कहावत है कि दीवारों के भी कान होते हैं। कई जगह यह भी कहा जाता है कि दीवारें बोलती हैं। मगर ये बातें और कहावतें अब पुरानी हो गई हैं, क्योंकि अब ऐसा लगता है कि इंसान ने भी सुनना और बोलना बंद कर दिया है। हास्यास्पद स्थिति यह है कि एक ही जगह बैठे परिजन एक दूसरे से वाट्सएप पर संदेशों के जरिए या मोबाइल फोन के माध्यम से बातें करते दिख जाते हैं। इस डिजिटल दुनिया में आदमी इंसानियत, भावनाओं और संवेदनाओं से मानो शून्य होता जा रहा है। संवाद करने की कला, एक दूसरे की भावनाओं का आदर, किसी की तकलीफ, क्रोध, दुख या खुशी को चेहरा देखकर पहचानने की कला लुप्त होती जा रही है।

डर यह है कि कहीं हम एक दिन इंसान को सामने देख कर भी पहचानना, उसकी बातों को समझना और सुनना, अभिवादन करना या अपनी भावनाएं प्रकट करना भूल न जाएं! जब हम लंबे समय तक चलते-फिरते नहीं, हाथ-पैरों का उपयोग नहीं करते तो वे सुन्न पड़ने लगते हैं और शिथिल होने लगते हैं, क्योंकि उनकी क्रियाशीलता प्रभावित होती है। ऐसा ही दिमाग के मामले में भी होता है। मशीनरी भी लंबे समय तक न चले तो उसकी क्रियाशीलता प्रभावित होती है। इसीलिए चिंता है कि हमारी जीभ, स्वर-तंत्र, दिमाग का भावनात्मक हिस्सा भी इसी शिथिलता का शिकार न हो जाए।

विशेषज्ञ कहते हैं कि जैसे हमारी शारीरिक मांसपेशियां होती हैं, ठीक वैसे ही सामाजिक मांसपेशियां भी होती हैं। जब हम उनका इस्तेमाल नहीं करते तो ये सुन्न होने लगती हैं। संवाद या बातचीत कम करने पर हमारी याददाश्त और दिमागी सक्रियता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ना बहुत हद तक संभव है। हमने देखा भी होगा कि घर के बुजुर्ग लंबे समय तक अकेले रहने के कारण और जब उनसे कोई संवाद नहीं करता, बच्चे दूर हो जाते हैं और जीवनसाथी से बिछोह हो चुका होता है, वे कई बार चाहकर भी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सही शब्दों और हाव-भाव का इस्तेमाल नहीं कर पाते। अकेलापन उनसे उनका स्वाभाविक व्यवहार छीन लेता है।

संवादहीनता, अकेलेपन और संवेदनहीनता का ऐसा ही उदाहरण युवाओं में भी स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है, जो अकेलापन और उपेक्षित महसूस करने के कारण अवसाद में चले जाते हैं। इनमें से ज्यादातर वे युवा होते हैं जो इलेक्ट्रानिक उपकरणों, इंटरनेट और स्मार्टफोन के जाल में फंस कर वास्तविक दुनिया से दूर होते चले जाते हैं। ये स्नेह या प्यार भरे स्पर्श, सुखद या मनमोहक दृश्य और मधुर व अपनेपन भरी आवाज के जादुई प्रभाव को महसूस ही नहीं कर पाते।

आजकल पति-पत्नी के बीच ‘साइलेंट ट्रीटमेंट’ यानी चुप्पी और अबोला या शीत युद्ध की विषैली प्रवृत्ति में बढ़ोतरी देखी जा रही है। एक तरफ परस्पर बातचीत करने और अपनी आशंकाएं, नाराजगी, डर या समस्याएं साझा करने से मन हल्का होता है, वहीं पति-पत्नी के बीच यह अबोला शीतयुद्ध उनके संबंध, घर के माहौल, सेहत और बच्चों के मिजाज को बिगाड़ने वाला साबित होता है। संवादहीनता और चुप्पी के कई दुष्प्रभाव होते हैं। कई बार हम किसी के प्रति नाराजगी जताने या उसे सजा देने के लिए उससे बात करना बंद कर देते हैं। कभी-कभी यह सिलसिला लंबा खिंच जाता है तो इसके कई दुष्प्रभाव सामने आने लगते हैं।

बीस साल तक ‘आस्ट्रेसिज्म’ यानी बहिष्कार का अध्ययन करने वाले परड्यु यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफेसर किपलिंग विलियम्स का कहना है कि किसी व्यक्ति की अनदेखी करना, अपनी गतिविधियों या आम दिनचर्या से उसे दूर रखना और उसकी किसी बात का जवाब न देना अक्सर उसके प्रति नाराजगी जताने और उसे सजा देने के लिए किया जाता है। इससे प्रभावित व्यक्ति को न सिर्फ भावनात्मक, बल्कि शारीरिक नुकसान भी पहुंच सकता है।

बहिष्कार को प्रभावित व्यक्ति आसानी से समझ सकता है। वह इसकी पीड़ा का अनुभव कर सकता है। चुप्पी, बहिष्कार या ‘साइलेंट ट्रीटमेंट’ के असर से प्रभावित व्यक्ति के दिमाग का वह हिस्सा (एंटीरियर सिंगुलेट कोरटेक्स) सक्रिय हो जाता है जो शारीरिक पीड़ा के दौरान होता है। कम्युनिकेशन स्टडीज के प्रोफेसर पाल श्रोडेट ने अपने एक विश्लेषण में पाया कि ‘साइलेंट ट्रीटमेंट’ से किसी भी रिश्ते को बहुत बड़ी क्षति पहुंच सकती है। इसके प्रभाव से युगल के बीच अंतरंगता खत्म होती है और स्वस्थ व सार्थक संवाद की स्थिति नहीं रहती। युगल के बीच गुस्सा जताने का यह बहुत आम तरीका है, लेकिन इसका प्रभाव झगड़े से कहीं ज्यादा नुकसानदायक होता है।

एक समय था जब लोग पारिवारिक शादी या अन्य अनुष्ठानों में दो-तीन दिन इकट्ठा ठहरते थे। एक ही कमरे, हाल या शामियाने में कई लोग एक साथ रहते और खूब गप करते थे। अब कोई दूर से जाता भी है तो होटल में अलग कमरे दे दिए जाते हैं। रिश्तेदार की मृत्यु पर शोक की घड़ी में भी बहुत मुश्किल से कोई घंटे-आधे घंटे ठहरता है या बातचीत करता है। पहले लोग सामान लेने बाजार जाते थे तो दो-चार लोगों से बातचीत होती थी।

अब आनलाइन खरीदारी के कारण वह सिलसिला भी बंद होता जा रहा है। आदमी अकेला होता जा रहा है। इस अकेलेपन का चयन वह खुद करता है, फिर अकेलेपन से दुखी होता है। राशन, कपड़े भोजन ही नहीं, शिक्षा और चिकित्सा भी ‘आनलाइन’ होने लगी है। मगर इस क्रम में इंसान की जिंदगी ‘आफलाइन’ होने यानी पटरी से उतरने लगी है। अगर हम एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं तो जरूरत है लोगों से मिलने-जुलने और संवाद की। संवाद के माध्यम से ही संवेदनाएं और भावनाएं पुनर्जीवित की जा सकती हैं।