अमिताभ स.
कहते हैं कि मन की तकलीफ तन के दर्द से ज्यादा दुख देती है। बावजूद इसके मन से पीड़ित व्यक्ति के लिए चिकित्सक की मदद आखिरी दरवाजा होना चाहिए, क्योंकि अगर कोई व्यक्तिगत, सामाजिक, पारिवारिक और कारोबारी जीवन में स्वस्थ परंपराओं के साथ जिए, तो डाक्टर तक जाने की नौबत आने वाली ही नहीं है। पहले गहन विचार और मंथन करना चाहिए कि डाक्टर या परामर्शदाता के पास जाने की जरूरत ही क्यों पड़े। उससे पहले ही मुकम्मल उपचार क्यों न कर लिया जाए? मन की बेचैनी की आहट की नब्ज को टटोल कर सुधर जाना ही सबसे कारगर उपाय है।
घर बैठे मानसिक दुख से बचाव के लिए आसपास समूचा और समृद्ध तानाबाना है- परिवार का, संस्कार का, शिक्षा का, शिक्षकों का, मित्रों का, कला का, गीत- संगीत का, अच्छे साहित्य का, धर्म स्थलों का और फिल्मों का भी। ऐसे तमाम औजार हर मन के भीतर नकारात्मकता पैदा करने से रोकते और नकारात्मक रवैये को हराने का जज्बा उत्पन्न करते हैं।
इससे पहले जरूरी सवाल है कि आखिर नकारात्मक रवैया पनपता क्यों है? सबसे अहम कारण है कि ‘उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद क्यों है’ की भावना का मन में घर कर जाना। छोटी-बड़ी वस्तु जब तक पास होती है, तब तक उसकी कद्र नहीं होती। जब दूर चली जाती है, तो उनके अमूल्य होने का अहसास तड़पाने लगता है। मिसाल के तौर पर, बत्तीस दांतों में से एक दांत निकल या टूट जाए, तो जीभ और अंगुली बार-बार वहीं टटोलती रहती है।
किसी के पास दस टाइयां हैं। एक टाई कहीं खो जाए, तो हर वक्त बार-बार उसी टाई का खयाल जेहन में उमड़ता है। अलमारी खोल-खोल कर वही टाई ढूंढ़ते हैं। बेशक वह टाई इतनी अच्छी नहीं थी, लेकिन नहीं मिली, इसलिए मन करता है कि वही पहन कर जाता, तो बेहद जंचता। जब-तब कोई अपनी कमियों को खोजता है, कमियों की जगह पूरी नहीं होती, तो मन दबाव से ग्रसित हो जाता है।
ऐसे दबाव आगे चल कर मन की घोर परेशानी का सबब बन जाते हैं। दबाव स्कूल-कालेज का भी हो सकता है, परिवार की महत्त्वाकांक्षाओं का भी और बनने-ठनने का भी। पुराने लोग साइकिल चलाते थे, सीटी बजाते थे, गले में ट्रांजिस्टर लटकाए फिल्मी गाने सुनते-गुनगुनाते घूमते थे। महंगी बाइक और आलीशान कारों ने आरामदेह सफर के बावजूद आत्म सुख से वंचित कर दिया है।
मन भटकता रहता है कि यार, अब नया उच्च माडल आ गया, उसको देखें। एपल का फोन खरीद लिया, डेढ़-दो लाख का। दुनिया घूमने निकल गए, ब्रांडेड सामान की खरीदारी में रम गए। बावजूद इनके भीतर ही भीतर कुछ कमी महसूस होती है। कुछ समाज, कुछ तरक्की, कुछ तामझाम, कुछ पश्चिमी दुनिया के प्रभाव की। ऐसे तमाम कारक जीवन को खोखला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
ज्यादातर विद्यार्थी समझते हैं कि हम परीक्षा देने जा रहे हैं, या परीक्षा देकर आए हैं। जबकि वास्तविकता है कि विद्यार्थी परीक्षा देते नहीं हैं, बल्कि लेते हैं। उन्हें परीक्षा से ताउम्र के लिए अपार प्राप्ति होती है, न कि वे शिक्षकों को कुछ देकर आते हैं। एक शिक्षाशास्त्री का कहना था कि मेरे दफ्तर में जो भी आता है, कुछ लेने और मांगने ही आता है।
जरा सोचिए कि बड़े ओहदे पर विराजमान नामी-गिरामी शिक्षाशास्त्री की सोच कितनी छोटी हो सकती है। स्वस्थ सोच कहती है कि हर आने वाला कुछ न कुछ देने के लिए आता है, न कि लेने के लिए। अगर हर कोई इस भाव से अपने घर या दफ्तर में आने वाले का स्वागत करेगा, तो जीवन से सबसे घातक अहंकार का सफाया हो जाएगा।
मानवता के लिए सबसे बड़ी हानि है, किसी भावुक व्यक्ति का यों भावहीन हो जाना। जब-तब किसी की सोच होती है कि ऊंचे ओहदे पर हूं, कोई लेने आए, उसे कैसे मना करना है, कैसे टरकाना है। जो ऐसी भावनाओं से पीड़ित होगा, वह कभी न कभी मानसिक पीड़ा से जरूर ग्रस्त रहा होगा या रहेगा। वह खुद ही नहीं, उसके सहयोगियों की पूरी टीम और विचारधारा बहुत बीमार होगी। इस रोग को दूर करने के लिए उदारता से, परस्पर जुड़ाव और जोड़ने से ही सफलता मिल सकती है।
एक शिकारी जंगल में कई दिनों तक भटकता रहा। खाने को कुछ नहीं मिल रहा था। भटकते- ढूंढ़ते उसे एक सेब का पेड़ दिखा। वह फौरन पेड़ पर चढ़ गया और करीब बीस सेब तोड़ लिए। पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा और पांचवां सेब खाया, तो तन-मन तृप्त हो गया। लेकिन छठा, फिर सातवां और आठवां सेब बमुश्किल खा पाया। बाकी सेब चख-चख कर बेकार कह-कह कर फेंकने लगा।
असल में, बाद के सेब पहले जैसे ही ताजे और स्वादिष्ट थे, लेकिन खराबी खाने वाले में थी, न कि सेबों में। यानी हर किसी को खुद तय करना चाहिए कि उसे आखिर जरूरत कितने की है। सुकरात के बारे में कहा जाता है कि वे अक्सर बाजार जाते और ढेर सारी चीजें देखते, लेकिन कभी खरीदते नहीं थे। फिर सोचते कि कितनी सारी चीजें हैं, जिनके बिना मैं खुश हूं। इसलिए कम में संतुष्ट रहना ही सबसे बड़ी दौलत है। एक संतुष्ट दिमाग की कोई मांग ही नहीं होगी, तो मन सदैव सुखी ही होगा!
