सदाशिव श्रोत्रिय
किसी समाज की दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति और उसमें प्रचलित रिवाजों के बीच हमेशा से एक गहरा संबंध रहा है। रिवाजों का अनुसरण लोग आमतौर पर बिना किसी सवाल के करते हैं और अपनी प्रतिदिन की आवश्यकताओं के उत्तर अपने समुदाय के प्रचलित रिवाजों में खोजने की कोशिश करते हैं।
मसलन, जब कोई बच्चा बड़ा होने लगता है तो उसके माता-पिता आजकल तुरंत उसे ‘किसी स्कूल में डालने’ की बात करने लगते हैं। ऐसा न करने पर वे शायद अपने आप को अपराधी भी महसूस करने लगते होंगे। रिवाजों की गिरफ्त से छूटना मुश्किल है, क्योंकि किसी संकट के समय वे ही कुछ प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ होते हैं।
उदाहरण के लिए किसी त्योहार को हम कैसे मनाएं या अपनी लड़की की शादी किस तरह करें या किसी नजदीकी रिश्तेदार की मृत्यु हो जाने पर हमें क्या करना होगा आदि बातों का जवाब हमें अपने समुदाय में प्रचलित रिवाजों में मिलता है। वह अधिकतर लोगों को मालूम होता है। किसी समुदाय में प्रचलित रिवाज उस समुदाय के हर सदस्य के लिए संकटकाल में एक सुनिश्चित मार्गदर्शन और आलंबन का काम करते हैं।
कुछ रिवाजों की उपस्थिति हमें अपने जीवन में दिखाई भी नहीं देती है। जैसे सुबह उठते ही हमारा एक प्याला चाय पीना या हर रोज सुबह ताजा अखबार पढ़ना। किसी का प्रतिदिन किसी मंदिर में जाना, संध्या-हवन-आरती आदि करना धीरे-धीरे उस व्यक्ति के लिए एक अनिवार्य गतिविधि बन जाता है और वह उस व्यक्ति के समुदाय में प्रचलित होकर कई बार एक रिवाज का रूप ले लेता है। धीरे-धीरे ये रिवाज इन लोगों के समय की बर्बादी के सबसे बड़े कारण भी बन सकते हैं।
देखा जा सकता है कि आज के समय में कितने लोग प्रतिदिन अपना बहुत-सा वक्त अपने परिचितों को सुबह-सुबह ‘गुड मार्निंग’ संदेश भेजने में खर्च करने लगे हैं। सोशल मीडिया पर आजकल लोग अपने या अपनों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह की बधाई आदि का इजहार करते हैं और उसके एवज में पसंदगी, टिप्पणियां और शुभकामनाओं की उम्मीद भी लगाए रहते हैं।
हम जानते हैं कि सोशल मीडिया पर कई उद्गार बहुत गंभीर और सच्चे नहीं होते और केवल औपचारिकता के लिए अभिव्यक्त किए जाते हैं। इस तरह आदमी आजकल कई बार अपने आप के प्रति भी सच्चा नहीं रह पाता। रिवाज कई बार इस तरह किसी समाज में दिखावटी और अगंभीर आचरण के जनक बन जाते हैं।
उपभोक्तावाद और मुनाफाखोरी पर टिकी आज की सभ्यता तरह-तरह की चीजें और सेवाएं बेच कर मुनाफा कमाने के चक्कर में रहती है और वह बड़ी चालाकी से नए-नए रिवाजों की शुरुआत करने और उनके सार्वजनिक प्रचलन की कोशिश करती रहती है। शादी-ब्याह जैसे मौकों के लिए लोग अपने संचित धन की थैली उदारतापूर्वक खोलने को तैयार रहते हैं।
इस सभ्यता ने हमारे देखते-देखते परंपरागत घोड़ी-बाजे और बारात के साथ-साथ स्वरुचि-भोज, विवाह-पूर्व फोटो सत्र, किसी पर्यटन स्थल पर विवाह के बाद नवविवाहितों की विदेश-यात्रा जैसे महंगे कार्यक्रमों को धीरे-धीरे हर मध्यवर्गीय विवाह-समारोह का अविभाज्य हिस्सा बना दिया है।
शिक्षा संस्थाओं में विद्यार्थियों की अनेक गतिविधियां अक्सर एक रिवाज का रूप ले लेती हैं। प्रवेश, हाजिरी, छात्र-संघ चुनाव, परीक्षा आदि रिवाजों का विद्यार्थी के शिक्षित और ज्ञानवान होने से भला क्या सीधा संबंध है? इन रिवाजों की अनिवार्यता से वास्तविक शिक्षण का बहुत-सा बहुमूल्य समय यों ही बर्बाद हो जाता है। जब से इंटरनेट ने शिक्षा-तंत्र में प्रवेश किया है, तब से हमारी अधिकांश शिक्षण संस्थाओं में काम करने वाले अध्यापकों की बहुत-सी ऊर्जा भी शिक्षण के बजाय अनेक सरकारी रिवाजों और औपचारिकताओं के निर्वाह में ही व्यय होने लगी है।
विवाह समारोहों के विभिन्न रिवाजों के निर्वाह और पालन में आजकल विवाह का मूल उद्देश्य भी बिल्कुल भुला दिया जाता है। पर रिवाजों के बारे में जिस एक बात से हम इनकार नहीं कर सकते वह यह है कि रिवाज किसी भी समाज को सुंदर और रसपूर्ण बनाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अगर समाज में कुछ रिवाज प्रचलित न हों तो वह समाज एकदम रसहीन और बेतरतीब लगने लगेगा।
किसी संस्कृति के सारे उपादन, संगीत, नृत्य, रंग-बिरंगी वेशभूषा, खाने में नाना प्रकार के व्यंजन, आभूषण, रंगोली, मेंहदी, भजन, उपदेश, कहानी-किस्से, गीत-कविताएं किसी समाज में प्रचलित रिवाजों से ही जन्मे हैं। लोग रात्रि-जागरण, मेहमानों का स्वागत, सामूहिक दावतों का आयोजन, खुशी या शोक जाहिर करते हैं।
त्योहार मनाते हैं, पतंगें उड़ाते हैं, खीच-ओल्या बनाते हैं, बिंदौलियां-जुलूस रैलियां निकालते हैं और इस तरह इस दुनिया को रंग-बिरंगा और रसपूर्ण बनाते हैं। इसीलिए जब सब लोग केवल अधिकाधिक कमाने और खर्च करने के फेर में पड़े हैं, तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बिना पैसे के या बहुत कम पैसे से भी इस दुनिया को काफी रसपूर्ण बनाया जा सकता है।