सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

दुख एक ऐसी भावना है जो हमारे मन में दर्द और दुविधा का अनुभव कराती है। यह एक अनिच्छुक अनुभव होता है जो हमारे जीवन के रोमांचिक पहलू को छू लेता है और हमारे मन की तंगी को बढ़ाता है। दुख हमें दुखी और असंतुष्ट बना देता है और हमारे संतुलन को हिला देता है। व्यक्तिगत दुख में व्यक्ति अकेलापन और विचलन से जूझता है और इसके कारण उसका मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। दुख का अनुभव करने वाले व्यक्ति को भावनात्मक और भौतिक पीड़ा होती है, वह परिस्थितियों से पराजित महसूस करता है।

व्यक्तिगत दुख का कारण अकेलापन, मृत्यु, रोग, असमंजस और विचलन हो सकता है। सामाजिक दुख का कारण सामाजिक न्याय की सत्ता, सामाजिक विरोध, असहमति और व्यक्तिगत और सामाजिक संबंधों में व्यक्तिगत और सामाजिक विवाद हो सकता है। दुख का भाव हर किसी को होता है और यह हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है। किसी व्यक्ति के जीवन में किसी भी प्रकार के दुख का अनुभव हो सकता है और इसका प्रभाव भी सभी व्यक्तियों पर भारी पड़ता है।

दुख का होना हमारे जीवन में उच्च और नीचे के संघर्ष की भावना भी उत्पन्न करता है। हम चाहते हैं कि हमारा जीवन सदैव खुशहाल और संतुष्ट रहे, लेकिन दुख के अनुभव से हमारा जीवन विचलित हो जाता है। जिन लोगों को दुख का अनुभव हुआ होता है, वे अपनी संतानों और दूसरों को यही सिखाते हैं कि दुख के माध्यम से जीवन में समृद्धि होती है।

दुख से बचने के साधन हैं आत्मानुभवी होना, समाधान और क्षमाशीलता की अद्भुत सजीव ताकत। कहते हैं, दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है, लेकिन अपनी भूल देखने के लिए नजर और नजरिया दूसरा चाहिए। जिन आंखों से हम बाहर की दुनिया देखते हैं, जिनके माध्यम से कई दृश्य जीवन में उतार लेते हैं, वे आंखें स्वयं की भूल देखने के काम नहीं आतीं।

इन्हीं आंखों को थोड़ा-सा भीतर मोड़ दें, तब अपनी भूल नजर आ सकती है। लोग इतने आदी हो जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि अपनी नजरों से अपने भीतर भी देखा जा सकता है। अगर वे इन्हें भीतर की ओर मोड़ना सीख लें तो कई समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाएगा। व्यक्ति के दुख का कारण उसकी ‘मैं’ की भावना है।

इसीलिए कबीर कहते हैं- ‘जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं। प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाहिं’ ‘मैं’ की भावना जितनी अधिक होगी, दूसरों से संपर्क साधना उतना कठिन होगा। दूसरों से संपर्क साधने के लिए मोबाइल, कंप्यूटर या अत्याधुनिक तकनीकों की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके लिए प्रेम की आवश्यकता पड़ती है।

लोग भूल गए हैं कि प्रेम किस चिड़िया का नाम है। ऐसे में प्रेमपूर्ण होना कठिन हो गया है। अगर हमें दूसरों को प्रेम का मतलब समझाना हो या खुद प्रेम में उतारना हो तो एक आध्यात्मिक तरीका है- करुणामय हो जाना। करुणा प्रेम का ऐसा विकल्प है, जिसमें थोड़ी बहुत सुगंध और स्वाद रह सकता है। करुणा की विशेषता यह है कि वह अलग-अलग क्रिया में भिन्न परिणाम देती है। करुणा को सहयोग से जोड़ दें तो प्रेम की झलक मिलेगी।

करुणा वाणी से जुड़ जाए तो भरोसा पैदा होता है। चिंतन में अगर करुणा का समावेश हो जाए तो परिपक्वता आ जाती है। क्रिया से जुड़ जाए तो परोपकार बनने लगता है। क्रोध में उतर आए तो हितकारी दृष्टि, स्नेह और ममता जाग जाती है। मांग में करुणा आने पर प्रार्थना पैदा होती है और प्रार्थना में अगर करुणा उतर जाए तो फिर भक्ति पैदा हो जाती है। जब भी भीतर करुणा उतरे, पहला काम यह किया जाए कि इसे दूसरों से जोड़ें। अपनी करुणा को खुद पर खर्च करने में कंजूसी न करें। अगर प्रेमपूर्ण होना कठिन हो तो कम से कम करुणामय तो हो ही जाएं। इस तरह प्रेमपूर्ण जीवन की राह से दुख के शूल मिटा सकते हैं।

दुख दूर करने और सुख पाने के लिए संबंध बनाए रखना जरूरी है। संबंध के बीज बड़ी सावधानी से बोने पड़ते हैं और उससे भी ज्यादा सावधानी देखरेख में बरतनी पड़ती है। फसल के लिए सबसे नुकसानदायक होती है खरपतवार। ये वे छोटे-छोटे निरर्थक पौधे होते हैं जो मूल फसल के पौधे के आसपास उगकर उसका शोषण करते हैं।

किसान समय-समय पर खरपतवार को नष्ट करता रहता है। रिश्तों की फसल बचाना है तो मस्तिष्क, मन, हृदय और आत्मा को समझना होगा। मस्तिष्क के रिश्ते व्यावहारिक होते हैं। व्यापार की दुनिया में मस्तिष्क काम आता है। हृदय में घर-परिवार के रिश्ते बसाए जाते हैं। रिश्तों की फसल के लिए सबसे अच्छी खाद होता है समय, समझ और समर्पण।

यह खाद ठीक ढंग से दी जाए तो फसल बहुत अच्छे से फूलेगी-फलेगी, अन्यथा मन भेद को जन्म देता है। भेद का अर्थ है संदेह, ईर्ष्या, झूठ, कपट। यहीं से रिश्ते एक-दूसरे का शोषण करने पर उतर आते हैं। रिश्तों की फसल बहुत सावधानी से बोना, उगाना और बचाना चाहिए और फल के परिणाम तक ले जाना चाहिए।