पशु-प्रेमी को लुभा सकते हैं, पर इन्हें पसंद करने वाले लोग और उससे बढ़ती किसी चैनल की लोकप्रियता और पैसा मनुष्य में सनक पैदा कर रहा है। यह एक ऐसे रोजगार को बढ़ावा दे रहा है, जिसमें संभव है कि कई लोग निस्वार्थ पशु प्रेम के लिए जीवों को नही पालेंगे। उनका मकसद स्वार्थ, लोकप्रिय होना, उसके द्वारा आर्थिक लाभ बनता जाएगा।

कृत्रिमता की चादर ओढ़ हम अपने मन को समझाने के बहाने खोजने लगे हैं। फिल्टर और दिखावे से सजी हमारी आभासी दुनिया में हम अपने आप को इस तरह से प्रदर्शित करते हैं कि जीवन में सब कुछ खूबसूरत, स्वस्थ और खुशनुमा है। यहां सब कुछ चरम पर होता है। वास्तविक जीवन में अगर हम मुस्कुराते हैं तो यहां ठहाके लगाने लगते हैं। कहीं इस चमक-दमक से हम अपने स्वाभाविक रूप और जीवन को ही अस्वीकार न कर दें। वास्तविक दुनिया में लौटना हम खुद के लिए कितना मुश्किल करते जा रहे हैं।

तकनीक का प्रयोग करते समय यह अवश्य याद रखना चाहिए कि वह हमारी सहायता करने के लिए बनी है, हमारा स्थान लेने के लिए नहीं। हमें इस अदृश्य अतिक्रमण से अपने जीवन को आजाद करने का प्रयास करना चाहिए, भले ही हमारी रफ्तर थोड़ी धीमी पड़ जाए। पर अपनी मौलिकता, खूबियों और कमियों के साथ धैर्य और विवेक के साथ हमें आगे बढ़ना चाहिए। मन और मस्तिष्क के बीच के द्वंद्व से हम तभी छुटकारा पा सकेंगे।