आधुनिक युग में सुख-सुविधाएं तो बढ़ी हैं, पर इनके कारण समस्याएं और दुविधाएं भी बढ़ी हैं। इससे जीवन का प्राकृतिक आनंद नहीं मिल पा रहा। ऐसे में मनुष्य बेचैन, विभ्रमित, संतोषहीन और व्याकुल होकर भटक रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है? हरेक दुखी व्यक्ति अपने मन-मस्तिष्क में इस प्रश्न को लेकर आहत है, पर उसे सही उत्तर नहीं मिल रहा। इस परिस्थिति को उत्पन्न करने के लिए यहां एक या दो नहीं, बल्कि अनेक दोषों पर गौर किया जा सकता है। दुख-परेशानी में उलझा हुआ व्यक्ति खुद भी दुखों-परेशानियों का एक बड़ा कारण है, पर उसकी उलझन इतनी गहरी हो चुकी है कि वह अपने को दोषी देखने की योग्यता ही खो चुका है।

विकास में बाधक बनती है अधिक आबादी

हम सभी को यह सच मानना ही होगा कि अधिक जनसंख्या समुचित उन्नति, विकास और सुख का पर्याय नहीं हो सकती। अधिक जनसंख्या उस स्थिति में उपयोगी हो सकती है, जब जनसंख्या को कार्य में व्यस्त करनेवाली राज-व्यवस्था और इसका एक-एक कार्यकारी अंग अत्यंत निष्ठावान हो। लेकिन भारत और भारत जैसे देशों में ऐसा नहीं है। ऐसे देशों में न तो जनसंख्या कम है, न राज व्यवस्थाएं समुचित हैं और न ही राज-व्यवस्थाओं के कार्यकारी अंग, यानी सरकारी विभाग कर्तव्यपरायण, निष्ठावान और जनसमर्पित हैं।

आधुनिक चकाचौंध में घूमने-फिरने और सुख-सुविधाएं प्राप्त करने के बाद भी दुखी व्यक्ति के दुख का यही सबसे बड़ा कारण है। वास्तव में आधुनिक सुख-सुविधाएं जुटाने के सभी वैश्विक-घरेलू उपक्रम, कार्यक्रम और गतिविधियां सुख-सुविधाएं परोसने की प्रतिक्रिया में अनेक प्राकृतिक-कृत्रिम समस्याएं भी खड़ी करती हैं। इस ओर दुनिया का हर देश और हरेक व्यक्ति तब ध्यान देता है, जब ऐसी समस्याएं महामारी बनकर सिर पर मंडराने लगती हैं।

यह सुविधाओं और दुविधाओं का कार्य-कारण संबंध है। इसे ऐसे समझ जा सकता है। अगर समाज में रहनेवाला कोई व्यक्ति चिकित्सक है और वह रोगी का इलाज उससे ज्यादा से ज्यादा रुपए कमाने के लिए करता है तो चिकित्सक का ऐसा धनार्जन सुख और इस सुख से प्राप्त सुविधा तब दुख-दुविधा में बदल जाती है, जब चिकित्सक की प्रवृत्ति का शिकार रोगी व्यक्ति निजी स्कूल का संचालक बनकर चिकित्सक के बच्चे को स्कूल में प्रवेश देने के लिए बड़ी ‘डोनेशन’ की बात करता है।

रोटी, कपड़ा, मकान, दवा, स्कूल, कालेज, सरकारी कार्यालय, सड़क, यातायात, सड़क पर जाम, सड़क दुर्घटना, बैंक, डाकघर, कृषि, वन, आबकारी, रोग, महामारी, कोरोना, इन्फ्लुएंजा, सुनामी, भूकम्प, तूफान, अतिवृष्टि, भूस्खलन, ऋतु विकृतियां, प्राकृतिक असंतुलन और अनेक अन्य विषयों से संबंधित देशी-विदेशी प्राकृतिक और कृत्रिम, सभी समस्याएं कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में कार्य-कारण संबंध से जुड़ी हुई हैं।

इस संदर्भ में समग्र आकलन यह है कि हमारे समाज में होने वाला हर कार्य, व्यवसाय और गतिविधि दुर्भाग्यवश इसी कार्य-कारण संबंध के दुश्चक्र में फंसे हुए हैं। यही स्थिति विभिन्न समस्याओं की जननी है। कार्य-कारण संबंध का सीधा अर्थ है कि जैसा हम बोएंगे, वैसा ही काटेंगे। हम किसी के साथ बुरा करेंगे तो हमारे साथ भी कोई न कोई बुरा करेगा।

हम अन्याय करेंगे तो हमें न्याय नहीं मिलेगा। सब जगह इस श्रेष्ठ सिद्धांत की अनदेखी हो रही है। इसीलिए आधुनिकता की एक से एक सुविधाएं भी व्यक्ति को संतोषप्रद सुख प्रदान नहीं कर पा रहीं। व्यक्ति अपने भीतर प्रतिक्षण टूट रहा है। वह निरंतर असंतुष्ट रहता है। वह जीवन को मशीन की तरह कठोर, निष्प्राण और असंवेदनशील मान रहा है। वह विशाल व्योम के नीचे स्थित अपने छोटे अस्तित्व को ही चिरस्थायी मान बैठा है। जो मानव प्रकृति के तत्त्व से ही कायास्वरूप बनकर खड़ा है, वही प्रकृति की सर्वाधिक उपेक्षा कर रहा है। ऐसे में सुख, चैन, आराम, शांति और संतुष्टि कैसे मिलेगी!

अनेक आधुनिक समस्याओं का समाधान हमारे ही पास है। जैसे सड़कों पर जाम से बचने के लिए दस-बारह किलोमीटर की दैनिक यात्रा करने वाले लोग साइकिल पर आना-जाना करें। कम आमदनी वाले परिवार अपने अनावश्यक खर्चे कम करें। विलासी वस्तुओं का त्याग करें। व्यक्ति में सद्गुणों को प्रतिष्ठित करने के लिए परिवार, समाज और सरकारें उसे मौद्रिक प्रोत्साहन दें। सज्जनता, सभ्यता, सामाजिकता जैसे उपकारी गुणों के लिए व्यक्ति का सरकारी स्तर पर मूल्यांकन हो।

इसी प्रकार दुर्गुणों और समाज के लिए परेशानियां और समस्याएं खड़ी करनेवालों का भी मूल्यांकन हो। अगर कोई व्यक्ति अपनी जीवन-स्थितियों के लिए किसी प्रकार अवांछित बाधा नहीं चाहेगा, तो वह दूसरों के लिए भी अनावश्यक बाधा नहीं बनेगा। स्वतंत्रता तभी सार्थक है, जब दूसरों की स्वतंत्रता की भी कद्र की जाए। इसके बावजूद एक सभ्य समाज गरिमा और सम्मान के साथ स्वतंत्रता का वाहक होगा।