मानव के व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले विभिन्न तत्त्वों में चरित्र का सबसे अधिक महत्त्व है। चरित्र निर्माण की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। जिसके पास चरित्र है, वही नायक हो सकता है, अन्यथा मनुष्य पद, पैसा और अन्य भौतिक आकर्षणों में खुद की पहचान खो बैठता है। जबकि खुद को पहचानना एक सच्चा और प्रामाणिक जीवन जीने की पहली शर्त है।

‘स्व’ की पहचान या खोज मनुष्य को मनुष्य कहलाने के लिए जरूरी है। ‘स्व भाव’ का तात्पर्य किसी चीज की उस विशिष्टता से है, जिसे निकाल देने पर उस चीज का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जैसे दाहकता को निकाल देने पर ‘आग’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का ‘स्व भाव’ क्या माना जाएगा? निश्चित तौर पर दया, परोपकार, विनम्रता, सदाचार, परस्पर प्रेम की भावना… मनुष्य का स्व भाव होना चाहिए।

अगर ये गुण न हों, तो वह शरीर मात्र रह जाएगा, जो सांसारिक सुखों और बाह्य आकर्षणों की मृग-मरीचिका में फंसकर खुद का सर्वनाश कर डालेगा। बुद्ध ने ‘स्व’ की खोज की और जीवन भर घर नहीं लौटे। उनके उदाहरण से पता चलता है कि सच्चा ज्ञान हमें जीवन-पर्यंत बेचैन करता है और भटकने के लिए बाध्य करता है।

जैनेंद्र ने लिखा है ‘मेरे भटकाव’। बहरहाल, चरित्र की अगर बात करें तो बेशक एक प्रामाणिक चरित्र वाला व्यक्ति जिज्ञासु और अंत तक बेचैन रहने के लिए विवश होता है, क्योंकि वह ज्ञान की खोज में लगा हुआ होता है और स्वयं को भी पाना चाहता है। जिन लोगों मे यह बेचैनी नहीं होती, वे अंत तक जीवन के सच्चे लक्ष्य तक नहीं पहुंचते और उन पर चारित्रिक दुचित्तापन हावी रहता है।

यानी उनकी कथनी और करनी में अंतर होता है। वे बोलते कुछ हैं, दिखते कुछ हैं और होते कुछ और ही हैं। अच्छी पोशाक पहनने वाला और अच्छी किताब पढ़ने वाला व्यक्ति भी कभी-कभी अपनी प्रकृति में खराब होता है। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ हमारे धर्म ग्रंथ हैं, जिनमें राम और कृष्ण के चरित्रों की तुलना होती है। राम को एक आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई और मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है, वहीं कृष्ण रसिक और छलिया माने गए हैं।

कृष्ण अपनी लीलाओं से हमारा ध्यान अपनी ओर खींचते हैं और राम अपने चरित्र के कारण। एक प्रसंग रामायण में आता है जब राम और रावण का युद्ध चल रहा था और रावण ने कहा कि मैं शिव का पुरोहित हूं, मेरे पास इतना सैन्य बल और न जाने क्या-क्या है..! इस पर राम ने प्रश्न किया कि फिर यह युद्ध जीतेगा कौन, तो रावण ने कहा, राम तुम जीतोगे, क्योंकि एक चीज जो मेरे पास नहीं है और तुम्हारे पास है, वह है ‘चरित्र बल’।

चरित्र मनुष्य का सबसे संवेदनशील और सशक्त पक्ष है। इसलिए दुष्ट सबसे पहले सज्जन के शील और चरित्र पर ही वार करता है। उस पर आघात करता है। इस पर बहुत लिखा गया है। शरतचंद्र की जीवनी विष्णु प्रभाकर ने ‘आवारा मसीहा’ के नाम से लिखी है। उसमें शरतचंद्र के वेश्याओं वाले इलाके में जाने पर समाज की प्रतिक्रिया आदि प्रसंगों में यही दर्शाने की कोशिश की गई है कि अगर मसीहा किसी बदनाम गली तक जाता है तो समाज उसे भी बदनाम कर देता है।

‘अमर प्रेम’ फिल्म का गीत है- ‘कुछ तो लोग कहेंगे… लोगों का काम है कहना’, मगर यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि लोग उसके बारे में ही बातें करते हैं, जो चरित्रवान है। वे सबसे पहले उजले को ही गंदला करते हैं। वरना सीता जैसी देवी को ही क्यों अग्नि परिक्षा देनी पड़ती? यह एक सामाजिक मनोवृत्ति है जिससे हर युग में एक सच्चे और चरित्रवान व्यक्ति का सामना होता है।

अंग्रेज जब देश की संस्कृति पर प्रहार कर रहे थे तो वे देश के सम्मान का ही हरण कर रहे थे, क्योंकि ऐसा करना उन्हें सबसे सरल और अपने लिए हितकर लगा। तब से चालाक लोग चरित्र का सौदा करने लगे और व्यक्तित्व के दुचित्तेपन के शिकार होने लगे। अनैतिक और चरित्रहीन लोगों का गिरोह होता है, जबकि नैतिक और चरित्रवान व्यक्ति आमतौर पर अकेला होता है। कई बार उसे अकेला होना पड़ता है। नैतिकता को धर्म की मां माना जा सकता है।

नैतिक हुए बगैर व्यक्ति मानवीय और धार्मिक नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि अनैतिक लोगों ने दुनिया को बांटने के लिए अक्सर धर्म का इस्तेमाल किया है। धर्म की आड़ लेकर या धर्म के नाम पर लोगों में वैमनस्यता पैदा करने की कोशिश की जाती है। जबकि नैतिक और चरित्रवान लोग अपने स्वभाव और नैतिक बल के साथ मानवता के मूल्यों को निबाहते हैं। सीता ने रावण को तिनके की ओट से अपना पति-परायण होना ज्ञात कराया।

चरित्रवान को अपने चरित्र का प्रमाण देने की कभी आवश्यकता नहीं होती। ‘प्रत्यक्षम् किम प्रमाणम्’ वाली बात यहां सिद्ध होती है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि आमतौर पर सच्चे व्यक्ति से ही प्रमाण की मांग की जाती है। हालांकि यह भी सही है कि जो व्यक्ति सत्य के पक्ष में होता है, वह खुद को प्रमाणित करने के प्रश्न पर परेशान नहीं होता। निर्भीकता उसकी ताकत होती है।

संसार और समाज अगर निरंतर आगे की ओर प्रवहमान है तो इसका आधार सत्य ही है। आज समय जिस तरह की जटिलता से गुजर रहा है, उसमें साहसी और निर्भीक चरित्रों की आवश्यकता है जो समाज के पुननिर्माण में अपना योगदान दे सकें। अन्यथा इतिहास की सार्थकता समाप्त हो जाएगी और मनुष्य केवल वर्तमान में विचरण करने वाला सुविधाभोगी जीव मात्र रह जाएगा।